जाड़ा आया रे

15-11-2025

जाड़ा आया रे

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

ठंडी-ठंडी चलती बयार, 
धूप भी लगती अब गुलज़ार। 
कप-कप काँपे हाथ-पैर, 
माँ बोले—पहन ले स्वेटर ढेर। 
 
सुबह नहाने का मन न करे, 
भाप निकलती हर साँस भरे। 
चाय-पकौड़े की मस्त ख़ुश्बू, 
रजाई बोले—मत निकल तू। 
 
धूप में बच्चे खेलें जाएँ, 
टोपी-मफलर ख़ूब पहनाएँ। 
जाड़ा लाया मस्ती प्यारी, 
लाल-गुलाबी हर क्यारी। 
 
गिलहरी कूदे डाल-डाल, 
सूरज निकले तो ख़ुशहाल। 
बोलो सब मिल प्यारे-प्यारे—
“जाड़ा आया रे, जाड़ा आया रे!”

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
कविता
कहानी
किशोर साहित्य कविता
दोहे
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
शोध निबन्ध
काम की बात
स्वास्थ्य
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
चिन्तन
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में