इंस्टाग्राम वाला प्यार
डॉ. प्रियंका सौरभ
रिया को बचपन से ही छायाचित्र लेने का शौक़ था। जब उसके हमउम्र बच्चे खिलौनों, खेलों और अपने छोटे-छोटे झगड़ों में व्यस्त रहते थे, रिया किसी भी साधारण-सी वस्तु को दूसरी नज़र से देखने लगती। वह सुबह की किरण को भी ऐसे देखती जैसे वह किसी कोमल कहानी का पहला अध्याय हो। उसे लगता था कि दुनिया में हर वस्तु, हर मनुष्य, हर क्षण अपना कोई रहस्य छुपाए बैठा है, जिसे सिर्फ़ वही पकड़ सकती है। स्कूल के दिनों में उसे एक सादा-सा कैमरा मिला था—सस्ता, छोटी दुकान वाला, लेकिन रिया के लिए वह दुनिया का सबसे अनमोल साथी था। उसी कैमरे ने उसके भीतर छिपे कलाकार को जन्म दिया था।
समय बदला, वह कॉलेज में पहुँची और उसके भीतर की अनुभूतियाँ भी गहरी होती गईं। शहर के एक कोने में वह एक छोटे से कमरे में रहती थी। दीवारें साधारण थीं, पर उन पर टँगी उसकी तस्वीरें उन्हें एक अलग पहचान देती थीं। तस्वीरों में रोशनी थी, अँधेरा था, रंग थे, धुँधलापन था, और सबसे बढ़कर—भावनाएँ थीं। हर तस्वीर किसी न बोले हुए वाक्य की तरह थी। प्रत्येक छवि मानो कह रही थी कि दुनिया में जो ध्वनि नहीं कह पाती, वह छाया कह सकती है।
किसी दिन उसके मित्रों ने उसे सलाह दी कि वह अपने चित्रों को एक मंच पर साझा करे। वह एक ऐसा मंच था जहाँ लोग अपने विचार, चित्र, वीडियो और दिनचर्या साझा करते थे। रिया ने अपना एक पृष्ठ बना लिया। उसने उसका नाम रखा—“क्षणचित्र-संग्रह।” नाम कोमल था और सरल। लेकिन उसका पृष्ठ देखते ही लोग ठहर जाते। रिया को यह उम्मीद नहीं थी कि लोग उसकी कला को इतना पसंद करेंगे, मगर धीरे-धीरे उसके अनुयायी बढ़ते गए। उन्हीं अनुयायियों में एक था—आरव। वह चुपचाप रिया के प्रत्येक चित्र को पसन्द करता। न कोई टिप्पणी लिखता, न कोई लम्बा संदेश भेजता, बस मौन में प्रशंसा करता। कभी-कभी वह एक चमकता तारा भेज देता, मानो वह किसी दूर देहात के आसमान से अपना छोटा-सा प्रकाश रिया की दुनिया में पहुँचा रहा हो। रिया को यह अजीब भी लगता और आकर्षक भी। दुनिया में जहाँ लोग दिखावे और विस्तार में खो जाते थे, वहाँ यह मौन व्यक्ति उसे उलझाता और खींचता दोनों था।
एक दिन रिया ने अचानक उससे पूछा—“तुम मेरे चित्रों को पसन्द करते हो, पर बोलते क्यों नहीं?” काफ़ी देर बाद उत्तर आया—“शब्द कहीं खो जाते हैं . . . छवियाँ नहीं।” यह वाक्य रिया के दिल में सीधा उतर गया। उसे पहली बार लगा कि कोई उसकी तस्वीरों के पीछे छुपी ख़ामोशी को समझता है। वह उस उत्तर को पढ़कर देर रात तक छत की ओर देखती रही। उसने यही सोचा कि क्या कोई ऐसा हो सकता है जो उसे उसके कैमरे की नज़रों से समझ सके? धीरे-धीरे बातचीत शुरू हुई। पहले एक-दो वाक्य। फिर लंबी बातें। फिर रातों को खिंचती उन अनंत चर्चाओं की लड़ी। दोनों एक-दूसरे को अपने मन के ऐसे कोने दिखाने लगे जिन्हें शायद उन्होंने कभी किसी को नहीं दिखाया था। रिया अक्सर पूछती—“तुम हमेशा चमकता तारा क्यों भेजते हो?”
आरव उत्तर देता—“क्योंकि तारे दूर होते हैं, पर रोशनी दे जाते हैं। मैं भी ऐसा ही हूँ . . . शायद दूर से ही अच्छा लगता हूँ।”
रिया को यह उत्तर बहुत गहरा लगता। वह सोचती कि यह लड़का आख़िर है कौन? क्या है इसमें जो उसके शब्दों में ऐसी नर्मी है? काफ़ी समय बाद उन्होंने मिलने का निश्चय किया। एक शांत कैफ़े चुना गया—पुराने शहर के किनारे पर स्थित, जहाँ हल्की पीली रोशनी थी और धीमे-धीमे मधुर गीत बजते रहते थे।
रिया जब वहाँ पहुँची तो उसकी धड़कन तेज़ थी। उसने पहली बार आरव को देखा—एक साधारण-सा युवक, जिसके चेहरे पर न ज़्यादा बनावट थी, न दिखावे का भाव। पर उसकी आँखें . . . वे जैसे रिया की तस्वीरों की कहानियों को पढ़ चुकी थीं। आरव ने बैठते ही कहा—“तुम उतनी ही सच्ची लगती हो जितनी तुम्हारी तस्वीरों में हो। शायद उससे भी ज़्यादा।” रिया को यह बात बहुत गहराई से लगी। कैफ़े की उस शाम में दोनों ज़्यादा नहीं बोले। पर दिलों ने बहुत कुछ कह दिया। वे चुप भी रहे और बात भी करते रहे।
समय बीतता गया, और उनका रिश्ता गहराता गया। दोनों एक-दूसरे के सपने, दर्द, डर, यादें और अधूरे पन्ने साझा करने लगे। रिया अब हर तस्वीर ऐसे डालती थी जैसे वह आरव से कुछ कह रही हो। और आरव हर तस्वीर को ऐसे पढ़ता था जैसे वह रिया की धड़कन सुन रहा हो। लेकिन जीवन में मोड़ आते ही हैं।
एक दिन रिया ने देखा कि आरव किसी दूसरी लड़की की कहानी पर बार-बार दिल का चिह्न भेज रहा था। उसके मन में संदेह जागा। उसे लगा कि शायद वह सिर्फ़ उसी से नहीं, औरों से भी ऐसे ही बात करता होगा। ग़ुस्से और आहत मन से उसने आरव पर प्रतिबंध लगा दिया। अब उसके संदेश दिखाई नहीं देते, न यह पता चलता कि उसने देखा भी या नहीं। यह छोटी-सी व्यवस्था रिया की दुनिया को अचानक भारी और ठंडी बना गई। कुछ देर बाद आरव ने संदेश भेजा—“रिया, मुझे नहीं पता कि तुमने ऐसा क्यों किया। शायद तुम्हें लगा कि मैं बदल गया हूँ, पर सच यह है कि मैंने बस एक पुरानी मित्र की कहानी पर प्रशंसा भेजी थी। अगर तुम्हें लगा कि मैं तुम्हें हल्का समझता हूँ, तो यह मेरा दोष है। पर मैं अब भी वही तारा हूँ—तुम्हारे आसमान में चमकने की कोशिश करता हुआ।”
रिया यह पढ़ते ही टूट गई। उसके भीतर अपराधबोध उमड़ आया। उसने प्रतिबंध हटाया और लिखा—“क्या हम दिखावे वाली दुनिया से बाहर आकर असली जीवन में एक-दूसरे को अपना सकते हैं?”
आरव ने उत्तर दिया—“हाँ। क्योंकि प्रेम वह नहीं जिसे चमकने के लिए आवरण की ज़रूरत पड़े। प्रेम वह है जो बिना आवरण के भी उज्ज्वल हो।”
इसके बाद उनकी दुनिया बदलने लगी। वे एक-दूसरे से मिलने लगे, साथ घूमने लगे, एक-दूसरे के परिवारों से धीरे-धीरे परिचित होने लगे। रिया अब केवल तस्वीरें नहीं खींचती थी—वह क्षणों को जीती थी। आरव अब केवल शब्द नहीं लिखता था—वह रिया का साथ निभाता था।
एक शाम, जब रिया उदास थी क्योंकि किसी ने उसकी तस्वीर पर बहुत बुरा टिप्पणी लिख दिया था, आरव उससे मिलने उसके कमरे तक चला गया।
वह चुपचाप उसके पास बैठा रहा, जब तक कि रिया ने अपने आँसू पोछकर कैमरा उठाया ही नहीं। आरव बोला—“दुनिया की एक आवाज़ तुम्हारी कला को धुँधला नहीं कर सकती। तुम प्रकाश हो, रिया। और प्रकाश सिर्फ़ फैलता है—रुकता नहीं।” रिया ने पहली बार महसूस किया कि यह व्यक्ति सिर्फ़ एक डिजिटल दुनिया का परिचित नहीं, बल्कि जीवन में खड़ा एक सच्चा साथी है। दिन बीतते गए। उनके बीच समझ भी बढ़ी, निकटता भी। कभी वे एकसाथ चाय पीते, कभी लंबी सैर करते, कभी देर रात तक बैठकर बातें करते। रिया अक्सर कहती—“कभी-कभी लगता है कि तुम मेरे कैमरे की तरह हो। जो मेरे अंदर छुपी रोशनी को बाहर निकाल देता है।” आरव मुस्कुराकर कहता—“और तुम मेरे भीतर के अँधेरे को हल्का कर देती हो।”
एक दिन चलते-चलते आरव ने बिना किसी तैयारी के कहा—“रिया, तुम्हारे साथ रहने से लगता है कि मैं बेहतर हो गया हूँ। क्या तुम जीवन का यह सफ़र मेरे साथ आगे बढ़ाना चाहोगी?” रिया ने उसकी आँखों में देखा। वहीं चमकता तारा था—वही पुरानी रोशनी जो उसके संदेशों में झलकती थी। उसे उत्तर देने की ज़रूरत नहीं थी। उसका हाथ धीरे से आरव के हाथ में चला गया। यह कहानी किसी आवरण, किसी प्रदर्शन, किसी लोकप्रियता से नहीं बनी। यह दो आत्माओं की कहानी थी—जो एक डिजिटल मंच से होकर जीवन के असली रास्तों तक पहुँचीं। उनका प्रेम किसी चमकदार चित्र की तरह नहीं, बल्कि किसी मुलायम छाया की तरह था—जो आँखों से नहीं, दिल से दिखती है। इस प्रकार इंस्टाग्राम में शुरू हुई दास्तान, जीवन के शांत और ईमानदार पन्नों में पूर्ण हुई। और उनका प्रेम किसी प्रतीक चिह्न, किसी टिप्पणी, किसी प्रदर्शन से नहीं, बल्कि एक मुस्कान से आगे बढ़ता रहा—वह मुस्कान जो दो दिलों के मिलने से बनती है, न कि किसी कृत्रिम आवरण से।
रिया और आरव की दुनिया उस दिन से बदल गई थी जब रिया ने उसका हाथ थामा था। दोनों के बीच जो मौन स्नेह जन्मा था, उसने धीरे-धीरे उनके जीवन को एक नई दिशा दी। अब वे सिर्फ़ एक-दूसरे की तस्वीरों और शब्दों के सहारे नहीं थे, बल्कि एक-दूसरे के दैनिक जीवन का हिस्सा बन चुके थे। रिया की सुबहें अब आरव के संदेश से शुरू होतीं और रातें उसकी आवाज़ की गर्माहट से समाप्त। आरव, जो हमेशा ख़ुद को एक दूर चमकते तारे की तरह मानता था, अब रिया की ज़िंदगी का स्थायी प्रकाश बन गया था। पर प्रेम सिर्फ़ सहजता नहीं, परख भी लाता है। और यह परख धीरे-धीरे उनके जीवन में आने लगी। सबसे पहले चुनौती आई—परिवार की। रिया का परिवार पारंपरिक था। वे मानते थे कि लड़की को अपने ही समाज, अपने ही ढंग के परिवार में भेजना उचित होता है।
जब रिया ने धीरे से घर पर बताया कि वह किसी से मिलती है, जिसे वह जीवनसाथी के रूप में देखती है, घर में चुप्पी फैल गई। उसकी माँ की आँखों में चिंता उतर आई। पिता ने बस इतना कहा—“पहले तुम्हारा काम ठीक से जम जाए। जीवनसाथी की बात बाद में करेंगे।”
रिया समझ गई कि परिवार उसकी भावनाओं को गंभीरता से नहीं ले रहा। उधर आरव के परिवार में भी कुछ ऐसा ही था। आरव का परिवार मध्यमवर्गीय था, जहाँ बेटे की पसंद हमेशा परंपराओं से टकराती थी। जब उसने रिया के बारे में बात की, उसकी माँ ने पूछा—“किसी मंच पर देखकर पसंद आ गई? क्या तुम उसे सच में पहचानते हो?” आरव ने मुस्कुराकर कहा—“माँ, मैं उसे मंच पर नहीं, उसकी ख़ामोशी में पहचानता हूँ।” पर उसकी माँ को यह जवाब संतोष नहीं दे सका। रिया और आरव दोनों समझ रहे थे कि प्रेम आसान नहीं है। लेकिन उनके भीतर का विश्वास अभी भी अडिग था। समय बीतता गया। रिया की कला भी और निखरने लगी। अब वह सिर्फ़ भावनाएँ नहीं, जीवन के कठिन प्रश्न भी अपनी छवियों में क़ैद करने लगी। उसकी तस्वीरें सामाजिक मुद्दों को भी छूने लगीं—अकेलापन, स्त्री की बेचैनी, शहर का अराजक सौंदर्य, टूटते परिवार, बदलती नैतिकताएँ। लोग उसकी कला को सराहने लगे, पर उसके आस-पास आलोचना भी बढ़ी। कभी किसी ने लिखा—“तस्वीरों में दर्द दिखाकर लोकप्रियता पाने की कोशिश है।” कभी किसी ने उसकी निजी तस्वीरों पर विचित्र सुझाव दे दिए।
रिया इन टिप्पणियों से टूटती, पर हर बार आरव का सहारा उसे फिर खड़ा कर देता। आरव कहता “जो लोग तुम्हारे प्रकाश से डरते हैं, वे तुम्हें अँधेरे में धकेलने की कोशिश करेंगे। लेकिन तुम प्रकाश हो, रिया। तुम्हें फैलना ही है।” कुछ महीनों बाद रिया को एक बड़ा अवसर मिला—शहर के प्रतिष्ठित कला–गृह में उसकी अकेली प्रदर्शनी। यह उसके जीवन का सबसे बड़ा क्षण था। पर इस ख़ुशी में एक डर भी छुपा था—क्या वह इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी सँभाल पाएगी? इस प्रदर्शनी की तैयारी में उसने रातें जागकर तस्वीरें चुनीं, कैनवस सजाए, नोट्स लिखे। हर बार थकने पर आरव उसके कमरे में आ जाता। कभी वह चित्रों को उठाकर दीवार पर टाँगता, कभी चाय बनाकर रख देता, कभी बस चुपचाप उसके पास बैठा रहता। प्रदर्शनी का दिन आया। कला–गृह में लोग उमड़ पड़े। पत्रकार, कलाकार, विद्यार्थी, बुज़ुर्ग, परिवार—हर वर्ग के लोग। रिया की चित्र–दीवारों पर बार-बार लोग रुकते, पढ़ते, समझते, और प्रभावित होते।
लेकिन भीड़ में एक चेहरा ऐसा भी था जो चुपचाप खड़ा था—आरव। वह किसी परिचय की चाह नहीं रखता था। वह बस उस लड़की की चमक देख रहा था जो कभी अपने कमरे में कैमरा लेकर अकेले दुनिया को समझती थी। अब वही लड़की दुनिया को सोचने पर मजबूर कर रही थी। प्रदर्शनी सफल हुई। रिया को बहुत प्रशंसा मिली। पर ख़ुशी में भी एक कोना ख़ाली था—क्योंकि उसका परिवार इस उपलब्धि को देखने नहीं आया था। रिया उस रात रो पड़ी। उसने आरव से कहा—“शायद मेरे परिवार को मेरी कला पर गर्व नहीं है।” आरव ने उसका हाथ पकड़कर कहा—“कभी-कभी परिवार को समझने में समय लगता है। तुम अपना मार्ग मत छोड़ो।” लेकिन आगे की चुनौती और गहरी थी। रिया को देश के दूसरे शहर में तीन महीने के लिए एक कला–कार्यशाला का निमंत्रण मिला। यह उसके करियर के लिए बहुत बड़ा अवसर था। पर इसका मतलब था—रीया और आरव के बीच दूरी। रीया असमंजस में थी। क्या वह आरव को छोड़कर तीन महीने जा पाएगी? क्या दूरी उनके सम्बन्ध को कमज़ोर कर देगी?
आरव ने कहा—“रिया, प्रेम वह नहीं जो पास रहने से जीवित रहे। प्रेम वह है जो दूरी में भी धड़कता रहे। यह अवसर तुम्हारे लिए बहुत बड़ा है। तुम जाओ। मैं तुम्हारा इंतज़ार करूँगा।” रिया चली गई। शहर बदला, लोग बदले, हवाएँ बदलीं। आरव अपने काम में लग गया, पर रिया की अनुपस्थिति उसके भीतर एक ख़ामोशी बनकर बैठने लगी। रीया भी नई जगह पर व्यस्त थी, पर हर शाम जब वह अपनी खिड़की से सूर्यास्त देखती, उसे आरव का चेहरा याद आता—वही शांत, वही विश्वास से भरा। धीरे-धीरे दूरी ने दोनों की परीक्षा शुरू की। कभी समय नहीं मिलता, कभी मन नहीं लगता, कभी बातें कम हो जातीं। पर दोनों एक-दूसरे की तस्वीरों में, शब्दों में, यादों में अपना मार्ग खोज लेते। तीन महीने बीत गए। रिया लौटी। पर लौटते ही उसने पाया कि आरव पहले से ज़्यादा चुप है।
उसकी आँखों में थकान थी, चेहरे पर भार। रिया चिंतित हुई। उसने पूछा—“क्या हुआ?” आरव ने बताया कि उसके पिता की तबीयत बहुत ख़राब है और नौकरी भी अस्थिर हो गई है। उसके घर में आर्थिक संकट गहराता जा रहा था। आरव इस सब के बीच ख़ुद को असहाय महसूस कर रहा था।
रिया ने उसका हाथ पकड़कर कहा—“तुमने मेरे हर संघर्ष में साथ दिया है। अब मेरी बारी है। हम मिलकर सब ठीक करेंगे।” इन कठिनाइयों ने दोनों को और भी जोड़ दिया। रिया ने कला से मिलने वाले पैसों से कुछ सहयोग किया, पर उससे भी अधिक उसने आरव के परिवार का भावनात्मक सहारा बना। धीरे-धीरे आरव के पिता ठीक हुए। उसकी नौकरी भी स्थिर हुई। और एक शाम, जब सब कुछ सामान्य सा लगने लगा, आरव रिया को उसी कैफ़े में ले गया जहाँ वे पहली बार मिले थे। वहाँ चुपचाप बैठकर उसने कहा—“रिया, हमने दूरी भी देखी, संघर्ष भी देखे, असहमति भी, आँसू भी . . . लेकिन देखो, हम अब भी साथ हैं। क्या तुम मेरे साथ पूरे जीवन की कहानी लिखने के लिए तैयार हो?” रिया मुस्कुराई। काफ़ी देर तक चुप रही। फिर धीरे से बोली—“जब तुम पहली बार अपना चमकता तारा भेजते थे, तब भी मैं तैयार थी . . . बस तुमने देर कर दी।”
दोनों हँस पड़े। और वहीं, उसी साधारण-सी मेज़ पर, प्रेम अपने सबसे सुंदर रूप में खिल उठा।
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