बचपन को अख़बारों में जगह क्यों नहीं?
डॉ. प्रियंका सौरभ
रविवार की सुबह बेटे प्रज्ञान को गोद में लेकर अख़बार से कोई रोचक बाल-कहानी पढ़ाने की इच्छा अधूरी रह गई। किसी भी प्रमुख अख़बार में बच्चों के लिए एक भी रचना नहीं थी। समाज बच्चों को पढ़ने के लिए कहता है, पर उन्हें पढ़ने को क्या देता है? यह संपादकीय हमारे समाचार पत्रों की बच्चों के प्रति उपेक्षा पर गहरी चोट करता है और माँग करता है कि समाचार पत्रों में बच्चों के लिए नियमित स्थान आरक्षित हो—ताकि बचपन शब्दों से जुड़े, संवेदना से सींचा जाए और विचारों से पल्लवित हो।
—डॉ प्रियंका सौरभ
रविवार की सुबह थी। मन हुआ कि बेटा प्रज्ञान गोद में आए और हम दोनों मिलकर अख़बार में से कोई रोचक कहानी पढ़ें—ताकि आधुनिक स्क्रीन युग में भी शब्दों की मिठास उसे मिल सके। परन्तु खेदजनक आश्चर्य हुआ कि प्रतिष्ठित अख़बारों में बच्चों के लिए एक भी कहानी, चित्रकथा, या बाल संवाद उपलब्ध नहीं था। इस पीड़ा से उपजा यह सवाल एक सामूहिक चिंतन की माँग करता है—“जब हम अपने अख़बारों में बच्चों के लिए छापते ही कुछ नहीं, तो हम उनसे पढ़ने की उम्मीद किस अधिकार से करते हैं?”
बाल मन: एक रिक्त पन्ना
हमारी शिक्षा व्यवस्था, अभिभावक वर्ग और समाज तीनों ही अक्सर एक स्वर में कहते हैं कि आज के बच्चे किताबें नहीं पढ़ते। वे मोबाइल, इंस्टाग्राम और गेमिंग की दुनिया में खो चुके हैं। पर कोई ये क्यों नहीं पूछता कि उन्हें क्या पढ़ने के लिए दे रहे हैं हम? अख़बार, जो एक समय में हर घर की सुबह का हिस्सा हुआ करता था—अब बच्चों के लिए पूरी तरह से एक “वयस्कों का युद्धक्षेत्र” बन चुका है, राजनीति के झगड़े, नेताओं के आरोप-प्रत्यारोप, बलात्कार, हत्याएँ, भ्रष्टाचार, क्रिकेट, फ़िल्में और योगा टिप्स। कहाँ हैं राजा की बात, हाथी की सवारी, विज्ञान की कल्पना, चाँद की कविता, और जीवन मूल्य सिखाती छोटी कहानियाँ?
जब बच्चे दिखते ही नहीं
आज के समाचार पत्रों में बच्चे सिर्फ़ दो तरह से “दिखते” हैं—जब कोई बच्चा यौन हिंसा या हत्या का शिकार होता है। या जब कोई बच्चा बोर्ड परीक्षा में 99.9% अंक लाकर मीडिया का ताज बन जाता है। क्या इतने सीमित संदर्भों में बच्चे होने का अनुभव समझा जा सकता है? अख़बारों ने बच्चों को समाज से अलग करके एक ऐसी चुप्पी में डाल दिया है, जहाँ उनका न तो रचनात्मक स्वर सुनाई देता है, न जिज्ञासु आँखें दिखाई देती हैं।
संपादकीय दूरदर्शिता की अनुपस्थिति
किसी भी अख़बार का मुख्य उद्देश्य होता है–“समाज को जागरूक बनाना और उसकी सोच को दिशा देना।” तो फिर एक पूरे समाज की नींव यानी बच्चों के लिए कोई पन्ना क्यों नहीं? क्या आज का संपादक इतना व्यस्त हो गया है कि उसे यह भी याद नहीं कि उसकी ज़िम्मेदारी अगली पीढ़ी तक संस्कार और विचार की मशाल पहुँचाने की भी है? एक समय में “बाल-जगत”, “बाल प्रभा”, “बाल गोष्ठी”, “बाल मेल” जैसे खंडों से अख़बार बच्चों को भी संवाद में शामिल करते थे। आज वे या तो बंद हो गए या ऑनलाइन लिंक की बेगानी भीड़ में खो गए।
विज्ञापन और बाज़ारवाद का हमला
बच्चे आज अख़बार के लिए ‘ग्राहक’ नहीं हैं। वे शैंपू या रेफ्रिजरेटर नहीं ख़रीदते। इसी कारण ‘बाज़ार’ की भाषा में उनकी कोई ‘विज्ञापन वैल्यू’ नहीं है। और जहाँ विज्ञापन की भाषा नीति तय करने लगे, वहाँ बचपन बेमानी हो जाता है।
प्रत्येक अख़बार का लगभग 40% भाग विज्ञापनों से भरा रहता है—रियल एस्टेट, कपड़े, कोचिंग सेंटर, हॉस्पिटल, ब्रांडेड घड़ियाँ . . . कहीं भी यह नहीं दिखता कि कोई अख़बार यह पूछ रहा हो, ”बच्चों को हम क्या पढ़ा रहे हैं?”
जब बाल साहित्य का विलोपन होता है
बाल साहित्य केवल मनोरंजन नहीं है—यह बच्चों को सोचने, सवाल करने, कल्पना करने और समाज से जुड़ने की प्राथमिक पाठशाला है। एक कहानी जिसमें एक पेड़ अपने फल देता है, एक चिड़िया घोंसला बनाती है, एक बच्चा अपने दोस्त के साथ पक्षियों को पानी पिलाता है—ये सब बच्चों को मानवता का बीज देते हैं। जब ये कहानियाँ हट जाती हैं, तो वहाँ केवल ड्रामा, सनसनी, और डाटा बचता है। और यही संवेदनहीनता आने वाली पीढ़ी में पनपती है।
क्या पढ़ाई और ज्ञान सिर्फ़ स्कूल का काम है?
हमारे समाज ने बच्चों के ज्ञान का ठेका सिर्फ़ स्कूलों को दे रखा है। अख़बार, जो कभी ‘घर की पाठशाला’ हुआ करता था, अब स्वयं को ‘वयस्कों की गॉसिप’ तक सीमित कर चुका है। क्या बच्चे समाचारों के योग्य नहीं? क्या विज्ञान, पर्यावरण, नैतिकता, और समाज की बातें उन्हें नहीं बताई जानी चाहिए?
यदि हम चाहते हैं कि बच्चे “समझदार नागरिक” बनें तो हमें उन्हें शुरूआत से ही संवाद और सवालों से जोड़ना होगा—और अख़बार इसकी सशक्त जगह हो सकती है।
क्या किया जा सकता है?
साप्ताहिक ‘बाल संस्करण’ पुनः शुरू किए जाएँ–हर रविवार या महीने में दो बार बच्चों के लिए विशेष खंड हो। बाल संवाद और चित्रकथाएँ हों—जिनमें नैतिक मूल्य, विज्ञान की जिज्ञासा और समाज का परिचय हो। बच्चों की रचनाएँ छापी जाएँ–कविताएँ, चित्र, सवाल, विचार। बाल पत्रकारिता को बढ़ावा दिया जाए—विद्यालय स्तर पर बच्चों से लिखवाया जाए, जो छपे भी। प्रेरणादायक ‘बच्चों के नायक’ दिखाए जाएँ–जो स्क्रीन के बाहर भी उपलब्ध हों।
बेटा प्रज्ञान उस दिन सुबह मुझसे बोला—
“माँ, क्या आपके अख़बार में बच्चों के लिए कुछ नहीं होता?”
मैं चुप रह गई। ये चुप्पी सिर्फ़ एक माँ की नहीं, एक पूरे समाज की चुप्पी है। और जब अख़बार समाज का दर्पण होते हैं, तो इस दर्पण में प्रज्ञान जैसे लाखों बच्चों की मासूम जिज्ञासा को जगह मिलनी ही चाहिए। यदि हम चाहते हैं कि कल के भारत में पाठक, लेखक और संवेदनशील नागरिक जन्म लें—
तो आज के समाचार पत्रों में प्रज्ञान के लिए भी एक पन्ना आरक्षित करना होगा।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- सामाजिक आलेख
-
- अयोध्या का ‘नया अध्याय’: आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण
- क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे?
- क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
- खिलौनों की दुनिया के वो मिट्टी के घर याद आते हैं
- खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
- जलते हैं केवल पुतले, रावण बढ़ते जा रहे?
- जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
- टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव
- त्योहारों का सेल्फ़ी ड्रामा
- दिवाली का बदला स्वरूप
- दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी
- नया साल सिर्फ़ जश्न नहीं, आत्म-परीक्षण और सुधार का अवसर भी
- नया साल, नई उम्मीदें, नए सपने, नए लक्ष्य!
- नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते हैं भूल
- पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
- पृथ्वी की रक्षा एक दिवास्वप्न नहीं बल्कि एक वास्तविकता होनी चाहिए
- पृथ्वी हर आदमी की ज़रूरत को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं
- बचपन को अख़बारों में जगह क्यों नहीं?
- बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की ज़रूरत
- बिखर रहे चूल्हे सभी, सिमटे आँगन रोज़
- महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में बाधाएँ
- मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है
- वायु प्रदूषण से लड़खड़ाता स्वास्थ्य
- समय न ठहरा है कभी, रुके न इसके पाँव . . .
- साहित्य अकादमी का कलंक
- स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग
- हिंदी साहित्य की आँख में किरकिरी: स्वतंत्र स्त्रियाँ
- कविता
-
- अनाम तपस्वी
- अभी तो मेहँदी सूखी भी न थी
- आँचल की चुप्पी
- एक महिला शिक्षक की मौन कहानी
- ऑपरेशन सिंदूर
- किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे
- ख़ामोश रिश्तों की चीख़
- गिनती की बात
- गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी!
- गिलहरी और तोता: एक लघु संवाद
- छोड़ो व्यर्थ पानी बहाना . . .
- जब चाँद हासिल हो जाता है . . .
- जब फ़ोन और फ़ीलिंग्स मौन हो जाएँ
- जिसका मन पवित्र, बस वही मित्र
- थोड़ा-सा अपने लिए
- दादी के साथ बैठक
- दीमक लगे गुलाब
- दीवाली से पहले का वनवास
- नए सवेरे की आग़ोश में
- नए साल का सूर्योदय, ख़ुशियों के उजाले हों
- नगाड़े सत्य के बजे
- नयन स्वयं का दर्पण बनें
- नवलेखिनी
- पहलगाम की चीख़ें
- फागुन में यूँ प्यार से . . .
- बक्से में सहेजी धूप
- बचपन का गाँव
- बड़े बने ये साहित्यकार
- बढ़ रही हैं लड़कियाँ
- बेक़दरों के साथ मत रहना
- भेद सारे चूर कर दो
- भोर की वह माँ
- मत करिये उपहास
- माँ
- मुलाक़ात की दो बूँद . . . साहेब!
- मुस्कान का दान
- मैं पिछले साल का पौधा हूँ . . .
- मैं बिंदी हूँ, मौन की ज्वाला
- मौन की राख, विजय की आँच
- युद्ध की चाह किसे है?
- रक्षा बंधन पर कविता
- राखी के धागों में बँधी दुआएँ
- राष्ट्रवाद का रंगमंच
- शब्दों से पहले चुप्पियाँ थीं
- शीलहरण की कहे कथाएँ
- सड़क, तुम अब आई हो गाँव
- सबके पास उजाले हों
- समय सिंधु
- सावन को आने दो
- हरियाणा दिवस — गौरव की धरती
- किशोर साहित्य कविता
- कहानी
- दोहे
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
-
- गुरु दक्ष प्रजापति: सृष्टि के अनुशासन और संस्कारों के प्रतीक
- जीवन की ख़ुशहाली और अखंड सुहाग का पर्व ‘गणगौर’
- दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
- नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
- फीके पड़ते होली के रंग
- भाई-बहन के प्यार, जुड़ाव और एकजुटता का त्यौहार भाई दूज
- मेरे कान्हा—जन्माष्टमी विशेष
- रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे संत रविदास
- समझिये धागों से बँधे ‘रक्षा बंधन’ के मायने
- सौंदर्य और प्रेम का उत्सव है हरियाली तीज
- हनुमान जी—साहस, शौर्य और समर्पण के प्रतीक
- हास्य-व्यंग्य कविता
- शोध निबन्ध
- काम की बात
- स्वास्थ्य
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- चिन्तन
- विडियो
-
- ऑडियो
-