दीमक लगे गुलाब

15-07-2025

दीमक लगे गुलाब

प्रियंका सौरभ (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

लोग अपने में
जीने लग गए है। 
अपने कहलाने वाले
लोग कहाँ रह गए है? 
 
पराये दुख को पीना। 
एक-दूजे हेतु जीना॥
पुराने चर्चे बन गए है। 
धोखा खा खाकर
पाक टूट मन गए है॥
 
वो प्यार भरे गाने। 
वो मिलन के तराने॥
आज ख़ामोश हो गए हैं। 
न जाने कहाँ खो गए है? 
 
सदियों से पलते जाते। 
अपनेपन के रिश्ते नाते॥
जलकर के राख हो गए हैं। 
बीती हुई बात हो गए है॥
 
माँ का छलकता हुआ दुलार। 
प्रिया का उमड़ता अनुपम प्यार॥
मानो-
दीमक लगे गुलाब हो गए हैं। 
हर चेहरे पर नक़ाब हो गए हैं॥
 
प्रेम से सरोबार जहाँ। 
आज बचा है कहाँ? 
सब लोग व्यस्त हो गए हैं। 
अपने में मस्त हो गए हैं॥
 
स्वार्थ की बहती वायु। 
कर रही है शुष्क स्नायु॥
हृदय चेतना शून्य हो गए हैं। 
चेहरे भाव शून्य हो गए हैं॥
 
वो प्यार भरे नग़्मे। 
जो जोश भर दे दिल में॥
आज अनबोल हो गए हैं। 
रिश्तों के मोल हो गए हैं॥
 
खड़े ख़ामोश फैलाए बाँहें। 
चौपाल-चबूतरे सब चौराहें॥
कह रहे हैं सिसक-सिसक कर—
अपनेपन के दिन लद गए हैं। 
लोग अपने में जीने लग गए हैं॥

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