पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
प्रियंका सौरभ
पुरस्कारों के बढ़ते बाज़ार के में देने और लेने वाले दोनों की भूमिका है। देने वाले अपने आप ख़त्म हो जायेंगे अगर लेने वाले न बनें। हमें किसी भी पुरस्कार के लिए पैसा देना पड़े तो समझ लीजिये वो पुरस्कार नहीं ख़रीद है। बात इतनी सी है। फिर हम और आगे क्यों बढ़े? एनजीओ रजिस्ट्रेशन के ज़रिये कई चरणों में राशि ऐंठते हैं या फिर धक्का डोनेशन लेते है। संस्थाएँ एक दूजे की हो गयी हैं। एक दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी हैं। सरकारी पुरस्कार बन्दर बाँट कहें या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं।
—प्रियंका सौरभ
आजकल सोशल मीडिया प्लैटफ़ॉर्म ऐसी पोस्ट्स से भरे पड़े है जिसमें लिखा होता है कि उक्त को ये पुरस्कार (स्वर्ण) मिला है। यह पुरस्कार मिलने पर पुरस्कार प्राप्त करने वाले और देने वाले दोनों बढ़-चढ़कर अपना प्रचार करना शुरू कर देते हैं। आये दिन सुर्ख़ियों में रहने वाले इन पुरस्कारों कि सच्चाई बेहद निंदनीय है और इनमें से ज़्यादातर पुरस्कार (सभी नहीं) पैसे से ख़रीदे जाते हैं। होता यूँ है कि हमारे देश में आज नॉन-गवर्नमेंटल आर्गेनाइज़ेशन की बाढ़ आ गयी है जो समाज सेवा के नाम पर सरकार से पैसा प्राप्त करते हैं। इनमें से बहुत से एनजीओ समाज में काम करने वाले या किसी क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति से सम्पर्क करते हैं। उसको प्रलोभन देते हैं कि आपकी सेवा क़ाबिल-ए-तारीफ़ है। और हमारा एनजीओ उनको सम्मानित करेगा। ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन से शुरू हुई ये प्रक्रिया उक्त एनजीओ द्वारा पुरस्कार की एवज़ में लूट का पहला क़दम होती है जब किसी व्यक्ति से पुरस्कार रजिस्ट्रेशन के लिए शुल्क ऐंठा जाता है।
किसी एनजीओ या संस्था से पुरस्कार प्राप्त करने की इच्छा अब उक्त व्यक्ति को अपने मोह में फँसा लेती है और चरण-दर-चरण लूट के रास्ते खुलते जाते हैं। पहले रजिस्ट्रशन शुल्क, फिर ज़िला स्तर के विजेता और फिर राज्य स्तर के अवार्डी और अंत में ये प्रक्रिया राष्ट्रीय स्तर पर रहने और खाने के इंतज़ाम के ख़र्च के साथ ख़त्म होती है।
पुरस्कारों की दौड़ में खोकर,
भूल बैठे हैं सच्चा सृजन।
लिख के वरिष्ठ रचनाकार,
करते है वो झूठा अर्जन॥
मस्तक तिलक लग जाए,
और चाहे गले में हार।
बड़े बने ये साहित्यकार॥
ये बात तो हुई ख़रीदे गए पुरस्कारों की। अब बात करते है एग्रीमेंट (समझौता) संस्थाओं की। आज साहित्य जगत में बहुत सी संस्थाएँ काम कर रही हैं। जब मैं इन संस्थाओं की कार्यशैली देखती हूँ या इनके समारोहों से जुड़ी कोई रिपोर्ट पढ़ती हूँ तो सामने आता है एक ही सच। और वो सच ये है कि किसी क्षेत्र विशेष या एक विचाधारा वाली संस्थाएँ आपस में एग्रीमेंट (समझौता) करके आगे बढ़ रही हैं। ये एग्रीमेंट (समझौता) यूँ होता है कि आप हमें सम्मानित करेंगे और हम आपको। और ये सिलसिला लगातार चल रहा है अख़बारों और सोशल मीडिया पर सुर्ख़ियाँ बटोरता है। ख़ासकर ये ऐसी ख़बर शेयर भी ख़ुद ही आपस में करते हैं। आम पाठक को इससे कोई ज़्यादा लेना-देना नहीं होता। अब बात करते हैं सरकारी संस्थाओं और पुरस्कारों की। इनकी सच्चाई किसी से छुपी नहीं। जिसकी जितनी मज़बूत लाठी, उतना बड़ा तमगा। सिफ़ारिशों के चौराहों से गुज़रते ये पुरस्कार पता नहीं, किस को मिल जाये। किसी आवेदक को पता नहीं होता। इनकी बन्दर बाँट तो पहले से ही जगज़ाहिर है। आख़िर मैंने पुरस्कार की विश्वसनीयता पर सवाल उठाया है। क्योंकि हाल ही में मुझ से कुछ ऐसे लोगों ने सम्पर्क किया है जिन्होंने ये पुरस्कार जीते हैं और वो ऐसे पुरस्कारों की विश्वसनीयता को लेकर गंभीर आरोप लग रहे हैं। कुछ एक ने तो ये तक कहा कि पुरस्कार वितरण समारोह के आख़िरी चरण में आवेदक को महँगे-महँगे स्टॉल ख़रीदकर विज्ञापन देना पड़ा था। जितना अधिक पैसा ख़र्च करेगा, उतना बड़ा पुरस्कार।
अब चला हाशिये पे गया,
सच्चा कर्मठ रचनाकार।
राजनीति के रंग जमाते,
साहित्य के ये ठेकेदार॥
बेचे कौड़ी में क़लम,
हो कैसे साहित्यिक उद्धार।
बड़े बने ये साहित्यकार॥
सबसे बड़ी बात ये की ऐसे एनजीओ के कारनामों में जो भी चरण-दर-चरण शुल्क जमा करवाता जाता है। वो उतना ही चमकती ट्रॉफी के नज़दीक होता है जिसने भी एक चरण मिस किया या शुल्क नहीं दिया वो इनाम की दौड़ से बाहर हो जाता है। अब ऐसी ट्रॉफी या पुरस्कार को ख़रीदी कहें या न कहें आप बताइये। कुछ को तो डोनेशन राशि जमा करवाने के बाद ही सम्मानित किया गया था। जबकि किसी ने स्टाल ख़रीदा और सिल्वर अवार्ड या स्कॉच ऑर्डर ऑफ़ मेरिट प्राप्त किया। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं। ऐसे पुरस्कारों के बढ़ते बाज़ार में देने और लेने वाले दोनों की भूमिका है। देने वाले अपने आप ख़त्म हो जायेंगे। अगर लेने वाले न बने। हमें किसी भी पुरस्कार के लिए पैसा देना पड़े तो समझ लीजिये वो पुरस्कार नहीं ख़रीद है। बात इतनी सी है। फिर हम और आगे क्यों बढ़ें? एनजीओ रजिस्ट्रेशन के ज़रिये कई चरणों में राशि ऐंठते हैं या फिर धक्का डोनेशन लेते है। संस्थाएँ एक दूजे की हो गयी है। एक दूसरे को सम्मानित करने और शॉल ओढ़ाने में लगी हैं। सरकारी पुरस्कार बन्दर बाँट कहे या लाठी का दम। जितनी जान-पहचान उतना बड़ा तमगा। ये प्रमाण “बिक्री के लिए” पुरस्कार विजेताओं की प्रामाणिकता पर सवाल उठाते हैं।
देव-पूजन के संग ज़रूरी,
मन की निश्छल आराधना॥
बिना दर्द का स्वाद चखे,
न होती पल्लवित साधना॥
बिना साधना नहीं साहित्य,
झूठा है वो रचनाकार।
बड़े बने ये साहित्यकार॥
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