मायका
डॉ. प्रियंका सौरभ
तेरहवीं की भीड़ अब छँट चुकी थी। जो रिश्तेदार आए थे, वे अब लौट चुके थे। दीवारों पर अब भी माँ की तस्वीर के नीचे टिमटिमाता दीया जल रहा था। अगरबत्ती की धीमी महक अब पूरे घर में उदासी की तरह फैल रही थी। घर के हर कोने में एक सन्नाटा था, एक ख़ालीपन जो माँ के जाने से पैदा हुआ था। यही घर जहाँ कभी माँ की चहलक़दमी होती थी, अब जैसे ठहर गया था।
चारु माँ के कमरे में बैठी थी। उसकी गोद में माँ की साड़ी रखी थी, वही पीली रंग की जिसे माँ हर सोमवार को पहना करती थीं। आँखों से आँसू बहते जा रहे थे, और होंठ ख़ामोश थे। भैया उसके पास आए, कंधे पर हाथ रखा और धीरे से बोले, “चारु, अब सब काम निपट गए हैं . . . माँ को तो हम रोक नहीं सके . . . लेकिन अब तुझे जाना है, ना?”
चारु ने बस गर्दन हिलाई, फिर भर्राए गले से बोली, “हाँ भैया, अब चलती हूँ। माँ को यही पसंद था कि विदाई मुस्कान के साथ हो . . . मगर कैसे मुस्कुराऊँ भैया, जब माँ की गोदी ख़ाली हो गई है।”
भैया ने जेब से एक चाभी निकाली और उसके हाथ में रख दी। बोले, “रुक . . . एक काम और बाक़ी है। ये ले, माँ की अलमारी की चाभी। उसमें जो तेरे काम का हो, जो यादगार हो, वो तू ले जा। माँ की चीज़ों पर बेटी का हक़ सबसे पहले होता है।”
चारु चौंकी। उसकी उँगलियों ने चाभी को थामा तो जैसे कुछ यादें उसके मन में जीवित हो उठीं। उस अलमारी में माँ ने न जाने क्या-क्या सहेज कर रखा होगा। लेकिन अगले ही पल, चारु ने चाभी भाभी की तरफ़ बढ़ा दी।
“भाभी, माँ की सेवा आपने की है . . . बहू नहीं, बेटी बनकर। इस चाभी पर हक़ आपका है। आप ही खोलिए।”
भाभी थोड़ा सकुचाईं, पर भैया की स्वीकृति के बाद उन्होंने अलमारी खोली। अलमारी खुलते ही एक धीमी सी ख़ुश्बू बाहर आई—माँ की ख़ुश्बू। अंदर क़रीने से रखे गए गहने, साड़ियाँ, चूड़ियाँ, कुछ पुराने ख़त और एक फोटोग्राफ एलबम था। सब कुछ जैसे माँ की उपस्थिति को जीवित रखे था।
भैया बोले, “चारु, देख . . . ये माँ के क़ीमती गहने और कपड़े हैं। जो तुझे पसंद आए, वो तू ले जा। याद के तौर पर।”
चारु ने एक-एक चीज़ को देखा। सजी हुई हरे रंग की साड़ी, जो माँ पूजा में पहनती थीं। सोने की चूड़ियाँ, जो उन्होंने शादी में पहनी थीं। मोती का हार, जो नानी ने माँ को दिया था। हर चीज़़ में एक कहानी थी, एक इतिहास। लेकिन चारु ने कुछ भी नहीं उठाया। उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, “भैया, मुझे इन गहनों से ज़्यादा क़ीमती कुछ और चाहिए।”
“क्या? चारु, हमने तो अलमारी तक नहीं छुई थी। तेरे सामने सब कुछ है। तुझे क्या चाहिए, साफ़-साफ़ बता।”
चारु ने एक पल के लिए आँखें बंद कीं, फिर भाभी की तरफ़ देखा और कहा, “मुझे वो क़ीमती निशानी चाहिए, जो हर बेटी अपने मायके से लेकर जाती है। वो निशानी जो उसे अहसास दिलाए कि माँ के जाने के बाद भी उसका मायका सलामत है। मुझे वो अपनापन चाहिए, वो भरोसा चाहिए कि जब भी मन भारी हो, मैं इस घर में लौट सकूँ बिना किसी संकोच के।”
भाभी की आँखें भर आईं। उन्होंने चारु के हाथ थामे और कहा, “दीदी, आप चिंता मत कीजिए। माँजी की तरह मैं भी चाहूँगी कि ये घर हमेशा आपका मायका बना रहे। आप जब चाहें, इस घर में आ सकती हैं, आपकी जगह यहाँ हमेशा रहेगी।”
चारु मुस्कुराई, लेकिन उस मुस्कान में भावनाओं का समुंदर था। उसने फोटोग्राफ एलबम उठाया। पन्नों को पलटते हुए माँ की गोद में उसका बचपन, स्कूल की यूनिफ़ॉर्म में तस्वीरें, भाई के साथ झगड़े, भाभी की शादी के समय की तस्वीरें, सब सामने आने लगे।
“भाभी, अगर आप इजाज़त दें तो मैं ये एलबम ले जाऊँ? यही मेरी सबसे क़ीमती निशानी है। जब भी खोलूँगी, माँ की हँसी सुनाई देगी, भैया की डाँट याद आएगी, और भाभी की ममता का अहसास होगा।”
भाभी ने हामी भरी। चारु ने एलबम को सीने से लगाया। फिर वह माँ की तस्वीर के पास गई, माथा टेका और बोली, “माँ, मैं जा रही हूँ। लेकिन जानती हूँ कि तू यहीं है . . . इन दीवारों में, इन यादों में, और सबसे बढ़कर, मेरे मायके के प्यार में।”
विदा के वक़्त भैया ने दरवाज़े तक छोड़ा। दरवाज़े पर खड़े होकर चारु ने आख़िरी बार घर की तरफ़ देखा। बरामदे में माँ का झूला अब भी हिल रहा था, हवा से। और उसे लगा जैसे माँ वहीं बैठी मुस्कुरा रही हो—जैसे कह रही हो, “जा बेटी, अब तेरा ससुराल भी तेरा है . . . लेकिन ये घर, ये कोना हमेशा तेरा रहेगा।”
चारु को याद आ रहा था जब माँ पहली बार बीमार पड़ी थीं। अस्पताल के बिस्तर पर लेटी माँ ने उसका हाथ थामकर कहा था, “जब मैं ना रहूँ तो रोना मत . . . बस अपना ससुराल भी मायके जैसा बना लेना . . . और इस घर को हमेशा घर समझना।”
तब उसने माँ की बात को बस एक सांत्वना समझा था। पर आज, उस हर शब्द का अर्थ गहराई से महसूस हो रहा था।
बचपन की वो गर्म दोपहरें याद आईं जब माँ खस की चटाई बिछाकर सब बच्चों को अमरसिंह की कहानियाँ सुनाया करती थीं। जब रात में डर लगे तो चारु माँ की गोद में जाकर सो जाती थी। जब पहली बार साइकिल चलानी सीखी तो माँ ही पीछे से पकड़े रही थीं।
और जब कॉलेज जाना हुआ था, माँ की आँखों में डर था, मगर होंठों पर दुआ। चारु ने कितनी बार माँ की ममता को हल्के में लिया था, पर आज समझ में आया कि माँ के बिना घर की छाया ही चली जाती है।
गाड़ी में बैठते वक़्त चारु ने पीछे की सीट पर वो एलबम रखा और मन ही मन दोहराया, “माँ की अलमारी से सबसे क़ीमती निशानी मिल गई . . . मेरा सलामत मायका।”
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