मुस्कान का दान

01-05-2025

मुस्कान का दान

प्रियंका सौरभ (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कभी किसी शाम की थकी हुई साँसों में, 
तुम्हारा एक हल्का सा “कैसे हो?” उतरता है—
जैसे रेगिस्तान में कोई बूँद गिर जाए, 
जैसे सूनी आँखों में उम्मीद फिर गहराए। 
 
दान क्या है? 
सिर्फ़ अन्न, जल, या स्वर्ण की गाथा नहीं, 
कभी-कभी वक़्त का दिया पल भी
किसी की टूटती दुनिया की परिभाषा बदल देता है। 
 
तुम जब अनकहे दर्द को पढ़ लेते हो, 
बिना माँगे सहारा बन जाते हो—
वो भी एक दान ही है, 
जो किसी मंदिर की घंटी से कहीं ज़्यादा गूँजता है। 
 
कभी किसी को चुपचाप हौसला दे देना, 
बिन शब्दों के उसकी आँखों को पढ़ लेना, 
यह भी तो प्रेम की भिक्षा है—
जिसे देने वाला राजा हो जाता है, 
चाहे वस्त्र फटे हों या जेबें ख़ाली। 
 
किसी को उसकी खोई मुस्कान लौटा देना, 
किसी निराश आत्मा में जीवन की लौ जगा देना—
यह दान नहीं, 
मानवता का सबसे पवित्र यज्ञ है। 
 
तो जब भी कर सको, 
किसी के मन में एक दीप जला देना, 
कोई तुम्हारी वजह से मुस्कराए—
समझो तुमने सृष्टि को एक नया सूर्य दे दिया। 

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