आख़िरी चीख़

01-09-2025

आख़िरी चीख़

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

गाँव की पगडंडी पर शाम का अँधेरा उतर रहा था। खेतों से लौटते लोग अपनी-अपनी झोपड़ियों में जा चुके थे। लेकिन मनीषा अब तक नहीं लौटी थी। माँ की आँखें बार-बार दरवाज़े की चौखट पर टिक जातीं। पिता थककर पंचायत के चौपाल तक गए, मगर जवाब मिला—“लड़की भाग गई होगी . . . कल लौट आएगी।” 

सुबह हुई तो खेतों की मेड़ पर गाँव हिल गया। हँसती-खिलखिलाती उन्नीस बरस की कली अब निर्जीव पड़ी थी। कपड़ों के साथ उसकी इज़्ज़त भी तार-तार की जा चुकी थी। 

पुलिस आई, कागज़ी खानापूर्ति हुई। रिपोर्ट लिखने से पहले ही कहा गया—

“ये तो ख़ुद की ग़लती से हुआ होगा।” 

पिता ने चीखकर कहा—“क्या इंसाफ़ सिर्फ़ अमीरों के लिए है?” 

गाँव ख़ामोश रहा। दरिंदों की हँसी कानों में गूँजती रही। 

माँ की सूखी आँखें और पिता का टूटा हुआ मन सारा सच बयाँ कर रहे थे। 

रात को वही खेत हवाओं से कराह रहा था। 

मनीषा की चीखें अब भी वहाँ गूँज रही थीं—

“मैं भागी नहीं थी . . . मुझे बचा लो . . .” 

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