ख़ामोश रिश्तों की चीख़

15-07-2025

ख़ामोश रिश्तों की चीख़

प्रियंका सौरभ (अंक: 281, जुलाई द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

तुम कहते रहे—
“तुम तो हमेशा ज़्यादा सोचती हो . . .”
मैं हर बार कम बोलती गई, 
हर बार थोड़ा और खोती गई। 
 
तुमने कहा—
“तुम बातों को बढ़ा देती हो . . .”
मैंने हर घाव को छोटा मान लिया, 
अपने आँसुओं को तकिए में छिपा लिया। 
 
तुमने जताया—
“मैंने वो मतलब नहीं निकाला . . .”
और मैं अपने अर्थ को
अपने ही अंदर गुम करती गई। 
 
मैंने हर बार
तुम्हारे शब्दों से ज़्यादा
तुम्हारे मौन को पढ़ा। 
 
मैंने हर तर्क को
प्यार की तरह समझा। 
 
पर जब ख़ामोशी भी
अब संवाद नहीं रही, 
तो मैंने ख़ुद से कहा—
“अब और नहीं . . .”
 
अब मैं
किसी की सही होने की परिभाषा में
ग़लत नहीं बनूँगी। 
अब मैं
अपने भीतर के आईने से
मुलाक़ात करूँगी। 

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