क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
प्रियंका सौरभ
भारतीय परिवार कम से कम एक बेटा होना बहुत ज़रूरी मानते है। मगर बेटियाँ समाज और देश के लिए दशा और दिशा तय करती हैं। जिसके बिना न तो कोई तस्वीर मुकम्मल होती है न ही घर, न ही परिवार, न समाज, न देश। शायद समाज में अब भी ऐसे लोग होंगे जो बेटे की चाहत में जन्म से पहले ही बेटियों को मार देते होंगे। लेकिन इन सबके बीच देश के लिए एक सुकून भरी ख़बर ये है कि स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, मेडिकल, सिविल सेवा हर जगह बेटियाँ टॉप कर रही हैं। फिर भी बेटियों की स्थिति में वैसे सुधार क्यों नहीं जिनकी वे पूरी तरह हक़दार हैं?
-प्रियंका 'सौरभ'
पितृसत्ता समाज में सत्ता और नियंत्रण की एक जटिल और रहस्यमय संस्था है। पितृसत्ता एक पुरुष प्रधान संरचना का प्रतीक है जिसका एक लंबा इतिहास है और दुनिया के हर समाज में मौजूद है। दस में से नौ भारतीय इस धारणा से सहमत हैं कि एक पत्नी को हमेशा अपने पति की बात माननी चाहिए। आज भारतीय महिलाओं को राजनीतिक नेताओं के रूप में स्वीकार करते हैं, मगर ज़्यादातर पारिवारिक जीवन में पारंपरिक महिला भूमिकाओं का पक्ष लेते हैं। आज भी बच्चों की देखभाल का सबसे अधिक बोझ महिलाओं द्वारा ही उठाया जाता है; जो पूर्णकालिक माँ बनने के लिए अपनी नौकरी भी छोड़ देती हैं। वे मानते है कि पारंपरिक बाल देखभाल “मुख्य रूप से महिलाओं द्वारा नियंत्रित की जानी चाहिए।” मज़दूरी और रोज़गार में पुरुषों और महिलाओं दोनों को पैसा कमाने के लिए ज़िम्मेदार होना चाहिए, मगर 80% भारतीय इस विचार से सहमत है कि जब कुछ नौकरियाँ हों, तो पुरुषों को महिलाओं की तुलना में नौकरी पर अधिक अधिकार होने चाहिए। यही कारण है कि भारत में महिलाओं की श्रम शक्ति की भागीदारी बहुत कम है।
भारतीय बेटे और बेटियों दोनों को महत्त्व देते हैं, लेकिन 94% भारतीय परिवार कम से कम एक बेटा होना बहुत ज़रूरी मानते हैं। मगर बेटियाँ समाज और देश के लिए दशा और दिशा तय करती हैं। जिसके बिना न तो कोई तस्वीर मुकम्मल होती है न ही घर, न ही परिवार, न समाज, न देश। वैसे अब तक आपने ऐसा भी समाज देखा होगा जहाँ घर में लड़की के पैदा होने को अभिशाप मानते हैं। शायद समाज में अब भी ऐसे लोग होंगे जो बेटे की चाहत में जन्म से पहले ही बेटियों को मार देते होंगे। लेकिन इन सबके बीच देश के लिए एक सुकून भरी ख़बर ये है कि स्कूल, कॉलेज, यूनिवर्सिटी, मेडिकल, सिविल सेवा हर जगह बेटियाँ टॉप कर रही हैं। फिर भी बेटियों कि स्थिति में वैसे सुधार क्यों नहीं जिनकी वे पूरी तरह हक़दार हैं?
इस ख़बर के साथ दो फ़िक्र की बातें भी सामने आ रही हैं। एक सर्वे के मुताबिक़, देश में 71.5% महिलाएँ ही साक्षर हैं और सिर्फ़ 41% महिलाएँ ही 10 साल से ज़्यादा स्कूली शिक्षा हासिल कर पाती हैं। यानी 59% महिलाएँ 10वीं से आगे पढ़ ही नहीं पाती हैं। अभी भारत दुनिया का सबसे युवा देश है। देश की युवा शक्ति ही विकास में बड़ी भूमिका निभाता है। ऐसे में बेटी बचाओ के साथ ही बेटी पढ़ाओ पर ज़ोर देने की ज़रूरत है। बिना किसी वेतन के घर के काम करने में ग्रामीण इलाक़ों में पुरुषों की भागीदारी सिर्फ़ 27.7 प्रतिशत है और महिलाओं की 82.1 प्रतिशत। शहरों में पुरुषों की भागीदारी है 22.6 प्रतिशत और महिलाओं की 79.2 प्रतिशत। पुरुष सबसे ज़्यादा वक़्त रोज़गार और उससे जुड़ी गतिविधियों में बिताते हैं और महिलाएँ उसके बाद सबसे ज़्यादा वक़्त बिना किसी वेतन के घर के काम करने में बिताती हैं। शहर हो या गाँव, महिलाएँ आज भी हर जगह चारदीवारी के अंदर ही सीमित हैं।
बेटियों की स्थिति सुधार के लिए बच्चों की देखभाल की ज़िम्मेदारियों को उचित रूप से साझा उपयोग करके, या महिलाओं और लड़कियों को पारंपरिक रूप से पुरुष-प्रधान क्षेत्रों जैसे सशस्त्र बलों और सूचना प्रौद्योगिकी में प्रवेश करने के लिए प्रोत्साहित करें। भारत में सर्वोच्च न्यायालय ने घोषणा की कि महिलाएँ अब सेना में कमांडिंग पदों पर आसीन हो सकती हैं। बच्चों के पालन-पोषण की ज़िम्मेदारी साझा करने के लिए पुरुषों के लिए पितृत्व अवकाश दें। महिलाओं को रोज़गार देने के लिए कंपनियों को प्रोत्साहित करें, समान कार्य के लिए वेतन अंतर को पाटने, कड़े क़ानूनों के माध्यम से कार्य स्थलों को सुरक्षित बनायें।
सामाजिक सुरक्षा और वित्तीय साक्षरता से महिलाओं को लाभ प्राप्त करने के लिए नौकरियों की औपचारिकता को आगे बढ़ाया जाना चाहिए। तब तक असंगठित क्षेत्र की महिलाओं को सामाजिक सुरक्षा का लाभ दिया जाना चाहिए। अगर भारत में स्वयं सहायता समूह-बैंक लिंकेज कार्यक्रम उन कार्यक्रमों में वित्तीय साक्षरता को शामिल करें जहाँ महिलाओं का महत्त्वपूर्ण प्रतिनिधित्व है, एक अच्छा प्रारंभिक बिंदु हो सकता है। अर्थव्यवस्था में महिलाओं के प्रतिनिधित्व को बढ़ावा देने के लिए समान काम के लिए समान वेतन, मातृत्व लाभ के लिए मज़बूत क़ानूनों और नीतियों की आवश्यकता है। राजनीतिक प्रतिनिधित्व के लिए भारत ने पंचायतों और स्थानीय निकायों में महिलाओं के लिए 33% आरक्षण प्रदान किया है। क्षमता निर्माण और प्रशिक्षण उनकी क्षमताओं को और बढ़ा सकते हैं।
लैंगिक समानता एक मानवाधिकार है जो सभी व्यक्तियों को उनके लिंग की परवाह किए बिना सम्मान और स्वतंत्रता के साथ जीने का अधिकार देता है। लैंगिक समानता भी विकास और ग़रीबी को कम करने के लिए एक पूर्व शर्त है। महिलाओं की क्षमता पर अंकुश लगाने वाला लिंग एक अनुचित निर्धारण कारक नहीं होना चाहिए। आइसलैंड द्वीप राष्ट्र में राजनीतिक सशक्तिकरण की संस्कृति है, और 39.7% सांसद और 40% मंत्री महिलाएँ हैं। फ़िनलैंड से भारत को श्रम शक्ति में महिलाओं की भागीदारी को सक्रिय रूप से शामिल करना सीखना चाहिए।
बेटियों की सुरक्षा के साथ-साथ गर्भ में कन्या भ्रूण की हत्या समाज की ज्वलंत समस्या है। लड़कियाँ अपनी अस्मत बचाने के लिए संषर्घ कर रही हैं, उत्पीड़न रोकने के प्रयास सरासर बेमानी नज़र रहे हैं। सरकार, समाज क़ानून को लड़कियों की सुरक्षा के विशेष प्रबंध करने होंगे, ताकि बिगड़ते हालातों में बेटियाँ अपने आप को सुरक्षित महसूस कर सके। बिना शिक्षा के किसी भी बदलाव की कल्पना करना सम्भव नहीं है। इसी तरह कन्या के प्रति समाज की सार्थक सोच बनाने में अपने बच्चों को सुसंस्कारित बनाकर ही हम कोई बदलाव ला सकते हैं। ऐसे में सभी अभिभावकों को बचपन से ही अपने बच्चों में संस्कार डालने चाहिए। कि वे लड़कियों के प्रति सम्मानजनक व्यवहार करें।
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