कहाँ लौटती हैं स्त्रियाँ?
डॉ. प्रियंका सौरभ
दिल्ली की एक साधारण सी हाउसिंग कॉलोनी में रहने वाली अनुपमा की सुबह हर दिन ठीक पाँच बजे शुरू होती है। अलार्म नहीं बजता, फिर भी उसकी आँख खुल जाती है। ऐसा लगता है जैसे वर्षों की आदत अब शरीर में समा चुकी हो। चाय का पानी गैस पर रखते हुए वो बालकनी में रखे गमलों को देखती है—कुछ सूखे, कुछ मुस्कुराते हुए। शायद वो गमले उसकी ही तरह हैं—कम बोलते हैं, पर सबके लिए जीते हैं।
पति अभी तक सो रहे हैं, बच्चे भी। सासू माँ मंदिर से लौटकर तुलसी के पास दीपक जला रही हैं। अनुपमा रसोई में घुसती है, जहाँ समय एक और रूप ले लेता है—सबका टिफ़िन, दवाई, प्रेस किए हुए कपड़े और दिन की फ़ाइलें। सबकुछ क्रम में। सब कुछ तय। उसकी सुबह सिर्फ़ उसकी नहीं होती—वो सबके दिन की शुरूआत बन जाती है।
उसका मन कई बार एक अजीब क़िस्म की बेचैनी से भर उठता है। कभी वह आईने में अपने चेहरे को देख़ती है, तो लगता है, यह वही चेहरा है जो कभी कॉलेज में कविताएँ सुनाया करता था? कभी दोस्तों के साथ ठहाके लगाता था? अब तो चेहरा एक मुखौटा बन चुका है, जिसमें भावनाएँ अंदर कहीं गहरी दब चुकी हैं।
अनुपमा सचिवालय में सेक्शन ऑफ़िसर है। पद ठीक-ठाक है, तनख़्वाह भी। मेट्रो की भीड़ में रोज़ वो अपने जैसे कई चेहरों से टकराती है—कामकाजी स्त्रियाँ, जो बाहर जितना कमाती हैं, घर में उतना ही ज़्यादा खो देती हैं। ऑफ़िस में वो तेज़ काम करती है—समय से फ़ाइलें निपटाती है, मीटिंग में सुझाव देती है, जूनियर की मदद करती है। सब उसे एक “आदर्श कर्मचारी” मानते हैं।
उसकी मेज़ पर हमेशा ताज़ा फूल होते हैं, जो वह ख़ुद सुबह लगाती है। ऑफ़िस में उसकी पहचान एक सुलझी हुई, दृढ़, और व्यवस्थित महिला की है। पर कोई नहीं जानता कि इस व्यवस्थितता के पीछे कितनी अव्यवस्थित रातें, गहरी थकान और अनसुने आँसू छिपे हैं।
हर मीटिंग में वह मुस्कुराती है, पर जब टेबल के नीचे उसका पैर थकावट से हिलता है, तो कोई नहीं देख़ता। सहकर्मी जब लंच पर गपशप करते हैं, अनुपमा फोन पर बच्चों के स्कूल की चिंता करती रहती है—कभी यूनिफ़ॉर्म नहीं आया, कभी परीक्षा की तैयारी अधूरी है।
जब अनुपमा शाम को घर लौटती है, तब उसकी असली ड्यूटी शुरू होती है। वो घड़ी उतार कर मेज़ पर रख देती है। यह उसका तरीक़ा होता है ख़ुद को याद दिलाने का—अब यह समय उसका नहीं है। ये घर का है। वो रसोई में घुसती है, और गैस पर तरकारी के साथ अपने सपनों को भी धीमी आँच पर रख देती है।
अब उसके हाथ में माउस नहीं, सब्ज़ी का चाकू है। अब मीटिंग की चर्चाएँ नहीं, बच्चों के होमवर्क हैं। ऑफ़िस में उसे “मैडम” कहा जाता है, पर यहाँ वह सिर्फ़ “मम्मी” है—कभी बहू, कभी बेटी, कभी पत्नी। उसकी पहचान कई टुकड़ों में बँटी होती है, पर सबमें वो पूरी होती है।
वह अपने कमरे की अलमारी खोलती है और वहाँ रखे पुराने शेरवानी के बक्से, बच्चों के खिलौने और एक डायरी को देख़ती है। उस डायरी में उसकी कई अधूरी कविताएँ हैं, जिन्हें उसने तब लिखा था जब उसका पहला बेटा पैदा हुआ था। वह पन्ने पलटती है, कुछ पढ़ती है, फिर मुस्कुरा देती है।
अनुपमा की थकान उसकी पीठ में नहीं, उसकी मुस्कान में होती है। जब वो सबको खाना परोस रही होती है, तब कोई नहीं देख़ता कि उसका मन कितना भूखा है—एक चुपचाप संवाद के लिए, एक गर्म चाय के कप के लिए जिसे वो अकेले पी सके।
कभी-कभी वह खिड़की से बाहर देख़ते हुए सोचती है—क्या कोई उसके लिए भी कभी खाना बनाता है? क्या कोई उसके माथे पर हाथ रखकर पूछता है, “आज बहुत थक गई हो न?” पर नहीं, वह जानती है, उसे सबकी माँ, सबकी पत्नी, सबकी बहू बने रहना है। वो ख़ुद के लिए बस वो 5 मिनट चुरा पाती है जब सब सो चुके होते हैं।
उसकी सहेली माया ने एक दिन कहा था, “तू रो क्यों नहीं लेती कभी?” और अनुपमा हँस पड़ी थी—“समय कहाँ है?”
कई बार वो सोचती है—क्या वो सचमुच लौटती है? या सिर्फ़ चलती रहती है—एक रूप से दूसरे रूप में, एक भूमिका से दूसरी में।
वो रसोई में लौटी है, पर ख़ुद में नहीं। वो गमलों के पास जाती है, जो अब भी प्यासे हैं। वो उन्हें पानी देती है। जैसे ख़ुद को सींच रही हो। वो अलमारी खोलती है—पुराने ख़त मिलते हैं, कुछ अधूरी कविताएँ, एक टूटी हुई चूड़ी। जैसे ख़ुद से मुलाक़ात हो रही हो। पर फिर किसी की पुकार आती है—“मम्मी!” और वो फिर लौट जाती है।
उसकी रसोई में मसालों की ख़ुश्बू होती है, पर वह जानती है कि उसमें उसके अधूरे सपनों की गंध भी है। वह बच्चों के टिफ़िन तैयार करते हुए अपनी लिखी एक पुरानी पंक्ति याद करती है—“मैं माँ नहीं होती तो शायद कवि होती।” फिर ख़ुद से कहती है, “शायद माँ होना ही सबसे बड़ी कविता है।”
अनुपमा जैसी स्त्रियाँ सिर्फ़ घर नहीं लौटतीं। वो ख़ुद को सबसे पहले छोड़ आती हैं। वो साँझ के दीये जलाने के लिए लौटती हैं, सूखे पौधों को पानी देने के लिए, बीमार माँ-बाप की देखभाल के लिए, रूठे बच्चों को मनाने के लिए।
वो कभी थकती नहीं, या कहें कि थक कर भी थकान की इजाज़त नहीं लेतीं। उनके लिए रिटायरमेंट कोई विकल्प नहीं, क्योंकि उनके काम को कोई सरकारी कैटेगरी में नहीं गिना जाता।
पति के लिए अनुपमा एक आदर्श पत्नी है, सास के लिए एक भरोसेमंद बहू, बच्चों के लिए सुपरमॉम। पर अनुपमा के लिए अनुपमा क्या है? शायद यही एक सवाल है जो हर स्त्री अपने भीतर चुपचाप पूछती है, हर दिन, हर रात।
एक दिन ऑफ़िस से लौटते समय अनुपमा की सहेली माया मिली। माया ने कहा, “तू लिखती क्यों नहीं? तेरी आँखों में इतनी कहानियाँ हैं।”
अनुपमा मुस्कुरा दी, “वक़्त कहाँ है माया?”
“बस 10 मिनट रोज़,” माया ने कहा।
उस दिन रात को, सबके सो जाने के बाद, अनुपमा ने डायरी निकाली और पहली पंक्ति लिखी:
“काम से लौटकर स्त्रियाँ, काम पर लौटती हैं . . .”
फिर धीरे-धीरे वह कविता कहानी बनती गई। हर दिन की थकान शब्द बनती गई। वो लिखती रही—बच्चों की कॉपियों के बीच, सब्ज़ी काटते हुए, रात की चुप्पियों में। और फिर एक दिन, उसी डायरी से उसकी पहचान फिर से बन गई—“अनुपमा, लेखिका।”
वह अब महीने में एक कविता प्रकाशित करती है। स्त्रियाँ उसके लेखों को पढ़ती हैं, मेल भेजती हैं—“आपने तो हमारी ज़िंदगी लिख दी।” अनुपमा तब मुस्कुराती है, जैसे उसे ख़ुद से एक छोटा-सा पुरस्कार मिल गया हो।
स्त्रियाँ कभी लौटती नहीं, वे हर जगह होती हैं। अनुपमा की कहानी लाखों स्त्रियों की कहानी है—जो अपने सपनों को चूल्हे पर धीमी आँच पर पकाती हैं, जो ऑफ़िस से लौट कर घर की बैठक में ही नहीं, रिश्तों के हर कोने में फिर से खड़ी हो जाती हैं।
वो लौटती हैं, पर ख़ुद के लिए नहीं। वो लौटती हैं सबके लिए—हर रिश्ते की दरार भरने, हर दर्द को छिपाने, हर उम्मीद को जिलाने।
असल में स्त्रियाँ लौटती कहाँ हैं? वो तो वहीं होती हैं—हर समय, हर जगह, हर रूप में।
अब अनुपमा जानती है कि उसका लौटना दरअसल एक और यात्रा का आरंभ है—जहाँ वो सिर्फ़ दूसरों के लिए नहीं, बल्कि अब अपने लिए भी धीरे-धीरे लौटने लगी है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- अनाम तपस्वी
- अभी तो मेहँदी सूखी भी न थी
- आँचल की चुप्पी
- ऑपरेशन सिंदूर
- किसी को उजाड़ कर बसे तो क्या बसे
- ख़ामोश रिश्तों की चीख़
- गिनती की बात
- गिरगिट ज्यों, बदल रहा है आदमी!
- गिलहरी और तोता: एक लघु संवाद
- छोड़ो व्यर्थ पानी बहाना . . .
- जब फ़ोन और फ़ीलिंग्स मौन हो जाएँ
- थोड़ा-सा अपने लिए
- दीमक लगे गुलाब
- नए सवेरे की आग़ोश में
- नए साल का सूर्योदय, ख़ुशियों के उजाले हों
- नगाड़े सत्य के बजे
- नयन स्वयं का दर्पण बनें
- नवलेखिनी
- पहलगाम की चीख़ें
- फागुन में यूँ प्यार से . . .
- बक्से में सहेजी धूप
- बचपन का गाँव
- बड़े बने ये साहित्यकार
- भेद सारे चूर कर दो
- मत करिये उपहास
- माँ
- मुस्कान का दान
- मैं पिछले साल का पौधा हूँ . . .
- मैं बिंदी हूँ, मौन की ज्वाला
- मौन की राख, विजय की आँच
- युद्ध की चाह किसे है?
- रक्षा बंधन पर कविता
- राखी के धागों में बँधी दुआएँ
- राष्ट्रवाद का रंगमंच
- शब्दों से पहले चुप्पियाँ थीं
- शीलहरण की कहे कथाएँ
- सबके पास उजाले हों
- समय सिंधु
- सावन को आने दो
- कहानी
- सामाजिक आलेख
-
- अयोध्या का ‘नया अध्याय’: आस्था का संगीत, इतिहास का दर्पण
- क्या 'द कश्मीर फ़ाइल्स' से बहुसंख्यक और अल्पसंख्यक के चश्मे को उतार पाएँगे?
- क्यों नहीं बदल रही भारत में बेटियों की स्थिति?
- खिलौनों की दुनिया के वो मिट्टी के घर याद आते हैं
- खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
- जलते हैं केवल पुतले, रावण बढ़ते जा रहे?
- जातिवाद का मटका कब फूटकर बिखरेगा?
- टूट रहे परिवार हैं, बदल रहे मनभाव
- दिवाली का बदला स्वरूप
- दफ़्तरों के इर्द-गिर्द ख़ुशियाँ टटोलते पति-पत्नी
- नया साल सिर्फ़ जश्न नहीं, आत्म-परीक्षण और सुधार का अवसर भी
- नया साल, नई उम्मीदें, नए सपने, नए लक्ष्य!
- नौ दिन कन्या पूजकर, सब जाते हैं भूल
- पुरस्कारों का बढ़ता बाज़ार
- पृथ्वी की रक्षा एक दिवास्वप्न नहीं बल्कि एक वास्तविकता होनी चाहिए
- पृथ्वी हर आदमी की ज़रूरत को पूरा कर सकती है, लालच को नहीं
- बच्चों को उनकी मातृभाषा में पढ़ाने की ज़रूरत
- बिखर रहे चूल्हे सभी, सिमटे आँगन रोज़
- महिलाओं की श्रम-शक्ति भागीदारी में बाधाएँ
- मातृत्व की कला बच्चों को जीने की कला सिखाना है
- वायु प्रदूषण से लड़खड़ाता स्वास्थ्य
- समय न ठहरा है कभी, रुके न इसके पाँव . . .
- साहित्य अकादमी का कलंक
- स्वार्थों के लिए मनुवाद का राग
- हिंदी साहित्य की आँख में किरकिरी: स्वतंत्र स्त्रियाँ
- दोहे
- लघुकथा
- सांस्कृतिक आलेख
-
- गुरु दक्ष प्रजापति: सृष्टि के अनुशासन और संस्कारों के प्रतीक
- जीवन की ख़ुशहाली और अखंड सुहाग का पर्व ‘गणगौर’
- दीयों से मने दीवाली, मिट्टी के दीये जलाएँ
- नीरस होती, होली की मस्ती, रंग-गुलाल लगाया और हो गई होली
- फीके पड़ते होली के रंग
- भाई-बहन के प्यार, जुड़ाव और एकजुटता का त्यौहार भाई दूज
- मेरे कान्हा—जन्माष्टमी विशेष
- रहस्यवादी कवि, समाज सुधारक और आध्यात्मिक गुरु थे संत रविदास
- समझिये धागों से बँधे ‘रक्षा बंधन’ के मायने
- सौंदर्य और प्रेम का उत्सव है हरियाली तीज
- हनुमान जी—साहस, शौर्य और समर्पण के प्रतीक
- हास्य-व्यंग्य कविता
- शोध निबन्ध
- काम की बात
- स्वास्थ्य
- ऐतिहासिक
- कार्यक्रम रिपोर्ट
- चिन्तन
- विडियो
-
- ऑडियो
-