दादी के साथ बैठक

15-11-2025

दादी के साथ बैठक

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

शाम उतर आई थी, 
आँगन की मिट्टी ठंडी हो चली थी, 
और दादी का आसन वहीं—
पुरानी बोर की चटाई पर, 
पीठ के नीचे तकिया, 
हाथ में चिलम, आँखों में धुआँ और कथा। 
 
मैं पास ही बैठी थी—
बालों में उँगलियाँ फेरते हुए, 
सुनती कम, 
महसूस ज़्यादा कर रही थी। 
 
दादी बोलती थीं, 
पर शब्दों से अधिक, 
उनकी झुर्रियाँ बोलती थीं—
हर रेखा जैसे एक क़िस्सा, 
हर ठहराव जैसे कोई भूली हुई प्रार्थना। 
 
उनके पास वक़्त का न कोई हिसाब था, 
न किसी घड़ी की टिक-टिक। 
दिन वहाँ ठहर जाते थे, 
जहाँ उनका स्वर धीमा पड़ता, 
और रात वहीं से शुरू होती, 
जहाँ उनकी हँसी में खाँसी घुल जाती। 
 
कभी-कभी वे रुककर कहतीं—
“देख, इस नीम के नीचे तेरे बाबा ने 
पहली बखत हल चलाया था . . .” 
और मैं उस नीम को देखती, 
तो लगता, 
जड़ें अब भी बाबा की थकान को थामे हैं। 
 
उनकी आँखों में पूरा गाँव बसता था—
कुएँ की रस्सी, 
रसोई का चूल्हा, 
सावन की बूँदें, 
और किसी भूले मेले की धुन। 
 
मैं हर दिन वहीं लौटती—
दादी की बैठक में, 
जहाँ समय की घड़ी नहीं चलती थी, 
बस स्मृतियों की घंटियाँ बजती थीं। 
 
अब वही बैठक है, 
पर दादी नहीं। 
नीम अब भी है, 
पर छाँव कुछ कम लगती है। 
चटाई अब भी बिछती है, 
पर उस पर कोई कथा नहीं उतरती। 
 
कभी-कभी मैं बैठती हूँ—
वैसे ही, 
जैसे वह बैठती थीं, 
और मन ही मन पूछती हूँ—
दादी, क्या सच में
स्मृतियाँ भी मर जाती हैं, 
या वे बस बैठकों से उठ जाती हैं? 

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