पहलगाम की चीख़ें
प्रियंका सौरभ
जब बर्फ़ीली घाटी में ख़ून बहा,
तब दिल्ली में सिर्फ़ ट्वीट हुआ।
गोलियाँ चलीं थी सरहद पार से,
पर बहस चली—“गलती किसकी है सरकार से?”
जो लड़ रहे थे जान पे खेलकर,
उनकी क़ुर्बानी दब गई मेल में।
और जो बैठे थे एयरकंडीशन रूम में,
लिखने लगे बयान—“मोदी है क़सूरवार इसमें।”
कब समझोगे, ये दुश्मन बाहर है,
जो मज़हब की आड़ में क़त्लेआम करता है।
1400 सालों से जो आग सुलगा रहा,
उसका नाम लेने से भी डर लगता है क्या?
मोदी नहीं, वो किताबें दोषी हैं,
जो नफ़रत की ज़ुबान बोलती हैं।
जो कहती हैं, ‘काफ़िर को ख़त्म करो,’
और तुम कहते हो, ‘सेक्युलर रहो।’
किसी ने कहा—“पहले जाति देखो,”
किसी ने कहा—“धर्म ना पूछो।”
पर जब आतंकी आया AK-47 लिए,
उसने सीधा सीने में गोली पूछी—“हिन्दू हो या नहीं?”
क्या यही है तुम्हारी मानवता की परिभाषा?
क्या यही है तुम्हारी आज़ादी की भाषा?
जो देश के वीरों को शर्मिंदा करे,
और आतंकी सोच को गले लगाए,
वो बुद्धिजीवी नहीं, गद्दार कहा जाए।
मोदी को कोसने से पहले सोचो,
क्या तुमने भी देश के लिए कुछ किया है?
जिसने जवाब दिया बालाकोट से,
उसके इरादे पर शक करना भी गुनाह है।
पहलगाम रो रहा है, सुनो उसकी सिसकी,
ये कायरता नहीं, ये साज़िश है जिसकी।
एकजुट होओ, मज़हब से ऊपर उठकर,
वरना अगली चीख़ तुम्हारे घर से उठेगी।
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