थोड़ा-सा अपने लिए

01-09-2025

थोड़ा-सा अपने लिए

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

हर सुबह किसी और के लिए जगते हैं, 
हर शाम किसी और के लिए थकते हैं। 
अपनी चाहतों को टालते-टालते, 
कब उम्र की धूप ढलने लगे, 
पता ही नहीं चलता . . . 
 
ज़रा-सा ठहरो, 
अपने दिल की भी सुनो। 
ख़ुद से भी कोई वादा करो, 
कि एक दिन नहीं, 
हर दिन में कुछ पल
अपने लिए ज़रूर रखोगे। 
 
दुनिया के पीछे भागते-भागते, 
हम ख़ुद से ही दूर हो जाते हैं। 
जो हँसना चाहते थे, 
वो हँसी किसी को दिखाने में खो देते हैं। 
 
ये ज़िंदगी—
किस मोड़ पर साँस थमा दे, 
कोई नहीं जानता। 
तो क्यों न जी लिया जाए
वो सपना, 
जिसे कल पर टाल रखा है? 
 
लोग कहते हैं—
“समय नहीं मिलता“
पर सच तो ये है कि
हम ख़ुद को समय देना भूल जाते हैं। 
 
आज से, 
थोड़ा-सा अपने लिए भी जीना शुरू करो। 
क्योंकि जब परदा गिरेगा, 
तालियाँ तो बहुत मिलेंगी . . . 
पर अफ़सोस भी होगा
कि मंच पर अपनी कहानी अधूरी छोड़ दी। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कहानी
सामाजिक आलेख
दोहे
कविता
लघुकथा
सांस्कृतिक आलेख
हास्य-व्यंग्य कविता
शोध निबन्ध
काम की बात
स्वास्थ्य
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
चिन्तन
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में