बढ़ रही हैं लड़कियाँ

15-11-2025

बढ़ रही हैं लड़कियाँ

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 288, नवम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

तोड़ रहीं हैं बेड़ियाँ सब, 
मुक्त गगन में उड़ चलीं। 
 
वर्षों की ज़ंजीरों से अब, 
आशा की धुन गुनगुन चलीं। 
 
दहलीज़ों की धूल झाड़कर, 
सपनों के पथ चुन चलीं। 
 
भीगी आँखों से नहीं अब, 
ज्योति-सी जगमग बन चलीं। 
 
मौन नहीं, स्वर बनकर अब, 
अर्थ नया गढ़ने लगीं। 
 
अँधियारे को चीर उजाले, 
दीप-सी जलने लगीं। 
 
अस्मिता की ओस सजा कर, 
फूल-सी खिलने लगीं। 
 
जिन पंखों को बाँधा जग ने, 
वे नभ में ढलने लगीं। 
 
अब हर पीड़ा गीत बनी है, 
हर घाव कहानी कहती। 
 
जीवन की इस कठोर भूमि पर, 
आशा की क्यारी रहती। 
 
गौरव की वंदनवार बनीं, 
बढ़ रहीं हैं लड़कियाँ। 

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