राष्ट्रवाद का रंगमंच

01-05-2025

राष्ट्रवाद का रंगमंच

प्रियंका सौरभ (अंक: 276, मई प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

रात की चादर तले, स्क्रीन पर उठता है शोर, 
लाहौर की दीवारें काँपती हैं, ऐसा चलता है ज़ोर। 
धमाकों की छवियाँ, सीजीआई की चमक, 
हर एंकर बना सेनापति, हर बहस में क्रुद्ध विमर्श। 
 
वीरता बिकती है यहाँ, पैकेज बना दी गई है मौत, 
शहीदों के आँसू सूखते हैं, पर टीआरपी पाती है सौग़ात। 
अधजली चिट्ठियाँ, अधूरी पेंशन की फ़ाइलें, 
झाँकती हैं पर्दे की ओट से— “कब आएगा मेरा हक़?” 
 
बालाकोट के साये में बनती हैं फ़िल्में, 
जहाँ राष्ट्रवाद का संवाद है, पर ख़ामोश हैं आँखें। 
‘हाउ इज़ द जोश’ गूँजता है सिनेमा हॉल में, 
पर शहीद की माँ के आँगन में पसरा है सन्नाटा। 
 
प्रश्न पूछने पर लगते हैं तमगे— गद्दार, देशद्रोही, 
और उत्तर नहीं, मिलते हैं मीम्स, ट्रोल, मौन की तोहीनें। 
सोशल मीडिया पर झंडा लगा, चल पड़ते हैं योद्धा, 
मगर युद्धभूमि में अब भी अकेला खड़ा है सच्चा सिपाही। 
 
चुनावी मौसम में उगते हैं ‘स्ट्राइक’ के फूल, 
वोटों की फ़सल काटने को उछाले जाते हैं जुमले अनगिनत। 
जो चुप रहे, वह राष्ट्रभक्त; जो बोले, वह शक़ के घेरे में, 
सत्ता और मीडिया की यह साँठ-गाँठ लिखती है झूठ की गाथाएँ। 
 
कश्मीर की घाटियों में जो बहता है ख़ून, 
उसकी कोई स्क्रिप्ट नहीं, कोई रीटेक नहीं, 
वह मृत्यु है— निर्वस्त्र, नग्न, अनकही, 
जिसे ढकते हैं राष्ट्रवाद के पर्दे। 
 
तो पूछो—
क्या देशभक्ति अब एक ‘सीन’ है, या संवेदना की पुकार? 
क्या हम तालियाँ ही बजाएँगे, या पकड़ेंगे रोते हाथों की दरकार? 
 
वक़्त है अब, 
राष्ट्रवाद को थियेटर से उतार
ज़मीन की धूल में ढूँढ़ने का। 

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