बक्से में सहेजी धूप

01-10-2025

बक्से में सहेजी धूप

डॉ. प्रियंका सौरभ (अंक: 285, अक्टूबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

जब कन्या ज़रा-सी सयानी हुई, 
गली-गली उसकी आहट फैल जाती—
जैसे कचनार की पहली कली
अचानक सबकी नज़र में आ गई हो। 
 
अम्मा की आँखों में चिंता और ममता की छाया—
“सीख ले बिटिया . . . 
ससुराल की चौखट पार करते ही
तेरे हाथों का हुनर ही तेरी पहचान होगा।”
 
तब पाठशाला रसोई में थी, 
और पुस्तकें मौसी-बुआ के हाथ। 
छत पर धूप के ग़लीचे बिछाकर
क्रोशिया के फंदों में दिन उलझते, 
रेशमी धागों में सपने बुनते, 
ब्लॉक प्रिंट की चादरों में रंग उतरते—
मानो बिटिया की क़िस्मत रंगीन की जा रही हो। 
 
पलंग के नीचे बक्सा—
धीरे-धीरे भरता
सिर्फ़ वस्त्रों से नहीं, 
बल्कि समय के ठहरे स्पर्श से, 
और रिश्तों की अनदेखी ऊष्मा से। 
 
भाभियाँ पान-मसाले की महक लिए चटाई गूँथ देतीं, 
चाची टोकरी में अपना आशीष रख देतीं, 
और पुराने रूमालों पर फूल टाँकते हाथ
मानो मौन में कह देते—
“तू ख़ाली हाथ नहीं जा रही, बिटिया।”
 
मौसी की धीमी फुसफुसाहट—
“बोलना . . . जैसे ओस की बूँद गिरती है, 
और सास के सामने मुस्कुराना—
जैसे शरद चाँदनी खिड़की पर उतरती है।”
 
बिटिया हर ग़लती से पहले ठिठक जाती—
डरती कि कहीं कोई न कह दे, 
“इसकी अम्मा ने कुछ नहीं सिखाया।”
 
शादी तब एक अकेले घर का उत्सव नहीं थी, 
वो पूरे महल्ले की साझी रचना थी। 
हर गली, हर आँगन अपनी साँस उसमें जोड़ता था। 
 
अब वो बक्से नहीं, 
ना वो छतें, ना वो दोपहरें। 
पर स्मृति की साँझ में
अब भी खड़ी है एक बिटिया—
माथे पर बिंदी, आँखों में झिझक, 
और मन में पूरे महल्ले की अनकही प्रार्थनाएँ। 

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