खुलने लगे स्कूल, हो न जाये भूल
प्रियंका सौरभ(बिना परीक्षा कॉलेजों और स्कूलों की बड़ी कक्षाओं के छात्रों को ‘कोरोना सर्टिफिकेट’ देना कोई बेहतर क़दम नहीं है। कोरोना काल में वर्चुअल कक्षाओं ने इंटरनेट को भी शिक्षा की महत्वपूर्ण कड़ी बना दिया है लेकिन हमने ये भी जाना कि देश में एक बड़े वर्ग के पास न तो स्मार्ट फोन है और न ही कम्प्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा। जिस से हमें ये पता चला कि संकट की घड़ी में ऑनलाइन शिक्षा सही है लेकिन इसे परम्परागत ज्ञान की कक्षाओं का विकल्प नहीं बनाया जा सकता।)
1 जनवरी से केरल, कर्नाटक और असम के स्कूलों को दोबारा से खोला गया है। बिहार सरकार के आदेशानुसार 4 जनवरी 2021 से राज्य भर के सभी सरकारी स्कूलों और कोचिंग सेंटरों को खोल दिया जाएगा। महाराष्ट्र में 9वीं से 12वीं कक्षा के छात्रों के लिए 4 जनवरी से स्कूलों को खोला जाएगा। इनमें कोविड-19 दिशानिर्देशों का सख़्ती से पालन होगा। इससे पहले उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश, आंध्र प्रदेश, झारखंड और सिक्किम में पहले से ही स्कूल आंशिक रूप से खुल चुके हैं। हालाँकि कुछ राज्यों ने अभी स्कूल नहीं खोलने का फ़ैसला लिया है, राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली की सरकार का कहना है कि जब तक कोविड-19 वैक्सीन नहीं आ जाता तब तक स्कूल खोलना सही नहीं है। मुंबई में कोरोना के नए स्ट्रेन को देखते हुए 15 जनवरी तक स्कूल बंद रखने का फ़ैसला किया गया है। पश्चिम बंगाल में इस साल न तो माध्यमिक और उच्च माध्यमिक की परीक्षाएँ होंगी, न ही स्कूल खुलेंगे।
अब जब धीरे-धीरे स्कूल, कॉलेजों को खोला जा रहा है, तो किस तरह के एहतियात बरतने की ज़रूरत है, क्या सावधानियाँ बरतनी होंगी क्यूँकि कोरोना महामारी अभी ख़त्म नहीं हुई है। देश भर के विश्वविद्यालयों और स्कूलों को मार्च के मध्य में बंद कर दिया गया था, जब केंद्र सरकार ने कोरोना वायरस का संक्रमण फैलने से रोकने के उपायों के तहत देशभर में शिक्षण संस्थान बंद करने की घोषणा की थी। उसके बाद, 25 मार्च को देशव्यापी लॉकडाउन लागू किया गया। सरकार ने 8 जून से 'अनलॉक' के तहत धीरे-धीरे प्रतिबंधों को कम करना शुरू कर दिया। महामारी के बीच विद्यालयों एवं पीयूसी को खोलने को लेकर देश भर में कुछ विरोध भी है जबकि कई लोगों का विचार है कि सुरक्षा क़दमों के साथ विद्यालयों और कॉलेजों का खोला जाना ख़ास तौर पर ग्रामीण इलाक़ों में ज़रूरी हो गया है क्योंकि ऑनलाइन शिक्षा ज़्यादातर नदारद है जिससे उनके मज़दूरी करने के मामले भी सामने आए हैं।
कोविड-19 के प्रसार पर अंकुश लगाने के लिए दुनिया भर में स्कूलों को बंद करने से कई स्वास्थ्य जोखिमों का पता चला है, जिसमें सबसे अधिक बच्चों पर प्रभाव है। कई बच्चे स्कूल के भोजन से चूक गए। उन पर मानसिक स्वास्थ्य के नकारात्मक प्रभाव देखे गए। नेशनल काउंसिल फॉर डिज़ीज़ कंट्रोल के डैशबोर्ड पर इंडियन काउंसिल ऑफ़ मेडिकल रिसर्च (ICMR) के आँकड़ों के अनुसार, भारत में कोविड -19 के 11.89% मामले 20 से कम उम्र के हैं। भारत में स्कूल क्लोज़र ने प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा में नामांकित 247 मिलियन बच्चों और 28 मिलियन बच्चों को प्रभावित किया है जो आँगनवाड़ी केंद्रों में प्री-स्कूल शिक्षा में भाग ले रहे थे। कोविड -19 ने नवजात मृत्यु दर (एनएमआर) और शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में भारत द्वारा किए गए प्रयास के लिए गंभीर ख़तरा पैदा किया है, जिसने हाल के वर्षों में सुधार देखा। देश भर के सरकारी स्कूलों ने पानी की गुणवत्ता, स्वच्छता और स्वच्छता सुविधाओं तक बेहतर पहुँच की पहले से ही कमी है, वे बंद हैं और सुविधाएँ उपलब्ध नहीं हैं।
अब जब छात्र और शिक्षक स्कूल लौटते हैं तो उनकी अधूरी शिक्षा के साथ स्कूल समुदायों के स्वास्थ्य और कल्याण पर ध्यान देने के लिए तैयार होना होगा। ये एक अलग तरह की चुनौती होगी। साफ़-सफ़ाई के साथ उनके लर्निंग गैप को रोटेशन के साथ पूरा करना बहुत बड़ी चुनौती होगी। छात्रों के पास चार माह का समय है। इस वर्ष बदले पैटर्न में परीक्षाएँ होंगी क्योंकि दसवीं और बारहवीं कक्षाओं के लिए 30 फ़ीसदी सिलेबस कम किया गया है। घटाए गए सिलेबस पर ही बोर्ड की परीक्षाएँ ली जाएँगी। अभिभावकों की चिंता यह भी है कि इन परीक्षाओं से पहले अलग-अलग शिक्षा बोर्डों से जुड़े स्कूल प्री-बोर्ड परीक्षाएँ लेने की तैयारी कर रहे हैं। प्री-बोर्ड परीक्षाएँ ऑनलाइन ली जाएँगी। स्कूल वालों का कहना है कि ऑनलाइन परीक्षाएँ कराने से बच्चों की ग़लती पकड़ कर ठीक कर लिया जाएगा। इससे बच्चों की क्षमता का पता चलेगा।
अभिभावकों को इस समय बच्चों को केवल स्कूली परीक्षा के लिए तैयारी करने में भरपूर सहयोग तो देना ही चाहिए, साथ ही जीवन की चुनौतियों का सामना करने की सीख भी देनी चाहिए। दसवीं और बारहवीं की परीक्षाएँ जीवन का एक महत्वपूर्ण मोड़ होती हैं। ये परीक्षाएँ छात्रों का भविष्य तय करती हैं। किसी ने क्षेत्र में आगे बढ़ना है, ये परीक्षाएँ ही तय करती हैं। बिना परीक्षा के छात्रों को पास करना उनके भविष्य से खिलवाड़ होता। बिना परीक्षा कॉलेजों और स्कूलों की बड़ी कक्षाओं के छात्रों को ‘कोरोना सर्टिफ़िकेट’ देना कोई बेहतर क़दम नहीं है। कोरोना काल में वर्चुअल कक्षाओं ने इंटरनेट को भी शिक्षा की महत्वपूर्ण कड़ी बना दिया है लेकिन हमने ये भी जाना कि देश में एक बड़े वर्ग के पास न तो स्मार्ट फोन है और न ही कम्प्यूटर और न ही इंटरनेट की सुविधा। जिस से हमें ये पता चला कि संकट की घड़ी में ऑनलाइन शिक्षा सही है लेकिन इसे परम्परागत ज्ञान की कक्षाओं का विकल्प नहीं बनाया जा सकता। हमें स्कूलों को आख़िर खोलना ही होगा वरना पहले से ही चल रहा शिक्षा असमानता कि खाई और बढ़ जाएगी।
दुनिया भर के आँकड़े देखे तो बच्चों और किशोरों में 9 में से 1 में कोविड -19 संक्रमण की सूचना है। ये संख्या इस मिथक को तोड़ती है कि बच्चे इस बीमारी से बमुश्किल प्रभावित होते हैं, जो कि महामारी के रूप में प्रचलित है। लेकिन प्रमुख सेवाओं में रुकावट और ग़रीबी की दर बढ़ जाना बच्चों के लिए सबसे बड़ा ख़तरा है और संकट लंबे समय तक बना रहता है तो इसका गहरा असर बच्चों की शिक्षा, स्वास्थ्य, पोषण और भलाई पर पड़ता है। इस दौरान बच्चों की कमज़ोरियाँ बढ़ गईं, क्योंकि स्वास्थ्य सेवाएँ बाधित हुई और स्कूल बंद रहे, जिससे वंचित बच्चों के लिए स्कूलों में बच्चों को मुफ़्त मिड-डे मील दिया जाता है। खुलते स्कूलों से अब ऐसा भी हो सकता है कि स्कूल सामुदायिक प्रसारण के मुख्य चालक न बने और बच्चों को स्कूल के अंदर अच्छा वातावरण मिले जिससे ये कोरोना के प्रभाव से बच सकें और पढ़ाई भी कर सकें। फिर भी हमें पूरी एहतियात रखनी होगी ताकि स्कूल खुलने ले साथ-साथ हम कोई बड़ी भूल न कर बैठें।
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