क्रियाकर्म
डॉ. उषा रानी बंसलअशर्फी देवी एक दिन रात को पलंग से उठ कर पेशाब करने गईं। वहाँ उठने के लिये दरवाज़े के हैंडिल को पकडना चाहा, तभी उनका हाथ फिसल गया और वह गिर पड़ीं। उनकी कूल्हे की हड्डी टूट गई। 75 साल की उम्र ऊपर से भारी शरीर, मानों अशर्फी देवी पर पहाड़ ही टूट पड़ा। यूँ तो वैज्ञानिक युग में आयरन बॉल डालकर कूल्हा ठीक किया जा सकता था, जिसमें 3 से 6 महीने लग सकते थे, और वह अपना काम ख़ुद करने लायक़ हो सकती थी। परन्तु 12 साल की उम्र से, जब से उनका विवाह हुआ, घर की चक्की के दो नहीं अनेक पाटों पिसते-पिसते, उनका शरीर बीमारियों का घर बन गया था। अशर्फी देवी का मनोबल टूट गया। जीने की इच्छा ही मर गई। जीने की इच्छा मरने से, तो मौत नहीं आ जाती। अब उन्हें टूटी हड्डी के साथ ज़िन्दा रहना पड़ा। अशर्फी देवी के पति के 6 महीने में दो ऑपरेशन होने के कारण ख़ुद ही अस्वस्थ थे। उनके 6-7 बेटे, बहू तथा पोते-पोती, नौकर-चाकर सभी थे, पर सब अपनी-अपनी दिनचर्या में व्यस्त थे। किसी को माँ-बाप को देखने की फ़ुर्सत नहीं थी। ऑपरेशन में होने वाले ख़र्च व भागदौड़ की आशंका से सभी व्यक्तियों के मन में, जो सम्पत्ति, माँ बाप के मरने पर मिलने की आशा थी, उसके अस्पताल के खाते में जाने का भय भी बना हुआ था। अशर्फी देवी की सास की घुटने की हड्डी टूट गई थी। उन्होंने अपने पास रख कर उनका ऑपरेशन कराया था। उनके बेटे गोविंद ने अपनी दादी की बड़ी सेवा की थी। मल-मूत्र सब उठाया था। परन्तु हड्डी ठीक न जुड़ी। वह टाँग सीधी ना हो सकी, जिससे अंतिम समय तक घिसट-घिसट कर चलती रहीं। बड़ा कष्ट पाया था उन्होंने। ऑपरेशन के नाम पर अशर्फी देवी के सामने अपनी सास का चित्र घूम जाता था। इसी कारण उन्हें ऑपरेशन से कोई आशा न बँध पाती थी। बहू बेटा तीमारदारी के डर से किसी ना किसी का उदाहरण देकर ऑपरेशन कराना बेकार सिद्ध करते रहते थे।
बहुओं का कहना था कि माँजी जब सारा दिन बिस्तर पर रहेंगी, तो भूख अपने आप मर जाएगी और उनका शरीर हल्का हो जाएगा। दो नौकर रख दो। वे ही बिस्तर पर मल-मूत्र का हिसाब करवा देंगे। खाना बारी-बारी से हम भेजते रहेंगे, सब की माँजी हैं, सब का फ़र्ज़ है, सब देख लेंगे। कुछ दिन लड़कियाँ आकर रह जाएँगी, उन्हें भी इसी पेट से पैदा किया है, उनका भी तो माँजी की सेवा का फ़र्ज़ बनता है। बड़ी पुरानी कहावत है कि “सात मामा का भाँजा न्यौता न्यौता ही फिरे . . .” माँजी की सेवा टहल तथा खाने के लिए न्यौतों की मोहताज हो कर रह गई।
अशर्फी देवी की हड्डी टूटने के 3 महीने बाद उनके पति परलोक सिधार गए। एक-दो महीने बाद अशर्फी देवी से मिलने उनकी बड़ी बेटी सुधा आई। दिन के 2 बजे थे, सुबह की चाय के बाद अभी तक खाने का कहीं अता-पता ना था। जिनके यहाँ से खाना आना था उनके यहाँ दामाद, बेटी, बेटी के ससुराल वाले आए हुए थे। उनकी ख़ातिरदारी में घर भर लगा था। माँजी ने नौकर से कहा, “आज बहू रानी के यहाँ तरह-तरह के पकवान बने होंगे, जा कर कहना कि दीदी आई है, कुछ नाश्ता दे दें।” नौकर बड़बड़ाता सा बाहर चला गया। सुधा ने कहा, “वह तो घर से खाना खा कर आई है। आप बेकार परेशान हो रही हैं” उसकी बात अनसुनी करती हुई माँजी बोली, “पहले तो डोली, लकड़ी की जाली की अलमारी में नमकीन मँगवा कर रख देती थी, परन्तु मेरी आँख लग जाने पर नौकर सब खा जाते थे, यहाँ तक की फ़्रिज में ठंडा पानी भी नहीं छोड़ते थे। इसलिए अब कोई कुछ नाश्ता ला कर नहीं रखता।”
सुधा की नज़रों में उसका रोशनी से जगमगाता घर, घर की मदमाती रौनक़, धूप दीप की ख़ुश्बू, फूलों की महक, दूध, दही, घी, लड्डू, मठरी से भरा घर घूमने लगा। माँजी के असहाय होने पर—धूल से अटा, गंदा, पेशाब व पखाने की दुर्गंध से महकता कमरा, जिसमें कभी प्रभु का वास था, चक्कर काटने लगा। वक़्त, वक़्त की बात है, कभी बिस्तरों पर सफ़ेद चादर जगमगाती थी, अब पेशाब, बखानी सोखने के लिये अख़बार बिछे थे।
सुधा के कानों में मँझली भाभी के शब्द गूँजने लगे, “आपकी मौसी जी जब बिस्तर पर ही टट्टी पेशाब करने लगी, तो चेयरमैन साहब ने, उन्हें अलग कमरे में बान की चारपाई पर डाल दिया, बार-बार उनका गंदा कौन उठाता है? चारपाई के नीचे पेशाब निकल जाता था,” फिर नाक पर रुमाल रखकर, मुँह चढ़ा कर बोली कि “जब वह उन्हें देखने गई, तो मौसी जी पर मक्खियाँ भिनभिना रहीं थीं, कमरे में बदबू के मारे खड़ा नहीं हुआ जाता था।”
नौकर की भद्दी आवाज़ से मेरी तंद्रा भंग हुई, वह चिल्ला रहा था, “वह नाराज़ हो रही हैं कि उनके पास कोई भी आयेगा तो हम नाश्ता भेजते रहेंगे? क्यों तंग करती रहती हैं। हमें और भी तो काम हैं, बीमारी में चुपचाप नहीं पड़ी रह सकतीं, उनके पास तो कोई-कोई मुँह उठाया आता ही रहता है!”
अशर्फी देवी का चेहरा उसकी बकवास से फीका पड़ गया। कुछ संयत होकर कहने लगी—मेरी सब बहू बहुत अच्छी हैं, सभी नाते-पोते वाली हो गई हैं। सबके यहाँ किसी-किसी का आना-जाना, देना-लेना लगा रहता है। कुछ देर वह विचारों में खो गईं। उनके चेहरे की झुर्रियों में कष्टों की कई लहर जल्दी-जल्दी उतरने चढ़ने लगी।
अशर्फी देवी ने नौकर को आवाज़ देकर पानी लाने को कहा, फिर नौकर के जाने पर फुसफुसाती सी बोली कि, “बिस्तर पर पड़े रहने पर भी पेट खाना माँगता है, कभी-कभी भूख के मारे कलेजा मुँह को आने लगता है, आँतें बाहर आने लगती हैं।”
उनका प्रलाप जारी था पर सुधा का ध्यान बिम्बिसार और कौशल देवी में अटक गया, जिन्हें उनके पुत्रों ने पहले क़ैद कर लिया और फिर भूखों मार डाला। उनकी आवाज़, सुधा के कान में रुदन कर रही थी। अशर्फी देवी कह रही थीं, “दुखी मत हो, ज़्यादा ज़िन्दा रहने का अभिशाप तो सहना ही है। कौन-सी नई बात है, जब ब्याह कर ससुराल गई तो बचपन में बड़ी भूख लगती थी। सुबह दो बासी पराँठे और एक गिलास मट्ठा मिलता था। 3-4 बजे सास, ससुर, देवर, आने-जाने वाले निपट जाते थे, तब, बचा-खुचा खाने को मिलता था। भूख में किवाड़ पापड़। कहने को तो 50 गाँव के ज़मींदार थे। पति के घर गाय-गोबर, भैंस, चक्की, दूध बिलोना, रसोई, बच्चों, आये-गये, के बाद भोजन करने का नंबर आता था। वह कभी-कभी अचानक आए मेहमान की ख़ातिर में देना पड़ता था। तब गुड़ चना खा, पानी पीकर रह जाते थे। फिर शाम की रसोई के काम में जुटना पड़ता था।”
इतने में नौकर स्टील के गिलास में पानी लेकर आ गया। सुधा ने दो घूँट पानी पीकर भारी मन से विदा ली।
एक दो महीने बाद उनकी छोटी बेटी, लता जो तीन-चार घंटों की दूरी पर, दूसरे शहर में रहती थी, मिलने आई। उसे अपने घर का हाल पता था। वह कुछ माँजी की पसंद का नाश्ता, और एक टिफ़िन में खाना साथ में लेकर आई। उसने बड़ी अनुनय विनय करके माँजी को कुर्सी पर बैठाया। फिर उनको अच्छी तरह नहला कर कपड़े बदलवाए। माँजी के चेहरे पर कुछ ताज़गी आ गई। उनका बिस्तर बदलवाया। फिर माँजी को खाना खिलाया। इतने प्यार से बहुत दिन बाद किसी ने खाना परोसा था। माँजी ने बहुत स्वाद ले खाना खाया। उनके चेहरे से उनकी तृप्ति झलक रही थी। लता को यह देख कर बहुत ख़ुशी हुई। वह अपनी माँ से कहने लगी कि “अगर रसोई में गैस, खाना बनाने की सुविधा होती तो वह दो चार दिन . . .”
“हाँ, हाँ आ गई सिखाने पढ़ाने। चार दिन रह कर फुर्र हो जाओगी बीबी! तो देखभाल कौन करेगा?” एक बार बड़ी भाभी ने बोलना शुरू किया तो बहुत कुछ भला-बुरा कह गईं, “देखो, एक वक़्त का खाना खिला कर महान बन रही है। मैं जो नौकर का इन्तज़ार कर रही थी, उसका ख़्याल किसी को न आया? ये न हुआ कि कहलवा देतीं कि आज खाना मत भेजना। चिन्ता हो गई सो ख़ुद लेकर आना पड़ा।”
लता को कुछ कहते न बना! शाम को नियत प्रोग्राम के अनुसार दिल में माँजी का दर्द छुपाये, बस स्टैंड के लिये घर के बाहर से रिक्शा कर ली।
अशर्फी देवी अपने हालात से वैसे ही जूझती रही। कुछ महीने बाद डाक से एक पोस्ट कार्ड मिला, जिसमें अशर्फी देवी के दसवें की सूचना थी। उनके भौतिक शरीर के पंचतत्व में मिलने के समाचार ने अचानक लता का मन हल्का कर दिया। कहीं से आवाज़ आई चलो! इतने बड़े अभिशाप से मुक्त हो गईं।
दसवें के दिन लता अपनी माँजी के घर गई। उस सूनी, अँधेरी, वीरान हवेली आज चहल-पहल तथा रोशनी से दमक रही थी। एकत्रित लोगों की आवाज़ दरवाज़े के बाहर से ही सुनाई दे रही थी। ग़म या मातम का कहीं कोई नामोनिशान नहीं था।
घर की धूल को झाड़-पोंछ दिया गया था। घर का पर्दा धुलकर चमक रहा था। जिस कमरे में अशर्फी देवी ने अंतिम घड़ियाँ गिनी थीं, उसकी दीवारों से सटा कर तीन तरफ़ डनलप के गद्दे लगे थे, जिन पर लक-दक करती सफ़ेद चादर बिछी थी। बहुत सी औरतें अलग-अलग गुटों में बात करने में मशग़ूल थी। लता भी एक तरफ़ बैठ गई। किसी ने जैसे ही उसे देखा तो सबको इशारा किया और रुलाई का स्वाँग भरना शुरू हो गया। एक के बाद एक भाभी, चाची, रिश्तेदार उससे चिपकने लगे, गले लगा उसे पुचकारने लगे। कमरे में एकदम शान्ति छा गई। सभी घूँघट में हिचकियाँ लेने लगीं। दिलासा के शब्दों के बाद माँजी के गुणों, कष्टों का विस्तार से बखान हुआ। इस मातमी रस्म अदायगी के बाद बातों का दौर शुरू हुआ। बड़की बहू ने कहा दो महीने से बड़े कष्ट में थी। बिस्तर से उठना ही नहीं चाहती थी। हम तो कह-कह कर थक गए। छोटी ने कहा व्हीलचेयर थी, पर बैठना ही नहीं चाहती थी। कई जगह घाव हो गया था। बहुत दवा की पर ठीक ही नहीं हुआ। मँझली बहू फुसफुसाते हुए कह रही थी, “सड़ सड़ कर मरीं।” फिर सब घूँघट निकाल कर हू, हू कर रोने की आवाज़ निकालने लगीं। मँझली बहू ने धीरे से समझाया, “बाहर वालों, समधियाने के लोगों के सामने दिखावा तो करना ही पड़ता है”। लता की दशा चोरी पकड़े जाने वाले जैसी हो गई। उसने सिर हिला कर हाँ में हाँ मिला ही दी। वह वहाँ से कोई बहाना बना कर भाग जाने को तड़पने लगी।
मरने वाले के प्रति संबंधों की प्रति कड़वाहट की तिक्तता सर्वत्र व्याप्त थी। चटक फिरोजी रंग की साड़ी पहने माँग में सिंदूर लगाए, माथे पर लाल टिकुली लगाई हुई स्त्री ने मुँह बिचकाया और पूछा कि “दाह संस्कार का ख़र्च कौन कर रहा है?” मँझली के चेहरे पर कई भाव एक पल में आए और गए, वह झट से बोली, “कौन करेगा? सब की माँजी थीं सब कर रहे हैं। ससुर जी बड़े चतुर थे, एक बार मैसूर गए थे, असली चंदन की लकड़ी लाए थे, एक उनके दाह संस्कार में लग गई, दूसरी माँजी के लिए रखी थी, असली चंदन से चिता जलाई।”
“अरी! दुकान में जो पैसा रुपया था, किसको मिलेगा?”
छोटी ने तपाक से कहा कि “हमें तो माँजी फूटी कौड़ी भी नहीं दे गईं। सब बीमारी में स्वाहा हो गया।”
पूछने वाली बुआ की बेटी बड़ी जबर थी, फिर भी पूछने लगी कि “सारा रुपया तो दाह संस्कार में ना लग जाएगा, तीन-चार लाख तो कम से कम था ही।”
छोटी की बेटी, (पोती) बोली, “मेरी दादीजी पैसे वाली थीं तभी तो दो-दो नौकर, दो साल से लगे थे। कोई लगा तो ले, अब बचा क्या? सब नौकरों की तनखा में चला गया।”
अशर्फी देवी ने बहुओं को कैसे-कैसे सताया, कभी उनका कुछ नहीं किया, न कुछ दिया! जैसी करनी वैसी भरनी आदि-आदि बातों का मर्सिया पढ़ा जाने लगा था। बच्चे भी रस लेकर सुन रहे थे। शोकाकुल परिवार अशर्फी देवी की मौत का जश्न मना रहा था। प्रतिशोध, प्रतिकार, बदले के बाण तरकश से निकल रहे थे। कोई भी अवसर चूकना नहीं चाहता था। मुँह पर लगे ताले शायद एक बार सब के खुल गए। बे-रोक-टोक बिना किसी प्रतिवाद के मन की टीस मिटाई जा रही थी। लता ने कुछ कहना अनुचित समझा। इसलिए चुप रहने में ही भलाई समझी। फिर सब से से विदा लेकर उठ खड़ी हुई।
कमरे से गली पार करके बाहर बराण्डे में पहुँची ही थी कि मँझले बेटे ने कहा, “बस, जल्दी? ऐसी भी क्या जल्दी है,” कुर्सी खींचकर बोले, “कुछ देर और बैठ।”
वह कुर्सी पर बैठ गई। वह कहने लगे कि वह अंतिम समय में उनकी सेवा नहीं कर सका। अचानक व्यापार के काम से जाना पड़ा। शायद मेरे जाने की बाट देख रही थी। इधर में गया उधर वह अंतिम यात्रा पर चली गईं। इधर-उधर की बातों की बात में बोले कि माँजी के हाथ में एक अँगूठी और गले में माला तथा हाथ में चूड़ी थी। अब उसको कैसे बाँटते? कुछ रुक कर बोले “तेरहवीं बरसी एक साथ है, ज़रूर आना। उनकी चीज़ों में सारा ख़र्च निकल आएगा। संस्कार से बरसी तक।” यह शब्द लता के कानों में पिघले शीशे से गिरे। बेसुधी में उसका हाथ अपनी बेंटेकस की चूड़ी व चेन पर चला गया।
अभी वह इस हादसे उबर भी न पाई थी कि कुर्सी के पीछे से एक बाण चला, “अगर ऐसा न करते तो माँजी की वसीयत का एक मुश्त पैसा कैसे हाथ लगता? ऐसा लगता लालाजी दाह संस्कार उसी से करने को लिख गए थे।” दोनों पक्षों में वाक युद्ध शुरू हो गया। तभी बड़ी भाभी ने आ कर कहा, “बीबी खाना लग गया है। आज का खाना हमारे घर से आया है चलो खा लो प्रसाद होता है।” लता मना न कर सकी और खाना खाने की मेज़ की तरफ़ चली।
वहाँ पहले से बहुत से परिवार के सदस्य प्रसाद ग्रहण कर रहे थे। खाने का पोस्टमार्टम ज़ोर-शोर से चल रहा था। “सब्ज़ी में नमक मिर्च ही डालना भूल गये हैं, पनीर कितना कड़ा है, दही एक दम खट्टी है, कचौड़ी तो देखो दाँत वाले भी न चबा सकें . . .” लता को उनकी बात सुन कर उबकाई सी आने लगी। नज़र बचा कर वह, ज़िन्दा लाश-सी चिता से उठकर कर सड़क पर आ गई, इसका भान उसे तब हुआ, जब उसे रिक्शेवाले ने हड़बड़ा कर कहा, “बहन जी ज़रा बच के, रिक्शा चाहिए? कहाँ जाना है?”
2 टिप्पणियाँ
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धन्यवाद पीयूष जी उषा बंसल
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बहुत सुंदर कहानी। बिलकुल हो सच्चाई के क़रीब। शट जगहों पर यह होता देखा है मैंने। शोकाकुल परिवार जश्न माना रहा है। प्रसाद में कमी निकाल रहा है। सबके सुर कितनी जल्दी बदल जाते हैं और कैसे लोग और ज़िंदगी आगे की तरफ़ बढ़ जाती है। कैसे बच्चे अपने माँ बाप का किया हर काम भूल जाते है। बस यही तो जीवन चक्र है। आभार।
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