घर का सुकून
डॉ. उषा रानी बंसल
हमारी बिटिया २फ़रवरी २२ को देहली आई। उसकी मौसेरी बहिन की बिटिया का विवाह था। २० साल पहले अपने भाई की शादी में बनारस आई थी। तब से वह भारत में अपने परिवार में होने वाली किसी भी शादी में सम्मिलित नहीं हो सकी थी। इस बीच शादी की रौनक़ व धूमधाम बहुत बढ़ गई है, वह किसी अपने की शादी में शरीक हो कर अपने परिवार से मिलना चाहती थी। इसीलिये वह अपनी बहिन की बेटी की शादी में देहली आई। शादी की धूमधाम गहमा-गहमी में अपने भाँजे-भाँजी, मौसेरे भाई-बहनों से मिलते बतियाते कब 3 दिन निकल गये पता ही नहीं चला।
उसका अपने घर, बनारस जाने का बहुत मन था। एक तो बनारस बचपन से जीवन में रचा बसा था दूसरे अपने घर में अपनी मधुर यादों को एक बार पुनः जीने लालसा! समय बहुत कम था। इसीलिये केवल 3-4 दिन ही बनारस रह सकी। वह बीएचयू, स्कूल मन्दिर, गंगा सब को छूना देखना महसूस करना चाहती थी!
इस तरह वह 7 साल बाद 3-4 दिन के लिये अमेरिका से बनारस आई। घर आ कर उसे बहुत सुख चैन मिला।
वह क़रीब 28 साल से वह अमेरिका में है। इस बीच बनारस भी चार पाँच बार आई है। अमेरिका में इतने वर्ष रहने पर भी उसने वहाँ हाउस ही बनाये पर कोई घर नहीं।
यूँँ तो उसने जॉब बदलते कई स्टेटस में हाउस ख़रीदे व बेचे पर उसमें किसी से भी शायद घर-का-सा जुड़ाव नहीं हो सका। घर भी जॉब की तरह बदल गये।
वहाँ जब अपने हाउस के मास्टर बेडरूम में सोने जाती है तो कोई उसे डिस्टर्ब नहीं करता, नहीं तो उसे फिर नींद नहीं आती। उसके बच्चे शोर शराबा भी नहीं करते।
इस बार जब बनारस आई तो जैसे घोड़े बेच कर सोई। वहाँ उसका कमरा निजी अलग है। यहाँ उसे अपनी मम्मी के साथ सोना पड़ा। उसने कहा कि सुबह उठने पर कहा कि—मम्मी कितनी बार दरवाज़ा खोल कर आई-गई, इस आहट के बाद भी वह सोती रही। भोर में 3 बजे से कोयल कुह कुह का गीत गाती रही, और वह सुन कर भी सोती रही। चिड़ियों ने पौ फटते ही आम के पेड़ पर चहचहाना शुरू कर दिया पर उनकी चूँ- चपड़ में भी सोती रही।
सबसे मज़ेदार बात बनारस में कूड़ा उठाने वाली गाड़ी में लाउडस्पीकर पूरे ज़ोर से बजता है, “कच्चा पापड़ पक्का पापड़ ये नये समय की बात है . . . ” वह यह सुनती हुई भी चैन से बेफ़िक्री से सोती रही। ये सब उसने कहा।
मुझे लगता है घर से आत्मीय लगाव में यादों का अंतहीन लश्कर घर के हर कोने, हर दरो-दीवार, हवा, वातावरण में पसरा रहता है। आप जब वहाँ आते हैं तो वह आपकी प्रतीक्षा करता-सा आपसे लिपट जाता है, आपको अपने आग़ोश में ले लेता है। आप अनायास ही गुनगुनाने लगते हैं कि, “पत्ता पत्ता यहाँ राजदां है मेरा, ज़र्रे ज़र्रे पे रख दी है मैंने ज़ुबाँ, ये सारे नज़ारे मुझे जानते हैं . . .”
मेरा बचपन, स्कूल, कॉलेज, सहेलियों की ठिठोली यहाँ सहेज कर रखीं हैं। ये घर नहीं मेरा अपना है, जिसने मेरा अपनापन, दुख–सुख को इस चार दीवारी में सँजो कर रखा है। मुझे हँसते देख हँसता-सा लगता है, दुखी होने पर अवसाद से घिर जाता है। यहाँ मैं, मेरा वुजूद सुरक्षित।
शायद इस अहसास का नाम ही घर है!
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