जन्मदिन
डॉ. उषा रानी बंसलयह कहानी अवकाश प्राप्त बुज़ुर्ग महिला के एकाकी जीवन की है।
25 दिसम्बर का दिन दीदी जी के लिये ज़िन्दगी में ख़ास अहमियत रखता था। इस दिन इस संसार में उनका आगमन हुआ था। 25 दिसंबर दीदी जी के लिए एक महोत्सव से भी बड़ा था। हफ़्ते भर पहले उसकी तैयारियाँ प्रारंभ हो जाती थीं। बंद खिड़कियों को खोलकर झाड़ा जाता था। खिड़कियों में लगे काँच की साबुन से धुलाई पुछाई हो जाती थी। ड्राइंग रूम की शो विंडो में रखे सामान की धूल दीदी जी अपनी कड़ी निगरानी में साफ़ करवाती थीं। शो विंडो में सजा समान मात्र वस्तुएँ नहीं था वरन् दीदी जी की ज़िंदगी के महत्त्वपूर्ण क्षण थे। उनकी स्मृतियों के स्मारक थे। जिसे उन्होंने नन्हे-मुन्नों से भी ज़्यादा अछवाई (अनछुआ) रखा हुआ था। बड़ी नाज़ुक क्षणों की यादें सँजोए थे, ये उपहार अपने में एक उपन्यास थे।
दीदी जी अक़्सर फ़ुरसत के क्षणों में उन्हें अपलक निहारती थीं। निहारते हुए कभी भाव विह्वल हो जाती थीं, तो कभी भावुक हो जातीं। कई बार उनकी पलकें भीग जाती थीं। कभी मृदुल हास उनके होठों पर बिखर जाता है व चेहरा खिल-सा जाता था। दीदी जी की ज़िंदगी के क्षणों का हिसाब शायद यह शो विंडो सहेज रही थी। इसलिए इस विंडो की सफ़ाई में पूरा एक दिन लगता था। कभी-कभी किसी चीज़ को साफ़ करवाते-करवाते रोक देतीं और वस्तु, फ़ोटो, उपहार, शील्ड आदि को अपने हाथ में रख विचारों में जाने कहाँ खो जाती थीं।
जब उनकी तंद्रा भंग होती तो झल्लाकर कहतीं, “उफ़ तुम अभी तक यहीं खड़ी हो, मेरा मुँह ताक रही हो, ऐसे तो हो गयी सफ़ाई। तुम जाने कब समझोगी।”
पर्शियन ग़लीचे को पिछले 30 साल में, पहले वर्ष में चार बार, फिर 2 बार, और अब एक बार उठा कर झाड़ा जाता था। महरून रंग के ग़लीचे पर उभरे सफ़ेद, पीले गुलाब धूल हट जाने पर फागुनों फुहार में नहाये से खिल पड़ते थे।
खाने की मेज़ पर ला आपेला की क्रॉकरी क़रीने से सजाई जाती थी। अँग्रेज़ों के ज़माने में देहरादून के कॉन्वेंट में पढ़ी दीदी जी अंग्रेज़ी तौर तरीक़े से रहती थीं। ला आपेला की प्लेटें उनकी बुआ की लड़की की बहू ने, जब वे पेरिस गई थीं, तो उपहार में दी थीं। प्लेट निकलवाते और रखवाते समय वे इसका उल्लेख करना कभी नहीं भूलती थीं। डिज़ाइनदार सिल्वर प्लेटिड कटलरी उनके ताऊ के लड़के ने जो जलसेना में कैप्टन था, जाने कब कोरिया गया था, वहाँ से अपनी प्यारी बुआ के लिए भेजी थी। नैपकिन—उनके ममेरे भाई ने दो साल पहले अमेरिका से भेजे थे। टेबल मैट्स उनकी बहन की लड़की ने, जो बारह साल की थी, पार्ट-टाइम काम के डॉलरों से ख़रीद कर, बड़े प्यार से उपहार में, अपनी नानी को दिए थे। हाथ पोंछने का पर्शियन तौलिया उनकी बहन की लड़की के ससुर जब डिप्लोमैटिक मिशन पर ईरान गये थे, तो वहाँ से ही उनके लिए ले कर आये थे। उस तौलिए को प्यार से सहलाते हुए, वाशबेसिन के पास टाँगने के लिए उन्होंने निकाला था।
बड़े उत्साह व रुचि से दीदी जी जन्म दिन के आयोजन की तैयारी करवाती थीं। इस बार भी उतनी ही लगन वह रुचि से एक हफ़्ते से दीदी जी व्यस्त थीं। खाने में केक, कटलेट, पकौड़ी, समोसा, केला, पपीता, रसगुल्ला आदि की व्यवस्था की गई थी। इस बार व्यस्तता के कारण वो ख़ुद केक नहीं बना पाई थीं। जिसका उन्हें बहुत अफ़सोस था। बड़े जोश से वह कहती थीं कि ‘मेरा जन्मदिन केवल जन्मदिन ही नहीं है वरन् एक उत्सव है ‘। दीदी जी बताने लगीं कि जब छोटी थी तो पूरा दिन चचेरे, ममेरे, भाई-बहन, ताई, ताऊ, चाची-चाचा, सगे संबंधियों में हलवा पूड़ी बाँटते, खिलाते, खाते फुर्र हो जाता था। रात तक बधाइयों का ताँता सा लगा रहता था। जब से नौकरी करने लगी, जन्मदिन इष्ट मित्रों, सहयोगियों आदि के साथ मनाने लगी। जब नौकरी के उच्चतम शिखर पर पहुँच गयी, तो जन्मदिन एक वार्षिक आयोजन हो गया। इस दिन के लिए विशेष तैयारी की जाती थी। विशिष्ट मेहमानों को निमंत्रित किया जाता था। यूँ तो सब ही मिलने वाले आमंत्रित रहते थे, पर उनकी स्थिति लड़की वालों जैसी होती थी। दीदी जी को बधाई देने वालों का ताँता लगा रहता था। अपनी झुर्रियों में कुछ गर्व, कुछ लज्जा से शर्माते-मुस्काते दीदी जी बताने लगीं कि लोग उनसे एक मिनट बात करने के लिये बेचैन रहते थे। आगंतुक उत्सुकता से उनसे मिलने के अवसर की प्रतीक्षा करते रहते थे। उन्हें, तब प्रशंसा के पलक पाँवड़ों पर तैरते हुए आसमान में उड़ने वाली अप्सरा जैसा एहसास होता था। उनके घर, साज-सज्जा, बग़ीचे, लिबास, एटिकेट, सौंदर्य व सलीक़े पर सब वारी-वारी जाते थे। कितनी ही ऐसी यादें एक चीज़ को ठीक करते या बताते, सामान लगवाते हुए हैं, उनकी आँखों में चलचित्र सी घूमती रहती थीं। इस दिन वह शायद पूरी ज़िंदगी एक साथ जीती थीं।
इस बार भी 25 दिसम्बर के दिन दीदी जी प्रति वर्ष की तरह प्रात: उठीं, उन्होंने वराण्डे में, सामने के बग़ीचे के फूलों को निहारते हुए, या यूँ कहें उनके साथ चाय पी। उनके नयनों में अतीत के चित्र घूम रहे थे। चेहरे की झुर्रियों में मन के भाव गंगा की लहरों-से लहरा रहे थे। नहा धो कर उन्होंने पूजा अर्चना की। नाश्ता करके आराम करने चली गईं। दोपहर में एक बार पुनः सब तैयारी पर निगाह डाली। 4 बजे शाम को ज़री का सूट पहना, जो उनके बड़े भाई ने 75वें जन्मदिन पर विशेष रूप से बनवा कर भेजा था। बालों को काढ़ कर जूड़ा बनवाया, और एक फूल उस जूड़े में टाँका। परफ़्यूम का फ़व्वारा शरीर पर किया और आदमक़द आईने में ख़ुद को दायें–बायें, आगे–पीछे निहारा। स्वेटर ठीक कर दुपट्टा ओढ़ा। मैचिंग चूड़ियाँ, गले में माला, कान में टॉप्स, घड़ी, जूते पहने। घड़ी ने भी उनका साथ देते हुए 5 का घंटा बजाया। ड्राइंगरूम का एक बार मुआयना किया, निश्चिंत होकर चाय पी और कुछ नाश्ता किया। फिर महोगनी लकड़ी की बनी विशेष कुर्सी पर आगंतुकों का स्वागत करने के लिये बैठ गईं।
हर आहट पर वह चौंक पड़ती थीं। उनके कान खड़े हो जाते थे। उन्हें लगता कि उनका बेटा आया होगा, कभी लगता पोता आया होगा। फिर अपने ही विचारों में डूब जातीं कि अबकी बार आ कर मुबारकबाद देगा तो उलाहना दूँगी, की इतने दिन कहाँ था? दो लाइनें भी न लिख भेजीं। तभी कहीं खट हुई, दीदी जी सँभल कर बैठ गईं कि शायद जनरल मैथ्यूज़ होंगे! कभी कैसे दीवाने थे उनके! 7 बजे दीदी जी ने आया को आवाज़ दी, “ज़रा फ़ोन तो करो, मेरी। बहू, बहू के भतीजे आने वाले थे, कब तक आयेंगे? तबियत न ख़राब हो गई हो, या भतीजा ही न लौट पाया हो, बनारस में जाम भी तो बहुत लगता है, कि आदमी समय से घाट (शमशान) भी न पहुँच पाये। उनसे कहो कि जल्दी आ जायें मैं थकने लगी हूँ।”
आया ने धीरे से कहा, “जी अच्छा।”
आया उसका पति व बच्चे इस बार जन्मदिन के एकमात्र मेहमान थे। वह जानते थे कि दीदी जी जब से सेवानिवृत्त हुईं हैं, जन्मदिन पर आने वालों की संख्या निरंतर घटती जा रही है। पिछले 2-3 साल तो कुछ पड़ोसी आ जाते थे, कुछ रौनक़ हो जाती थी। पर इस बार कोई भी नहीं आया। परन्तु दीदी जी ने पूरे जोश-ख़रोश से पूरे सप्ताह तैयारी की थी।
उनका एक दूर का रिश्तेदार कॉलोनी में रहता था, दीदी जी ने आधी रात तक उसके व उसके बच्चों के आने की प्रतीक्षा की, परन्तु जब वह नहीं आया तो अंत में आया के परिवार के साथ केक काट कर जन्मदिन मनाया। बच्चों ने टूटे-फूटे शब्दों में ‘हैप्पी बर्थडे दीदी’, ‘लॉन लाइफ़ दीदी‘ कह कर ताली बजाई। दीदी जी ने थोड़ा सा पकवान निगल कर नींद की गोली खाई। दीदी जी ने आया को सब सामान ठीक से उठाकर रखने की हिदायत दी। अगले दिन सुबह-सुबह सब सामान टिफ़िन में लगा कर उनके भतीजे और पड़ौसियों के यहाँ पहुँचाने का निर्देश दे कर वह शयनकक्ष में चली गईं।
आज इसे टाइप करते सोच रही हूँ कि काश तब फ़ेसबुक या इंस्टाग्राम होता तो ढेर से बधाई संदेश, फ़ेसबुक सूचित कर-कर के लिखवा लेता। उनका वह एकाकी जन्मदिन इन संदेशों की चटक चाँदनी से गुलज़ार हो जाता!
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