लुका छिपी पक्षियों के साथ
डॉ. उषा रानी बंसलआज हल्की ठंडी हवा चल रही है
धूप भी बहुत तेज़ है ,
सर्दी फिर भी काफ़ी है ,
बाहर बग़ीचे में
धूप-छांह में बैठना मनभावन है।
सुनो मैं पकड़मपकड़ाई ,
चोर सिपाही / लुका छिपी खेल रही हूँ ,
तुम कर हँसना मत -
कि बचपन अभी भी नहीं गया।
एक तरफ़ पक्षी हैं,
जो कभी इस डाल कभी उस डाल,
कभी पत्तों में -
कभी फुनगी में छुप जाते हैं,
मेरी नज़रें उन्हें खोजती हैं
कभी खंजन पकड़ा जाता है
तो कभी गौरैया. . .
कभी पीली चोंच वाली भूरी चिड़िया,
जो इस फुनगी से दूसरी में छिपती
चूँ चूं चीं चीं कर कहती है -
मुझे खोजो तो जानूँ?
तभी सेब से लदे पेड़ पर सेब चखने ,
दो चार बचे नाशपाती का स्वाद सँजोने,
या ज़मीन पर कीड़े, गिरे फल खाने ,
कोई चिड़िया इधर उधर देखती,
डरती डरती सी,
नज़र बचा कर आ जाती है।
पर दूसरे पल
मुझसे आँख मिलते ही
जाने कहाँ उड़ जाती है।
बड़ा रोमाचंक है
यह लुकाछिपी का खेल ।
है न -
न कोई हारता है
न कोई जीतता है
खेल चलता रहता है ।