सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में

15-10-2022

सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 215, अक्टूबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

नोट:

यह शोधपत्र UP History Congress में प्रस्तुत किया गया था। यह लेख मुख्यतः 1583-1619 के मध्य भारत में आये यूरोपीय यात्रियों के लेखों पर आधारित है। वह सभी यूरोप के निवासी थे। उस समय की इंग्लिश आज की भाषा से भिन्न थी। In preface of the book it is written, “In reprinting the various narratives, the old spelling has been retained, except that the use of u for v, of v for u, and of i for j has not been followed; while as regards punctuation and the employment of capital letters modern practice has also been observed. In the spelling of Oriental names, both of persons and of places, the Imperial Gazetteer of India has been mostly adopted as a guide; but vowels occurring at the end of a word have not been mai'ked as long, though they should be understood to be so” Preface pages 11_12.

 

अतः 1975 में प्रकाशित पुस्तक ‘अर्ली ट्रैवल्स इन इंडिया 1583-1619, (Early Travels in India 1583-1619, Book published in 1975) से सभी संदर्भ लिये गये हैं। इसमें जिन यात्रियों के विवरण दिये हैं उनके नाम हैं: जॉन मिल्डनहाल एक इंग्लिश व्यक्ति, विलियम फ़िच इंग्लैंड से, विलियम हॉकिन्स इंग्लैंड से, निकलस विदिंग्टन, टॉमस कोर्यट, एडवर्ड टेरी (John Mildenhall an English man, William Fitch From England, William Hawkins from England, Nicholas Withington, Thomas Coryat, Edward Terry) हैं। इसके अतिरिक्त सर फ़ॉस्टर विलियम की ‘अर्ली ट्रैवल्स इन इंडिया’ (Sir Foster William, Early Travels in India) से भी सहायता ली गई है।

सत्रहवीं सदी में भारत का समाज विभिन्न धर्मों जातियों भाषा-भाषी का समूह था। विदेशी यात्रियों को भारत में हिन्दू मुसलमानों के अतिरिक्त पारसी, तातर, अबेसिनियन, आर्मेनियन, डच, पुर्तगाली ईसाई आदि मिले। भारत के मूल निवासी मूर्तिपूजक थे। जिन्हें यूरोपीय यात्रियों ने सज्जन लिखा था। डॉक्टर जान फ्रेयर ने मुसलीपट्टम की जनसंख्या को मुख्यतः हिन्दू तथा मुसलमानों का मिश्रण बताया था। वहाँ डच, पुर्तगाली तथा फ़्रांसीसी भी रहते थे। डाक ले जाने का कार्य मुख्यतः आर्मेनीयन करते थे। आर्मेनियन मुसलीपट्टम में ही निवास करते थे। यूरोप के लोग मुख्यतः व्यापारी थे, जो समुद्र तटों पर स्थित नगरों एवं गढ़ों में रहते थे। भारत के निवासियों की यूरोप के लोगों से तुलना करते हुए लिखा है कि भारतीय श्याम तथा जैतून वर्ण के थे, उनके बाल काले सीधे होते थे। घुँघराले बाल बहुत कम लोगों के होते थे। उनकी क़द-काठी युरोपियों की तरह थी लेकिन वो युरोपियों की तुलना में अधिक सीधे खड़े होते थे। भारतीयों में श्वेत वर्ण पसंद नहीं किया जाता था। उनका विश्वास था कि सफ़ेद रंग कोढ़ियों या चर्म रोगियों का होता था। मुसलमान अपनी दाढ़ी साफ़ रखते थे परन्तु अपनी मूँछें बढ़ाये रखते थे। मूँछों की कटाई विभिन्न प्रकार की थी। मुल्ला दाढ़ी रखते थे। मुसलमानों में यह विश्वास प्रचलित था कि सिर के बाल पकड़कर ही पैगंबर उन्हें क़यामत के दिन स्वर्ग में खींचेगा। अत: मुसलमान टोपी की तरह सिर पर बालों का गुच्छा रखते थे। मुसलीपट्टम के नाविकों में इस प्रकार का केश विन्यास प्रचलित था। फ्रेयर ने लिखा था, (“their hair was long black but well shaven of accepting one lock which was kept twisted to enable their prophet Parumal to haul them into Heaven.”)

हिन्दू प्राय: दाढ़ी नहीं रखते थे। राल्फ फिच ने अर्ली ट्रेवल्स इन इन्डिया में लिखा है, (राल्फ फ़िच इंडिया और दक्षिणी पूर्वी एशिया में यात्रा करने वाला पहला व्यापारी था। Ralph Fitch was the first merchant to to travel through India and South East Asia)

“कुछ को छोड़ कर अधिकतर पुरुष (हिन्दू) अपने चेहरे शेव करते हैं . . . सारे बाल मुँडा कर एक चोटी रखते हैं।” [“The men (Hindus) for the most part have their faces shaven... except some, which be all shaven save the crown (चोटी रखते थे)।] हिन्दू और मुसलमान नाई केश-कर्तन कला व केश-विन्यास में दक्ष थे। मूँछ व दाढ़ी के विभिन्न स्टाइल भारत में प्रचलित थे।

विवाह:

विवाह की उम्र में हिंदुओं में छह या सात वर्ष मानी जाती थी। लेकिन परस्पर पर सहवास 12 वर्ष की उम्र से पहले नहीं होता था। भारत में बाल विवाह प्रचलित होने के कारणों पर राल्फ फिच तथा निकोलस विदिंगटन ने पर्याप्त प्रकाश डाला है, निकोलस ने लिखा है कि (ये अपने बच्चों का बचपन में इसलिए विवाह करते थे, जिससे उन को पत्नी तथा पालन करने वाला, पालक मिल जाए। दुर्भाग्य से ही यदि किसी एक के पिता का देहांत हो जाए तो श्वसुर उनकी देखभाल कर सकें।)  राल्फ़ फिच ने बाल विवाह की प्रथा के बारे में बताया, “उनका कहना है, वह अपने इतने छोटे बच्चों का विवाह इसलिए कर देते हैं, क्योंकि प्रथा है कि पति की मृत्यु होती है तो उसके साथ पत्नी का जलना अनिवार्य है। इसलिए अगर पिता कि मृत्यु हो जाती है, तब भी ससुर बच्चों को पालने में सहायक हो सकता है और उनका विवाह कर सकता है। वह अपने बेटों को पत्नियों के बिना और बेटियों को पति के बिना नहीं छोड़ सकते।” (“They say, they marry their children so young, because it is an order that when the man dieth, the women must be burn with him, so the father die, yet they may have a father-in-law to help to bring up the children which bee married and also they will not leave their sons without wives or their daughters without husband.”)

इससे तत्कालीन सामाजिक दशा का पता चलता है कि भारत में आक्रांताओं के निरंतर आक्रमण व युद्धों के कारण सामाजिक असुरक्षा बहुत भयावह थी। युद्ध के वातावरण ने ऐसी प्रथा को प्रचालित करना पड़ा होगा। यही नहीं स्त्रियों की सुरक्षा का प्रश्न बहुत गंभीर था। मालाबार तट पर रहने वाले डच, पुर्तगाली, ईसाई आदि हिन्दू व मुस्लिम लड़कियों से जबरन विवाह कर लेते थे। या शादी के लिये ख़रीद लेते थे। लेकिन ऐसी स्त्रियों को ईसाई मत स्वीकार करना पड़ता था।

यही काम मुस्लिम आक्रांताओं ने भी किया। वह सब सैनिक थे, लड़ाके थे, भारत आने पर ज़बरदस्ती स्त्रियों, लड़कियों को उठा कर ले जाते थे। उन से निकाह कर इस्लाम क़ुबूल करवाते थे। लड़कों को दास बना लेते थे। शायद  यही कारण बाल विवाह और सती प्रथा शुरू होने का यह भी रहा होगा। याद दिलाना आवश्यक है कि चितौड़गढ़ के क़िले में रानियों का सामूहिक जौहर इसी आत्मसम्मान की रक्षा करने के कारण हुआ होगा। जौहर राजपूत तथा हिन्दू राजाओं के आक्रमणकारियों से देश की रक्षा के युद्धों के बाद एक काल विशेष में बहुतायत में दिखाई देते हैं।

नैतिक स्तर:

सत्रहवीं सदी में भारत के निवासियों का नैतिक स्तर बहुत ऊँचा था। वे स्वामिभक्त व कर्तव्य के प्रति निष्ठावान थे।

“मैं  महात्माओं और भद्रजनों की विश्वसनीय सेवाओं के लिए प्रशंसा करता हूँ, जिनके बीच एक अजनबी काफ़ी धनराशि और सामान के साथ ग्रामीण क्षेत्र में यात्रा कर सकता है और उन्हें अपनी सुरक्षा के लिए साथ ले जा  सकता है। वह उनकी  कभी उपेक्षा नहीं करेंगे।” (“I must needs commend the Mahametans and Gentiles for their good and faithful service; amongst whom stranger may travel alone with a great charge of money or goods quite through the country and take them for his guard yet never be neglected or by them.”)

सुरक्षा के लिए यूरोपीय यात्री बलूच, पठान, राजपूत तथा बलिष्ठ व्यक्तियों को किराये पर लेते थे। जब तक निश्चित निर्धारित मूल्य का समय से भुगतान होता रहता था तब तक वे लोग सेवा में रहते थे, लेकिन यूरोपीय यात्री सेवा का निर्धारित मूल्य चुकाने में आनाकानी करते थे और सुरक्षाकर्मियों की प्रति अभद्रता तथा क्रूरता का व्यवहार भी करने से नहीं चूकते थे। एम.डी. थेवनॉट ने गुजरात से घोड़ागाड़ी से यात्रा प्रारंभ की थी। उसकी सुरक्षा सेवा में चारण जाति के लोग थे। थेवनॉट ने लिखा: “यात्री की सेवा के लिए रखे गए चारण पुरुष और नारी उसे सुरक्षित रखते थे। वह  कहते थे कि अगर कोई बलपूर्वक यात्री का अनिष्ट करना चाहेगा तो वह स्वयं को बलिदान कर देंगे।” (“Acharan men & women engaged to attend a traveler, protected him by threatening to kill themselves if any harm befall him.”)

हैमिल्टन ने लिखा है कि उसकी भारत यात्रा इसमें हिंदू मुसलमान सुरक्षाकर्मी अंग्रेज़ों की अपेक्षा अधिक कर्मठ वह विश्वसनीय थे। उसने लिखा कि (राजपूत अपने स्वामी की रक्षा स्विस अंग रक्षकों की तरह करते थे। पहाड़ों और जंगलों बीहड़ों वह डाकुओं से भरे मार्ग में सुरक्षाकर्मियों के भरोसे पर विदेशी यात्री निर्भय होकर यात्रा करते थे।)  इंग्लैंड के शासक जेम्स प्रथम से तुलना करते हुई टेरी ने लिखा था, “एक इंग्लिश व्यापारी ऐसी सुरक्षा में सूरत से लाहौर तक सोने और ज़वाहरात के ख़ज़ाने के साथ जा सकता है। जब तक पुरुषों को उनका उचित वेतन मिलता रहे, वह एक पैसे को भी नहीं छूएँगे। टेरी ने संशय प्रकट किया कि एक भारतीय व्यापारी ऐसे ही, इंग्लैंड में बिना लुटे और क़त्ल हुए, क्या यात्रा  कर सकता है।” (“An English merchant might have travelled alone under such guard from surat to Lahore with a treasure of Gold & Jewels, and so long as the men received their fair wages, not one would have touched a penny of it. Terry doubted if an Indian merchant could have done the same in England without being robbed and murdered.”)

उस समय यात्रियों के ठहरने के लिये शानदार होटल नहीं थे। उस समय मार्ग में बहुत सी सरायों, (कच्ची व पक्की) का उल्लेख मिलता हैं जिसमें यात्रियों के रहने खाना-खाने व बनाने की सुविधा रहती थी। इन सरायों में यात्रियों का जानमाल सुरक्षित रहता था। इन सरायों में केवल शाकाहारी भोजन व जल, दूध की व्यवस्था होती थी। यूरोपीय यात्रियों को इनमें ठहरने में बहुत सी असुविधाओं का अनुभव होता था। निकोलस ने लिखा है कि इन सरायों में रुकना बहुत कष्टप्रद था। इन सरायों का रख रखाव अनुदान तथा दान से होता था। ये सरायें धन सम्पन्न व्यक्तियों तथा बनियों ने बनवाई थीं। उस समय देश में असुरक्षा व चोर डाकुओं का बोलबाला था। इसलिये सुरक्षा गार्ड लेकर ही यात्री यात्रा करते थे। उनसे लुटेरों से न केवल रक्षा होती वरन्‌ रास्ते में भटकना भी नहीं पड़ता था।

यूरोपीय यात्रियों ने लिखा है कि भारत के लोग मितभाषी तथा सहनशील थे। वह किसी से भी अकारण हिंसा या अभद्रता का व्यवहार नहीं करते थे। हिन्दू व मुस्लिम दोनों ही बहुत परिश्रमी थे। खेती-बाड़ी के साथ-साथ कारीगरी, कलात्मक दस्तकारी, शिल्प, उद्योग आदि में व्यस्त रहते थे। हैमिल्टन ने लिखा है कि भारत की समृद्धि का यह मेरुदंड था। अर्थात्‌ कला व घरेलू-उद्योग, आर्थिक व्यवस्था के कृषि के साथ साथ मुख्य अंग थे। राल्फ फिंच, निकोलस विदिंगटन, टेरी आदि यात्रियों ने भारतियों के शिल्प व शिल्पकारों, उद्योगों में दक्षता के बारे में लिखा है, “उनमें बहुत अद्भुत शिल्पी हैं जो दुनिया भर में सर्वश्रेष्ठ प्रतिरूप बनाने में दक्ष हैं, वह नमूने से कोई भी नई वस्तु बना देते हैं।” (“There are amongst them most curious artificcers, who are best apes for imitation in the world, for they will make any new thing by pattern.”)

एडवर्ड टेरी, विलियम फिंच, राल्फ फिच, फ्रेयर, हैमिल्टन, टॉमस रो, आदि यात्री भारत में धन-धान्य के अतुलित भंडार देख कर आश्चर्यचकित रह गये थे। उन्होंने भारत की सब्ज़ियों, फल, मेवों, रबि व खरीफ की फ़सलों की वस्तुओं की विस्तृत जानकारी दी है। जिसमें आलू व टमाटर का नाम नहीं है। भारत में उत्पादित वस्तुएँ वहाँ के लोगों की आवश्यकता से अधिक थीं। सभी यात्रियों ने जहाँ जहाँ वह गये वहाँ उत्पन्न होने वाली वस्तुओं के बारे में विस्तार से लिखा है। उनके उगने, उगाने के तरीक़े से लेकर उपयोग के बारे में बताया है। राल्फ फिच ने मालाबार से बंगाल तक, इन्डोनेशिया, मध्य एशिया तक बहुत बड़े भाग में यात्रा की। उसने फ़सलों व वस्तुओं के बारे में विस्तृत विवरण दिया है। जैसे मिर्च पूरे भारत में उगाई जाती थी। बंगाल की मिर्च लम्बी होती थी। कोचीन में मिर्च का उत्पादन बहुतायत में होता था। उन्होंने यूरोप की वस्तुओं से तुलना करते लिखा है कि लहसुन  जैसी वस्तु, अदरक, भारत में होती थी। लहसुन शायद भारत में नहीं होता था जो यूरोप से आया होगा। लौंग, जायफल, सफ़ेद चंदन, कैम्फर (कपूर), कस्तूरी आदि बहुत अधिक मूल्यवान वस्तुओं का उत्पादन भारत में होता था। हीरे व सोने की खदानें थीं। मोती समुद्र से गोताखोर निकालते थे। पर बसरा, पर्शियन मोती सबसे बढ़िया माना जाता था। विलियम फिंच ने (tabashir) (बंशलोचन) नामक औषधि का उल्लेख किया है जिसे बाँस से निकाला जाता था। इसे बेहोश करने व दर्द कम करने, पेचिश रोकने के लिये प्रयोग किया जाता था, है। दमा, जीवाणु संक्रमण मांसपेशियों की ऐठन में इसका दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है।

सिलोन में मोती की खेती की जाती थी।

उन्होंने लिखा है, “यह विस्तृत साम्राज्य (मुगल प्रान्त) बहुत समृद्ध और उपजाऊ है, मानव के उपयोग में आने वाली आवश्यक वस्तुओं से भरपूर है। यह बिना अपने पड़ोसियों की सहायता के स्वयं का निर्वाह और उन्नति कर सकता है।” (“This wide menarche (Mugul State) is very rich and fertile, so much abounding in all necessaries for the use of man as that is able to subsist and flourish of itself, without the least help of neighbours.”)

वर्तमान समय में यह विवरण आँख खोलने वाले हैं। अँग्रेज़ी राज्य, जिसे अधिकतर इतिहासकार व भारत के अँग्रेज़-परस्त लोग नई तकनीक, औद्योगिक क्रांति, प्रजा की ख़ुशहाली, क़ानून व्यवस्था आदि उत्तम प्रशासनिक तकनीकी के गुणों की खान बताने व भारत को उन्नत बनाने में योगदान की तारीफ़ के पुल बाँधने से पहिले, को एक बार इन तथ्यों का अवलोकन भी करना चाहिये। गाँधी जी ने लिखा था कि अगर अँग्रेज़ भारत नहीं आते तो भी नया युग (औद्योगिक क्रांति व नई विचारधाराएँ) भारत में आता ही। तब उनका स्वरूप भारतीयों के हित में होता। (आज गाँधी का नाम ही इतना विवाद से घिरा है कि उनकी कही बातों को पढ़ने समझने को कोई तैयार ही नहीं है) इस ऐतिहासिक तथ्य को क़तई नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता कि अँग्रेज़ उस बड़े चक्रवात तूफ़ान की तरह थे, जिसने, जहाँ भी वह पहुँचे वहाँ के साम्राज्य, सभ्यता संस्कृति, आर्थिक, सामाजिक, व्यवस्था को तहस-नहस कर दिया। केवल कूडे़-कचरे की तरह कभी न समाप्त होने वाली फूट व विवादों, आपसी बैर-भाव, अविश्वास, असुरक्षा जैसी दुर्भावनाओं का ढेर लगा दिया। (आप को इससे सहमत होने की आवश्यकता नहीं है पर यह एक  ऐतिहासिक तथ्य है)

हैमिल्टन के यह शब्द आँख खोलने वाले हैं जब वह लिखते है कि बंगाल बहुत उपजाऊ प्रदेश था। जहाँ बहुत कम परिश्रम से बहुत अधिक उत्पादन हो जाता था। “तानाशाह शासकों के अत्याचार के बावजूद, बंगाल बहुत बड़ी जनसंख्या वाला प्रान्त था। खेतीबाड़ी करने के लिए अपेक्षाकृत कम परिश्रम करना होता था। श्रमिकों को अपनी इच्छानुसार करघों पर काम करने के लिए समय मिल जाता था।” (“In spite of despotism of the government, the province of Bengal was extremely populous, and as comparatively little labour was required for agricultural pursuits, a large numbers of labour were at leisure to work at looms.”)

जिसके परिणामस्वरूप बंगाल में पूरे मुग़ल भारत के अनुपात में तिगुना रेशम व सूत का उत्पादन होता था। बड़े दुख के साथ लिखना पड़ता है कि आने वाले अँग्रेज़ों ने सबसे पहले बंगाल प्रांत को बर्बाद किया। वहाँ अँग्रेज़ी हुकूमत में पड़ने वाले अकालों की विभीषिका ने पूरे भारत में, बीमारी, भुखमरी का नंगा नाच कर ऐसा रोंगटे खड़े करने वाला तांडव मचाया कि धन-धान्य संपन्न भारत ग़रीब हो गया। भारत के इतिहास व साहित्य का ज़रा भी ज्ञान रखने वाला कोई भी बंगाल के 1943 के अकाल को नहीं भुला सकता। जिसमें तीन लाख लोग भूख से तड़प तड़प-तडप कर मर गये। 1857 की क्रान्ति के बाद भारत पर महारानी विक्टोरिया का सीधे शासन प्रारम्भ हो जाता है। उनके शासन बनने के मात्र 86 छियासी वर्ष में धन-धान्य के प्रचुर भंडारों वाला बंगाल रोटी - रोटी को तरस कर मर गया। क्या यही भारत का आधुनिकीकरण था? विचार तो करना चाहिये।

जब कि यूरोपीय यात्रियों के विवरणों से ऐसा प्रतीत होता है कि सत्रहवीं शताब्दी का भारत न केवल आत्मनिर्भर था वरन्‌ प्रगतिशील देश था। अपने श्रम से उत्पादित वस्तुओं का निर्यात भी करता था। राल्फ फिंच ने लिखा है कि निर्यात के बदले भारत में विदेशों से चाँदी, बहुमूल्य रत्न इत्यादि प्राप्त करता था।

भोजन:

सत्रहवीं सदी के भारतीय मूलतः शाकाहारी थे। उनका खाना मुख्य रूप से दाल, चावल, गेंहू की रोटी, दूध, दही, पनीर, सब्ज़ी, दूध से बने व्यंजनों से युक्त होता था। टेरी ने लिखा है कि गेहूँ के दाने यूरोपीय गेहूँ के दानों से बड़े व अधिक सफ़ेद थे। हिन्दू भोजन के विषय में बहुत से नियमों का पालन करते थे। वह विदेशी यात्रियों को भी शाकाहारी भोजन ही कराते थे जिससे देख उन्हें बहुत कष्ट होता था। उन यात्रियों को यह देख कर बहुत हैरानी होती थी कि इतनी बड़ी संख्या में खाने योग्य पशु-पक्षियों के उपलब्ध होने पर भी हिन्दू उनको खाते नहीं थे वरन्‌ पालते थे। उनकी सेवा खाने-पीने की वस्तुएँ यूरोप की तुलना में बहुत सस्ती थी , ऐसा टेरी ने लिखा था। वह जानवरों पशु-पक्षियों की सेवा सुश्रुषा करते थे। वह न स्वयं पक्षियों को मारते थे न किसी को मारने देते थे।   “यह बताना बहुत आवश्यक नहीं है कि उनके पक्षियों और जानवरों जैसे गीज़, बत्तखों, कबूतरों, तीतरों, बटेरों, मोरों आदि को आसानी से ख़रीदा जा सकता था। मैंने एक भेड़ का अच्छा गोश्त एक शलिंग में और इसी कीमत में आठ पक्षी भी बिकते देखे...” (“It were as infinite as needless to relate particulars; to write of their geese, ducks, pigeons, partridge, quails, peacocks, and many other singular good fowl, all which are bought at easy rates as that I have seen a good mutton (i.e. a sheep) sold for the vskie of one Shilling, four couple of hennes at the same price ….”)

व्यंजनों के बनाने के अनेकों प्रकार थे। राजा, अमीर, साधारण वर्ग के व्यक्ति अपने अपने परिवार के सदस्यों के साथ एकांत में भोजन करना पसंद करते थे, वह कहते थे, भोजन-भजन एकांत में करना चाहिये।

मांस का प्रयोग मुख्यतः मुसलमान, शूद्र, हलालखोर तथा राजपूत जाति के व्यक्ति करते थे। डेलावेले ने लिखा था कि हिन्दू क्षेत्रों में भोजन (मांस) न मिलने के कारण यात्रा कष्टसाध्य थी। “केवल बड़े गाँवों में जहाँ पर मुस्लिम मुखिया होता था वहाँ भेड़ का गोश्त, पक्षी या कबूतर खरीदना संभव था,  परन्तु जिस  गाँव में केवल हिन्दू  बनिया रहते थे, तो वहाँ सिवाय आटे, सब्ज़ियों और दूध के कुछ और लेना असंभव होता था।” (“In greater villages there was generally a Mohmedan in command and it was possible to by mutton, fowls or pigeons. But when the villages were only occupied by Hindu Banias, there was nothing to be had but flour, herbs and milk meats.”) गेमली करेरी को दमन में कुछ भी खाने योग्य नहीं मिला, उसके शब्दों में: “. . . (उसे) दमन में खाने के लिए कुछ भी अच्छा नहीं मिला, सिवाय दूध और फलों के। गौ-मांस और सूअर का मांस बुरा था और भेड़ों और बकरियों को कभी-कभी ही मारा जाता था।”
(“……(he) found nothing very good to eat in Daman, except the bread and fruits. The beaf and pork were bad and sheep & goats were seldom killed.”)

यूरोपीय यात्री नेबूर ने लिखा है कि केम्बे में मुग़ल बादशाह के हुक्म से गाय या बछड़ा काटना मना था। ऐसा करने पर भारी जुर्माना देना पड़ता था, यहाँ तक कि जीवन से भी हाथ धोना पड़ सकता था। नेबूर ने लिखा है कि भारत में गाय व सूअर का मांस खाना भारतीय नियमों के तहत प्रतिबंधित था। उसके अनुसार भारतीय जलवायु में यह प्रतिबंध उचित था। यूरोपीय लोग गाय व सूअर का मांस खाने के कारण जल्दी बीमार हो जाते थे। गरमी के कारण यह मांस जल्दी ख़राब हो जाता था। (आज की तरह के फ़्रिज नहीं थे)

“यहाँ के निवासियों की उम्र लम्बी होती है, उन्हें बहुत कम बीमारियाँ लगती है... वह मांस और मदिरा से दूर रहते हैं और अपना मुख्य भोजन सूर्यास्त के बाद सायंकाल में खाते हैं।” (डेली वेले ने लिखा है, “The orientals live to a great age, and are little subject to disease… abstain from animal food and liquors and eat their principles in the evening after sundown “)

अत: कह सकते हैं कि सत्रहवीं शताब्दी में भारत के निवासियों का भोजन शाकाहारी था और वह नाना प्रकार के व्यंजनों से युक्त था। विदेशी, मुस्लिम, तातर , यूरोपीय मांस का अधिक प्रयोग करते थे। भारत के मुस्लिम व विदेशी लोग साधारणत: गाय व सूअर का मांस नहीं खाते थे ,  परन्तु यूरोपीय लोग प्रचुर मात्रा में मांस खाते थे। मदिरा व नशे की वस्तुओं जैसे ताड़ी, गाँजा, भाँग, देशी शराब का प्रयोग भारत में प्रचलित था , लेकिन इनका नशा हल्का होता था जो कम हानिकारक माना जाता था। नेबूर ने लिखा है कि यूरोपीय भारत में कड़ी शराब का प्रयोग करते थे। भारत की जलवायु का यूरोपीय लोगों के स्वास्थ्य पर इससे बुरा प्रभाव पड़ता था। मांस खाने, चुस्त कपड़े पहनने तथा अतिशय मदिरापान से वे बीमार हो कर जल्दी मर जाते थे। इस संदर्भ में यह विचारणीय तथ्य है कि युरोपियनों के आने के मात्र दो सौ साल में भारत के लोगों की औसत आयु इतनी कम हो गई कि विश्व की गणना में सबसे नीचे स्तर पर चली गई।

यूरोपीय यात्रियों ने भारत में बच्चों को गणित पढ़ाने के विशेष ढंग का उल्लेख किया है। डेला वेले तथा फ्रेयर ने लिखा है कि “हिन्दू दक्ष गणितज्ञ थे। वह कठिन से कठिन गणित के बटों (fractions) को बिना क़लम के ही हल कर लेते थे| वह लेन-देन से संबंधित गणितीय समीकरणों में चतुर थे, सभी व्यापारिक लेन-देन में वह धोखाबाज़ नहीं थे बल्कि बुद्धिमान होते थे।” (“Hindus were clever mathematicians. They deal with the nicest fractions without a pen, they are much given to traffic-driving mathematical equations, and were intelligent, if not fraudulent, in all trading transactions.”)

सत्रहवीं सदी में यूरोपीय भाषा को जानने व समझने वाले भारतीय समुद्र तट पर रहते थे। विदेशी लोगों को वह भारत के समाचार देने का काम करते थे। साथ ही साथ भारत के राजा, नवाबों व बादशाह से वार्तालाप कराने में दुभाषिये का काम करते थे। अंग्रेज़ी इतिहासकारों ने हिन्दुओं को संकीर्ण विचारों वाले कूप मण्डूक तथा अपनी भाषा व धर्म तक सीमित लिखा था। परन्तु व्यापार के प्रति सजग भारतीय अपनी मातृभाषा के अतिरिक्त पर्शियन, अरबी, अंग्रेज़ी व अन्य यूरोपीय भाषाओं का ज्ञान रखते थे। उनके इस ज्ञान से उन्हें भारत घूमने व राजाओं, व्यापारियों से मिलने में बहुत सुविधा होती थी। तभी वह भारत के विभिन्न कारीगरों से सम्पर्क बना सके। कहा जाता है कि बनारस का रोम व बेबीलोन की सभ्यता से व्यापारिक सम्बन्ध था। बिना भाषा जाने व्यापार करना टेढी खीर है। बनारस में गलियों में आपको साड़ी व अन्य चीज़ों का व्यापार करने वाले विभिन्न भारतीय तथा जिनके यहाँ जहाँ के व्यापारी अधिक आते हैं जैसे, फ्रेंच, इटैलियन, जर्मन, आदि कामचलाऊ बोलना जान जाते हैं। तभी वह भारत के कारीगरों व राजा नवाबों से लेन-देन कर पा रहे थे। (हमें इस व्यवहारिक पक्ष को भी ध्यान में रखना चाहिये)

वेशभूषा:

यूरोपीय यात्रियों ने दक्षिण भारत से उतर भारत के भ्रमण के दौरान भारत के पुरुषों को एक ही वस्त्र पहिने देखा, जो सूती कपड़े का बना होता था जिसे वह कमर से नीचे की तरफ़ बाँधते थे। (इसको हम तहमद, लुगीं, आदि नामों से जानते हैं। ) फ्रेयर ने लिखा है कि इसे लोग धोती कहते थे। टेरी ने लिखा है कि पुरुष सिर पर पगड़ी या साफ़ा बाँधते थे। राजा और अमीरों के वस्त्र सोने, चाँदी, की कढ़ाई वाले होते थे। डेला वेले ने लिखा है कि भारत में सूती, रेशमी वस्त्रों के अक्षय भंडार थे। नेबूर ने लिखा है कि इसे वह विदेश में निर्यात करते थे। यहाँ यह बात बताना महत्त्वपूर्ण है कि भारतीय कपड़ों की कमी के कारण कम वस्त्र नहीं पहनते थे वरन्‌ उन्हें उनकी आवश्यकता नहीं थी। वर्तमान में संग्रह की प्रवृत्ति में यह समझना नितांत आवश्यक है। 20 वीं सदी में गाँधी जी ने जनसाधारण के पास कपड़ों का घोर अभाव देख कर एक वस्त्र धारण करना प्रारंभ कर दिया था। पर सत्रहवीं शती में भारत के कुछ हिस्सों में एक वस्त्र पहनना भारतीय वेशभूषा की परम्परा का द्योतक था। स्त्रियाँ भी पुरुषों की तरह ही ढीले-ढाले वस्त्र पहनती थीं। रेशम या सूत से बना वस्त्र कमर से पैर तक बाँधती थीं। कमर से ऊपर का भाग प्रायः वस्त्रहीन होता था। ट्रेवरनियर ने लिखा था कि मुसलीपट्टम में मनारी जाति की महिलाएँ सफ़ेद तथा छींटदार सूती कपड़ा कमर से टखने तक बाँधती थीं लेकिन  “कमर के ऊपर की ओर वह अपनी त्वचा को फूलों की आकृति में काटती या गोदती थीं और उनमें अंगूरों के रस से विभिन्न रंग भरती थीं, ताकि वह वास्तव फूल लगें।” (“from their waists upward they cut or tatooed their skin in the form of flowers and dyed them in several colours with the juice of grapes, so they accually represented flowers.”)

अधिकांशतः स्त्रियाँ धोती या साड़ी पहनती थीं। डेला वेले ने स्त्रियों को कमर के ऊपरी अंग पर जैकटनुमा वस्त्र पहने देखा था। वह पैर में चप्पल पहनती थीं, किन्तु मौजा नहीं पहनती थी, गरमी के कारण ऐसा होगा। जबकी अमीरों के घरों की स्त्रियाँ सोने चाँदी के तारों से कढ़ी जूतियाँ पहनती थीं। अजंता की गुफा के भित्ति चित्रों से तथा श्रेणियों के शिल्पों में मोज़ा बनाने वालों का उल्लेख मिलता है। अतः (कह सकते हैं कि उन्हें मोज़ा बनाने का ज्ञान था परन्तु गरम प्रदेशों में इसे पहनने की आवश्यकता ही न थी) भारत में औरतें बहुत अधिक आभूषण पहनती थीं। ये आभूषण बहुमूल्य रत्न, धातु, सोना, चाँदी, मोती, शंख, सीप, पत्थर व बहुमूल्य पत्थरों के बने होते थे। आभूषणों में पायल, करधनी, बिछुआ, मालाएँ, बाज़ूबंद, गुलबंद, हँसुली, अँगूठी, सिर पर बाँधने वाली मणिमेखला आदि प्रमुख थे। टेरी ने लिखा है कि नारियाँ गले बाँह, कमर, टाँग पैर, नाक, सिर, में विभिन्न प्रकार के आभूषण धारण करती थीं। राल्फ फिंच ने लिखा है कि खम्बात, दमन, दियू, तथा मालाबार तट की महिलायें हाथी-दाँत से बने ढेर सारे ब्रेसलेट। कंगन पहनती थीं। वह खाने के बग़ैर रह सकती थीं पर ब्रेसलेट के बिना नहीं रह सकती थीं। बंगाल में राल्फ फिंच ने औरतों के बारे में लिखा, "स्त्रियाँ अपने गले में हंसुली और बाँहों में चाँदी के ढेर-से कड़े पहनती हैं, और उनकी टाँगें चाँदी, ताँबे और हाथी दाँत के छल्लों से घिरी रहती हैं।"( “The women wear great store of silver hoops about their neck and  arms, and their legs are ringed with silver copper, and rings made of elephant teeth.”)

मुसलीपट्टम की नारियों के आभूषणों के बारे में फ्रेयर ने लिखा था: “मुसलीपट्टम के हिन्दू स्त्रियों के प्रति अपने व्यवहार में सख़्त नहीं थे। औरतें मालाओं और बालियों, पैर की उँगलियों में गहनों से सजी खुली हवा में निकलती थीं। उनके बाल लम्बे थे और उन्हें पीछे की ओर चोटी की तरह गूँथ कर ऊपर सोने और मणियों का आभूषण पहनती थीं।” (“The Hindus at Masulipattam had no strictness. The women went abroad in-open air, adored in chains-and earrings, jewels in their toes. Their hair was long and tied up behind with a kind of cornot at the top formed of gold and jewels.”)

यूरोपीय यात्रियों को ग़रीब स्त्रियों को भी इतने आभूषण पहने देख कर बहुत आश्चर्य हुआ। लगता है स्त्रियों के आभूषणों ने विदेशी पर्यटकों को कौतूहल में डाल दिया था। औरतें आभूषण कपड़ों से अधिक पहने हुए उन्हें दिखाई दी थीं।

पुरुष भी स्त्रियों के समान ही ज़ेवर, ज़ेवरात पहनते थे। राजा, अमीर तथा सम्पन्न घर के आदमी रत्न, हीरे, जवाहरात, के आभूषण गले, हाथ पैर में पहनते थे।

स्त्रियों की स्थिति:

यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांतों से हिन्दू, मुस्लिम, मालाबार तट पर रहने वाली नारियों की दशा का की स्थिति का उल्लेख मिलता है। उन्होंने लिखा था कि मुसलमान स्त्रियों को स्वतंत्रता से घूमने-फिरने की आज्ञा नहीं थी। केवल ग़रीब और बदचलन स्त्रियाँ ही घर से बाहर जाती थीं। फ़्रेयर ने लिखा है कि साधारणः मुसलमान स्त्रियाँ बुरका पहनती थीं। पर्दे में रहती थीं। वह बहुत अधिक आभूषण पहनती थीं। लड़कियों का विवाह उनकी माँ तय करती थी। लड़कियों के विवाह की उम्र 12-13 वर्ष मानी जाती थीं... मुसलमानों में बहुविवाह प्रचलित था। बहुविवाह के बाद भी मुसलमान स्त्रियों के प्रति असहिष्णु थे। टेरी ने लिखा, “मुस्लिम बहुत अभिमानी और क्रोधी थे…  वह अपनी महिलाओं को सभी पुरुषों की नज़र से  छिपाते थे। कभी-कभी कोई महिला पालकी में बाहर जाती थी, लेकिन उसका पर्दा हटाने का प्रयास करने पर किसी भी पुरुष के लिए मृत्यु निश्चित थी” (“The Muhammadans were very grave and haughty ….. They clustered up their women from the eyes of all men. Sometimes a woman went abroad in a palquin, but it was death to any men to attempt to unveil her.”)

एडवर्ड टेरी ने लिखा कि मुसलमानों की तीन-चार बीबियाँ होने के बाद भी वे इतने ईर्ष्यालु व भोगी थे कि अपनी पत्नी को उसके भाई, पिता, या अन्य रिश्तेदार से बात करना सहन नहीं कर सकते थे। अजनबी पुरुष तो उनका मुँह भी नहीं देख सकता था। किसी महिला पर बेवफ़ा का आरोप लगने पर महिला अपना पक्ष प्रस्तुत नहीं कर सकती थी। उन्हें यह देख कर बड़ा आश्चर्य हुआ कि लड़की के भाई, पिता ही उससे अमानुषिक व्यवहार करते थे। उसे कठोर दण्ड देते थे। (मुस्लिम देशों में अभी भी हालात कुछ बेहतर नहीं है। अफ़ग़ानिस्तान में हुए औरतों पर अमानुषिक अत्याचार तो इसी दशक की बात है। एक भी आवाज़ मुस्लिम देशों से इसके विरुद्ध नहीं उठी। )

हिन्दू महिलाएँ अपेक्षाकृत अधिक स्वतंत्र थीं। वे बिना पर्दे के कहीं भी हो आ-जा सकती थीं। लड़कियों की विवाह की उम्र 6-7 साल थी। भद्रजन मुख्यतः एक ही पत्नी रखते थे। परन्तु वह मुसलमानों की तरह ईर्ष्यालु व संदेहशील नहीं थे। हिन्दुओं में सती प्रथा प्रचलित थी। ट्रेवरनियर ने ऐसी कई कहानियों का उल्लेख किया है जिसमें पति की मृत्यु के बाद उसकी पत्नी स्वेच्छा से उसके साथ जल गई। टेरी ने लिखा है कि बहुत सी युवा पत्नियाँ पति के साथ जलने में गौरव अनुभव करती थीं। इसे वह पति के प्रति प्रेम व निष्ठा का प्रतीक मानती थीं। ऐसा वह किसी दबाव के कारण नहीं वरन्‌ अपनी इच्छा से करती थीं। गेमली करेरी ने सती की घटना का आँखों देखा हाल विस्तार से लिखा था, जो कि बहुत दर्दनाक और हृदय विदारक था। डेला वेले ने लिखा था कि सूरत में सती प्रथा पर प्रतिबंध था। किसी भी महिला को सती होने से पहले सूरत के सूबेदार से आज्ञा लेनी पड़ती थी। जो साधारणतः नहीं दी जाती थी। कभी-कभी रिश्वत देकर आज्ञा प्राप्त कर ली जाती थी। राज्य कर्मचारी को यदि किसी के सती होने की सूचना मिलती थी तो वह उसे रोकने का पूरा-पूरा प्रबंध करते थे। कई बार सती होने वाली महिला को बचा लिया जाता था।

हिन्दू नारियाँ पुरुषों के साथ खेत, शिल्प, राजकाज में हाथ बटाती थीं। कर्नाटक में मातृवंशी परिवार व्यवस्था थी। नायक परिवारों में स्त्रियों को बहुपति रखने की स्वतंत्रता थी। मंगलौर की सीमा पर स्थित ओलाजा राज्य का समस्त कार्य उसकी रानी देखती थी। डेला वेले ने दुभाषिये की सहायता से रानी से भेंट की थी। उस रानी का वर्णन उसी के शब्दों में, "ओलाज़ा की रानी काली थी... वह कमर से नीचे एक सादा कपड़ा पहनती थी, लेकिन कमर से ऊपर, उसके सिर के आसपास एक कपड़े के अलावा, कुछ भी नहीं था, जो उसके स्तन और कंधों पर थोड़ा सा लटका हुआ था, वह नंगे पैर चलती थी … रानी, राजकुमारी की तुलना में एक रसोई की नौकरानी या धोबन की तरह थी, लेकिन उसकी आवाज़ सुंदर थी और वह निर्णायक महिला की तरह बोलती थी।”  (“The Queen of Olaza was as black…. She wore a plain piece of cloth from her waist downwards., but nothing at all from her waist upwards, except a cloth about her head, which hung down a little upon her breast and shoulders, she walked bare footed …. the Queen was more like a kitchenmaid or washerwoman than a Princess, but her voice was graceful and she spoke like a woman of judgement.”) डेला वेले ने जिस समय उस से भेंट की उस समय वह सिंचाई के लिये नहर खुदवाने के काम का निरीक्षण करने में व्यस्त थी। कुछ महिलाएँ घर गृहस्थी त्याग कर संन्यासी का जीवन भी व्यतीत करती थीं। यूरोपीय यात्रियों ने कर्नाटक में महिला संतों से भेंट भी की थी। समाज में उनका सम्मान था। लोग भविष्य जानने और अपनी समस्याओं को सुलझाने के लिये उनके पास जाते थे।

चिकित्सालय:

भारत के निवासी जीव-जंतुओं पर दया भाव रखते थे। विलियम फिंच ने लिखा था, कि वह चींटियों तक को भोजन देते थे। सत्रहवीं सदी में यूरोपियनों को भारत के विभिन्न भागों में जीव-जन्तु, पक्षियों के अस्पताल मिले। जो राजा, व्यापारी और बनियों के दान से चलते थे। इनमें योग्य चिक्त्सक लूले, लंगड़े, अपाहिज जानवरों की सेवा-सुश्रुषा करते थे। दवा और खाने का प्रबंध निःशुल्क किया जाता था। (अमेरिका की तरह नहीं, निःशुल्क फ़्लू के टीके उपल्बध हैं, अगर आपके पास इंश्योरेंस है तो। free flue shot availabe, if you have insurance) यूरोपीय यात्रियों ने इसका विस्तार से वर्णन किया है। उन्हें मनुष्येतर प्राणियों की चिकित्सा प्रबंध को देख कर बहुत आश्चर्य हुआ था। उन्होंने लिखा कि हिन्दू पुनर्जन्मों तथा योनियों में विश्वास करते थे इसलिए जीव-जन्तुओं की सेवा करते थे। उन्हें न तो मारते थे न ही मारने देते थे। उनका मांस भी नहीं खाते थे। जब की ईसाई दर्शन के अनुसार जीव-जन्तु, पूरी प्रकृति यीशु ने मनुष्य के उपभोग के लिये बनाई थी। उनका कोई और उपयोग व स्वतंत्र अस्तित्व नहीं हो सकता। इस दर्शन वालों का भारतीय दर्शन के प्राणिमात्र पर दया का जीवंत रूप देख कर आश्चर्यचकित होना स्वाभाविक था।

निष्कर्ष:

सत्रहवीं सदी में यूरोपीय यात्रियों ने भारत के निवासियों को कर्मठ, मेहनती तथा बुद्धिमान लिखा है। उनका नैतिक स्तर बहुत ऊँचा था। वह स्वामिभक्त तथा अपने कर्म के प्रति निष्ठावान थे। उनका स्वभाव मृदु व अहिंसक था। उनकी वेशभूषा रहन-सहन सादगी पूर्ण था। उनमें कोई बनावटीपन या दिखावा नहीं था। जब की उन्हें कपड़ों की कोई कमी नहीं थी तब भी आवश्यकतानुसार ही वस्त्र धारण करते थे। उनका भोजन मुख्यतः शाकाहारी था। खाने के लिये धान्य, फल, सब्ज़ी प्रचुर परिमाण में उपलब्ध थे। वस्तुएँ यूरोप की तुलना में सस्ती थीं। वेतन भी यूरोप की तुलना में बहुत कम था। मज़दूरों का वेतन केवल 3 रुपये प्रति माह था। लेकिन दासों की स्थिति यूरोप में दासों की तुलना में बेहतर थी। वह स्वतन्त्र थे उनका अपना समाज था। उनकी अपनी परम्परायें व मान-सम्मान था। भारत में क़रीब 30 जातियाँ रहती थीं। ( मैगस्थनीज़ ने लिखा था कि भारत में केवल ७ जातियाँ हैं )(  समय के साथ ७ जात ३० बन गई। अब तो जाने कितनी हैं? ईसाई व मुस्लिम दलित जातियाँ भी आ गईं। ) जिनमें पारस्परिक मन-मुटाव, ईर्ष्या द्वेष यदा-कदा होता रहता था। मुसलमान इस संघर्ष का लाभ उठा कर जातियों का धर्म परिवर्तन करवा देते थे। परन्तु हिन्दू जाति के लोग उसमें दख़ल नहीं देते थे। यूरोपीय यात्रियों ने लिखा है कि वह धर्म व धर्मांतरण को लेकर हिंसा पर उतारू नहीं होते थे, जैसा कि ईसाई विभिन्न मतावलंबी के यहां खूनी संघर्ष चल रहा था।

महिलाओं को समाज में पर्याप्त स्वतंत्रता थी। जीवन के सभी कार्यों में उनकी भागीदारी थी। सती पर प्रतिबंध था लेकिन फिर भी वह समाज में प्रचलित थी। इसका एक कारण विधवा स्त्री को तिरस्कृत जीवन बिताना था। वह साज-शृंगार नहीं कर सकती थी। परन्तु यूरोपीय यात्रियों ने अंग्रेज़ी भारत के इतिहासकारों द्वारा वर्णित महिलाओं की अपमानजनक व दुखद दशा का कहीं भी उल्लेख नहीं किया है। यूरोप का महिलाओं से भी तुलना नहीं की है। भारत में महिलाओं के आभूषणों से वह बहुत प्रभावित हुए थे। शायद यूरोप में महिलाएँ इतने जेवर नहीं धारण करती रही होंगी।
 

3 टिप्पणियाँ

  • मेरे मन में अपने देश के प्राचीन गौरव के बारे में जो धारणा रही है,आपके आलेख से सप्रमा उसकी पुष्टि हुई है। प्रामाणिक लेख के लिए साधुवाद एवं धन्यवाद।

  • 14 Oct, 2022 08:55 PM

    आँखें खोलने वाला लेख, हार्दिक धन्यवाद। सम्भवतः अंग्रेज और अँग्रेजी की ग़ुलामी से गौरवांवित अनुभव करने वाले कुछ लोगों के ज्ञान चक्षु खुल जाएं। भारतीय संस्कृति में मात्र बुराइयाँ देखने वालों को कुछ नया देखने को मिले।

  • बहुत हीं सुंदर शोध आलेख। नई जानकारी मिली कि भारतीयों में श्वेत वर्ण पसंद नहीं किया जाता था। उनका विश्वास था कि सफ़ेद रंग कोढ़ियों या चर्म रोगियों का होता है। दुसरी महत्वपूर्ण जानकारी कि बाल विवाह तथा सती प्रथा का कारण अज्ञानता अथवा रुढ़िवाद नहीं बल्कि विदेशियों से अपनी जाति एवं पीढ़ी की सुरक्षा का भाव था। सुरक्षित करने योग्य आलेख।

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