बेचूँगा तो लकड़ी
डॉ. उषा रानी बंसलयह बात १९५० के दशक की होगी। कंचन के मौसा जी का घर उसके घर से एक फ़र्लांग दूर था। मौसा जी के यहाँ लकड़ी की बड़ी सी टाल थी। लकड़ी काटने की आरा मशीन वग़ैरा थीं। कंचन के पिताजी नौकरी करते थे। मौसी का घर व टाल मिला कर बहुत बड़ा था। बच्चे अक़्सर मौसी के यहाँ खेलने चले जाते थे। दोनों घरों का माहौल अलग था। कंचन के यहाँ पढ़ाई पर बहुत ज़ोर था। पढ़-लिख कर अच्छी नौकरी पाना एक मात्र लक्ष्य था। मौसी के बच्चे ख़ूब मौज-मस्ती करते थे क्योंकि उन्हें तो नौकरी की कोई चिन्ता नहीं।
उस समय हाई स्कूल में फ़र्स्ट डिविज़न लाना बहुत कठिन काम था। सेकेंड क्लास में पास होना भी गौरव की बात थी। मौसी के बड़े लड़के ने दसवाँ की परीक्षा दी थी। जिस दिन परिक्षाफल घोषित हुआ कंचन मौसी के यहाँ गई। मौसी से पूछा कि सुबोधकांत का क्या रिज़ल्ट आया मौसी गर्व से बोली। बहुत होशियार है सुबी पास हो गया। मौसी से तो कुछ और पूछने की हिम्मत ही नहीं हुई। कंचन सुबोधकांत से मिलने चली गई। उसने कहा कि भय्या पास हो गये मिठाई खिलाइये। उन्होंने कहा, "हाँ, हाँ अवश्य।"
बातें होने लगी। बात करते-करते पता चला कि भाई थर्ड डिविज़न से पास हुआ है। इससे पहले कि कोई कुछ कहे, सुबोधकांत बोले, "अधिक नंबर ला कर क्या करना है? कहीं नौकरी तो करनी नहीं है। बड़े होकर ’बेचूँगा तो लकड़ी’।"
कंचन अवाक् उन्हें देखती रह गई।
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