वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र में धर्म

01-12-2022

वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में भारतीय लोकतंत्र में धर्म

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

भारतभूमि विभिन्न धर्मों की जननी है। तथाकथित हिन्दू धर्म (सनातन संस्कृति का, आने वाले विदेशियों ने हिन्दू नामकरण किया) बौद्ध, जैन, सिक्ख आदि यहीं जन्मे और इसी की आँचल की छाँह में पले बढ़े। भारत माता का पवित्र रक्त इनकी की धमनियों में प्रवाहित हुआ। भारत के बाहर जन्में धर्म जैसे—-ईसाई इस्लाम आदि ने, अपनी शैशवावस्था में भारत की ओर क़दम बढ़ाये। भारत माँ ने इनका न केवल स्वागत ही किया वरन्‌ अपने अन्न-जल से सींच कर इन्हें यौवन की देहरी तक पहुँचाया। ऐसा करते समय भारत माँ के धर्मों का आने वाले धर्मों के प्रति कोई ईर्ष्या द्वेष का भाव नहीं था। उन्होंने इन्हें ‘राहे ख़ुदा’ ईश्वर के मार्ग पर चलने वाले पंथों में से एक माना। इसी भावना से ओतप्रोत हो कर उनके विश्वासों का आदर किया, उनका सम्मान किया। उनसे समानता का व्यवहार ही नहीं किया अपनी, जननी, जन्मभूमि, अपने संसाधन, भाई बहिन भी उनकी सहायता के लिये दिये। उनके दिल और दिमाग़ सह-अस्तित्व, सद्भाव, समानता, मानवता तथा धार्मिक सार्वभौमिकता के उच्च आदर्शों से अनुप्राणित थे। 

जब तक आगंतुक (सेमेटिक) धर्म शैशव अवस्था में थे तब तक उपर्युक्त सद्भाव चलता रहा। यहीं यह बताना प्रासंगिक है कि—कन्नड/ कर्नाटक में वेंकट अप्पा नामक राजा ने अपने उन्हें राज्य में मस्जिद बनाने की आज्ञा दी थी। जमोरिन के राजा ने मालाबार तट पर मस्जिद का निर्माण कराया था। 6 अप्रैल 1784 में पहले चर्च का शिलान्यास महाराजा नावकृष्ण देव की दान में दी गई भूमि पर हुआ था। (आज कुछ लोग इतिहास जाने बिना भारतीयों की उदारता का प्रमाण माँग रहे हैं) इसी तरह के उदाहरण भारत के सद्भाव व सहिष्णुता की कहानियों में उल्लेखित हैं। लेकिन अफ़सोस जब सेमेटिक धर्म जवान हो गये तो उन्होंने अपने आश्रयदाता के कृतज्ञ होने के स्थान पर अपने ही धर्मों को ही एक मात्र धर्म होने का दावा करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने अपनी आसमानी किताब क़ुरान तथा बाईबिल को एकमात्र दैवी पुस्तक बताया। तथा पैग़म्बर मुहम्मद साहब और ईसा मसीह को अन्तिम पैग़म्बर बताया। हास्यास्पद बात तो यह है कि यूरोप में हुए पुनर्जागरण से प्रभावित होकरअपनी किताबों को तो सात तालों की तिजोरी में बंद कर दिया, और हिन्दू धर्म को तर्क और वैज्ञानिक कसौटी पर कसने लगे। उन्होंने हिन्दू धर्म की उस भावना पर उँगली उठाई जिस भावना से सनातन संस्कृति ने अपनी माँ का आँचल इन धर्मों से बाँटा था। वह हिन्दू धर्म से प्रमाण के तौर पर एक पैग़म्बर एक आसमानी किताब का नाम माँगने लगे। वेद पुराण को अलिखित बता उनको नकार दिया। (पर वह भूल गये कि क़ुरान भी केवल मौखिक उपदेश थे जिन्हें पैग़म्बर की 632 ई. में इंतकाल के बाद ख़लीफ़ा अबुबकर ने 934 ई. में क़ुरान को एक एक ग्रंथ के तौर पर इकट्ठा करने का फ़ैसला किया जिससे उसे एक किताब की शक्ल देकर संरक्षित किया जा सके। जैद बिन साबित क़ुरान को इकट्ठा करने वाले पहले व्यक्ति थे। जैद बिन साबित ने ही क़ुरान को किताब का रूप दिया ऐसा माना जाता है। बाईबिल कब लिपिबद्ध हुई बहुत से मत-मतांतरों से घिरा है। सबसे प्रमाणिक माना जाता है कि मूसा ने लगभग 1, 300 ई.पू. पाँच पुस्तकों में लिखा, जिनका अपना वैज्ञानिक व तार्किक आधार इतना विवादास्पद था वह हिन्दू धर्म को कटघरे में खड़ा कर रहे थे। यह कहावत कितनी सही है कि जिनके घर शीशे के हों वह दूसरे पर पत्थर नहीं फेंका करते। पर उन पर इसका कोई असर न था। वह सवाल उठाते रहे, ख़ुद को आवरणों में छिपाते रहे। सेमेटिक धर्म हिन्दू धर्म की समादर, सार्वभौमिकता व सहिष्णुता पर ही संदेह करने लगे। भारत में धर्मों के बीच आपसी सद्भाव समाप्त होकर श्रेष्ठता के लिये संघर्ष प्रारंभ हो गया। द्वेष का ज़हर इतनी तीव्रता से फैला कि भारत धार्मिक उन्माद में रक्तरंजित हो साम्प्रदायिक दंगों से सुलगने लगा। आपसी मन-मुटाव का चरमोत्कर्ष था कि सेमेटिक धर्म अपने पालने (cradle) मातृभूमि के टुकड़े करने पर उतारू हो गये। साम्प्रदायिकता की ज्वाला इतनी भीषण थी उसने भारत को पहले दो, फिर तीन हिस्सों में विभाजित कर दिया। 

धर्म के आधार पर भारत का विभाजन भी धार्मिक उन्माद को ठंडा न कर सका। पहचान और अस्मिता का प्रश्न ज्यों का त्यों बना रहा। इस्लाम व ईसाई धर्म मानने वालों की बड़ी संख्या भारत में रह गई। ये अपने धर्म के प्रति न केवल पहले की तरह सशंकित थे वरन्‌ अपने भविष्य को लेकर चिन्तित भी। भारत से पृथक हुए पाकिस्तान ने ख़ुद को धार्मिक राज्य (Theocracy) घोषित कर दिया। इस घोषणा ने भारत में धर्मों की स्थिति क्या होगी? जैसे प्रश्नों को महत्त्वपूर्ण बना दिया। इन आशंकाओं, आरोपों प्रत्यारोपों के मध्य स्वतंत्र भारत के संविधान को बनाने का काम प्रारंभ हुआ। भारत ने धर्मों को आश्वस्त करते हुए अपने स्वरूप को स्पष्ट किया, “जहाँ तक भारत का प्रश्न है, हम अपनी सरकार को धर्म प्रधान या साम्प्रदायिक होने की बात सोच भी नहीं सकते। हम केवल इसे एक सार्वभौमिक, असाम्प्रदायिक, गणतंत्रात्मक राज्य बनायेंगे, जिसमें प्रत्येक व्यक्ति, किसी भी धर्म या जाति का हो समान अधिकार व अवसर प्राप्त होंगे।” 

अर्थात्—

“So far as India is concerned, we have very clearly stated both as Government and otherwise that we can not think of any State which might be called secular, non-communal or democratic state, in which every individual, to whatever religion may belong, has equal rights and Opportunity.” Pt. Nehru, Press Conference at New Delhi on Oct 12, 1947. 

26 जनवरी 1950 में जब संविधान को विधिवत लागू किया गया तो संविधान के स्वरूप की व्याख्या संविधान के प्रस्तावना में इन शब्दों में की गई, “हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न गणराज्य बनाने के लिये दृढ़ संकल्प हो कर इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मअर्पित करते हैं।” 

“भारत सरकार अपने नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक न्याय, समान अवसर तथा स्थिति देने के लिये बचनबद्ध होगी। भारत अपने नागरिकों में भाईचारा, आत्मसम्मान तथा राष्ट्रीय भावों की एकता के भावों का प्रवर्तन करेगी।” 

नागरिकों के मूल अधिकारों की सुरक्षा तथा संरक्षा की गांरटी भी संविधान में दी गई है। संविधान के अनुच्छेद 26 में भारत के नागरिकों को अन्तकरण की स्वतंत्रता तथा अपने धर्म को मानने, आचरण तथा प्रचार करने की स्वतंत्रता दी गई है। धर्म शब्द की कोई परिभाषा संविधान में नहीं दी गई, परन्तु धर्म के सम्बन्ध में अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुए कहा है कि “धार्मिक स्वतंत्रता के अन्तर्गत निम्नलिखित अधिकार दिये गये हैं: (क) धार्मिक तथा पूर्वप्रयोजनों के लिये संस्थाओं की स्थापना और पोषण (ख) अपने धार्मिक कार्य सम्बन्धी विषयों का प्रबंधन करने का (ग) जंगम और स्थावर सम्पति अर्जन और स्वामित्व (घ) ऐसी सम्पत्ति का विधि अनुसार प्रशासन करने का अधिकार। उपर्युक्त अधिकार धार्मिक सम्प्रदायों को दिये गये। धार्मिक सम्प्रदायों को इस तरह परिभाषित किया गया है, “एक ऐसा समुह जो विशिष्ट नाम के अन्तर्गत संगठित होते हैं और जो सामन्यत: एक धार्मिक सम्प्रदाय या संस्था है, जिसका किसी विशेष धर्म में विश्वास होता है।” इस प्रकार मौलिक अधिकारों में धार्मिक सम्प्रदाय को परिभाषित कर धार्मिक क्रियाकलापों के नियमन का अधिकार प्रदान कर दिया। 

नोट: सम्प्रदायों की परिभाषा को ध्यान से देखने पर पता चलता है कि हिन्दू नामक कोई धर्म सांप्रदाय न होने के कारण, सेमेटिक परिभाषा में, धर्मों की परिभाषा में किसी तरह फ़िट नहीं होता। इसलिये वह सभी अधिकारों से वंचित कर दिया गया। मूल सनातन संस्कृति को उसके ही मूल से उखाड़ने का बंदोबस्त कितनी सफ़ाई से कर दिया। 

धार्मिक सम्प्रदायों का अपनी सम्पत्ति पर स्वामित्व इससे सुरक्षित हो गया। धार्मिक मामलों के प्रबंधन का अधिकार भी अक्षुण्ण हो गया। सम्पति की व्यवस्था करने के अधिकार को राज्य विधि बना कर नियन्त्रित कर सकती है, परन्तु दूसरा अधिकार मूल अधिकार है, जिसमें विधायिका कोई हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह भी कहा गया कि धार्मिक विषयों के अधीन केवल धार्मिक विश्वास ही नहीं धार्मिक आचरण भी आते हैं। धार्मिक आचरण में शास्त्रोक्त (rituals), रीतियाँ (rituals) रैत्यिक लोकाचार (ceremonies) और पूजा विधियाँ (mode of worship) जो किसी भी धर्म का अंग मानी जाती हैं, आती हैं। यदि किसी पंथ (sect) के द्वारा यह निर्धारित किया जाता है कि देवता को कि अमुक विशेष समय पर भोग लगाया जाये, लोकाचारों का विशेष प्रकार से पालन हो तो सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। पुजारी, महंत, मौलवी पादरी की योग्यता के मामले में सरकार हस्तक्षेप नहीं कर सकती। यह सभी धर्मों के आन्तरिक मामले माने जायेंगे। 

 (खण्ड 2) में संस्थाओं के प्रशासन का अधिकार दिया गया है। परन्तु ये अधिकार निरपेक्ष नहीं है। सरकार को इन्हें केवल निर्बंधित करने का अधिकार होगा। साथ ही संप्रदायों को विशेष अवसरों पर समाज के वर्गों को उत्सव में भाग लेने तथा शेष लोगों को न लेने का अधिकार होगा (खंड ग) में संप्रदायों को चल व अचल सम्पत्ति को धारण करने का अधिकार होगा। (खण्ड ग) में सम्प्रदायों को चल चल सम्पत्ति को धारण करने का अधिकार दिया गया जिसने। (खण्डघ) में ऐसी सम्पत्ति के प्रशासन का अधिकार दिया गया। राज्य ऐसी सम्पत्ति का विधि के अधीन होने पर उसका विनयमन तथा निर्बंधन संबंधित उपबंध कर सकती है, लेकिन प्रशासन का अधिकार उससे छीन कर दूसरे को नहीं दे सकती। खण्ड (ख) के अधीन सम्प्रदाय और उसके अनुभाग को धार्मिक संस्थाओं के धर्म के कार्यों के संबधी विषयों जिनमें आचरण सम्मिलित है-प्रबंध का अधिकार होगा। राज्य सार्वजनिक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य को छोड़ कर उनके उपबंध में हस्तक्षेप नहीं कर सकती।

अनुच्छेद 26 (ख) के अनुसार अगर कोई सम्प्रदाय अपने सम्प्रदाय के किसी व्यक्ति को धार्मिक आधार पर सम्पत्ति के अधिकार से बहिष्कृत करके जाति से बहिष्कृत करती है तो सरकार उसमें हस्तक्षेप नहीं कर सकती। न ही सरकार यह निर्धारित कर सकती कि आयुक्त या उसके कर्मचारी मंदिर के उस भाग में जहाँ पुजारी-पादरी। इमाम जा सकता है, जाकर लेखा की खोजबीन कर सकते हैं, क्योंकि यह धर्म के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप होगा। अर्थात् आय कर विभाग सम्प्रदायों की सम्पत्ति की आय-व्यय की जाँच करने के लिये छापा नहीं मार सकते। 

इस तरह भारत के संविधान में सम्प्रदायों को अपने अपने सम्प्रदायों के धार्मिक आचरण तथा शास्त्रोक्त रीतियों के पालन, सम्प्रदायों की सम्पत्ति और सम्पत्ति की व्यवस्था करने का भी अधिकार मिल गया। लेकिन सम्पत्ति की व्यवस्था को राज्य विधि बना कर नियंत्रित कर सकेगी, जबकी पहला मूल अधिकार होगा, जिसमें विधायिका हस्तक्षेप नहीं कर सकेगी। 

भारतीय संविधान ने सभी धर्मों को यह गांरटी (प्रतिभू) दी धर्म, जाति, पंथ के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जायेगा। लेकिन धर्म के मौलिक अधिकार को खण्ड (2) ने सामान्य व्यवस्था, स्वास्थ्य, तथा सार्वभौम न्याय से विनियमित कर दिया। इससे धार्मिक सम्प्रदायों के मामलों में राज्य द्वारा धर्म के मौलिक अधिकारों में हस्तक्षेप की सम्भावना पैदा हो गई. जिसने धार्मिक सम्प्रदायों में सिजोफरेनिक कुंठा पैदा कर दी। इसका प्रभाव यह हुआ कि धर्म अपने अस्तित्व तथा अस्मिता को राज्य के हस्तक्षेप से बचाने के लिये प्रयत्नशील हो गये। इस प्रयास में सम्प्रदायों ने एक तरफ़ पारस्परिक संदेह, भेदभाव तथा सैद्धांतिक मतभेदों का प्रचार करना प्रारंभ कर दिया। एक दूसरे के सम्प्रदाय पर परस्पर विरोधी लोकाचार का आरोप लगा कर धर्म को दूसरे धर्म से ख़तरा बताना शुरू कर दिया। इसका सबसे दुखद पक्ष यह है कि लोकाचार व रैत्यिक क्रियाओं व धार्मिक आचरण को धर्म से ही प्रमुखता देना प्रारंभ कर दिया। इससे संविधान में प्रदत्त धार्मिक स्वतंत्रता की भावना पर प्रश्नचिह्न लग गया। सह-अस्तित्व एक तरफ़ राज्य के हस्तक्षेप के अधिकार के चक्रवात में फँस गया। कामन सिविल कोड, समान नागरिक संहिता की धारा सम्प्रदायों के झंझावात से घिर गई। 

धर्मों व सम्प्रदायों के विशेष अधिकार इस संदर्भ में विचारणीय हैं। अनुच्छेद 27 में कहा गया है कि सम्प्रदाय तथा धर्मों को किसी विशेष धर्म की उन्नति के लिये कर देने की स्वतंत्रता है। पर कोई भी व्यक्ति ऐसे करों को देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। लेकिन कर और शुल्क का अंतर स्पष्ट करते हुए कहा कि वह अंश दान जो किसी विशेष उद्देश्य से वसूला जाता है और उसी के ख़र्च में लगताहै, शुल्क है। लेकिन जो अंश दान विशिष्ट सेवाओं के लिये लिया जाता है, तथा संचित निधि में मिला कर, उसमें से ख़र्च के लिये निकाला जाता है, कर की परिभाषा में आता है। दान, शुल्क, कर आदि से प्राप्त आय के लेखों का लेखा-जोखा (ऑडिट) करने के लिये राज्य वैध उपबंध कर सकता है, लेकिन न्यास की सम्पत्ति को न्यास निर्माता के उद्देश्यों के अतिरिक्त अन्य उद्देश्यों की पूर्ति के लिये व्यय नहीं कर सकती। ये सम्प्रदाय व न्यासों का विशेष अधिकार होगा। इस अनुच्छेद में प्रदत्त अधिकार ने अपने सम्प्रदाय के पोषण व प्रचार-प्रसार के लिये दान व चंदे से न्यासों का निर्माण प्रारंभ कर दिया। जिससे विभिन्न धार्मिक सम्प्रदायों के न्यासों की संख्या तथा संस्थाओं में वृद्धि होने लगी। क्रिसमस, हेलोविन, गुडफ्राई डे, ताजिया, मोहर्रम, पीर, मज़ार पूजा, दरगाहों की पूजा, रामलीला, गणेश उत्सव, दुर्गा पूजा आदि नित्य नये नये कुकुरमुत्ते की तरह उगने वाली संस्थाओं तथा न्यासों की स्वतंत्रता के बाद फ़सल लहलहाने लगी। मुख्य धर्म के अन्तर्गत नित नये सम्प्रदायों का जन्म भारत की आबादी की तरह तेज़ी से बढ़ने लगा। इसका मुख्य कारण जैसा कि ऊपर उल्लेख किया है कि संविधान में धर्म व सम्प्रदायों तथा न्यासों को अपने धर्म की अभ्युन्नति के लिये दिये जाने लाले विशेष अधिकार व सुविधायें हैं। 
“At present, Article 25 of the Constitution of India describes Sikhism, Jainism and Buddhism as parts of the Hindu religion. Aug 24, 2012”

अफ़सोस की बात है कि इन विशेष सुविधाओं का लाभ उठाने के लिये हुन्दू धर्म के अभिन्न अंग माने जाने वाले बौद्ध, जैन, सिक्खों ने स्वयं को हिन्दू धर्म से बाहर कर लिया। 

इस तरह धार्मिक विशेषाधिकार का उपयोग विभिन्न सम्प्रदायों ने दान प्राप्त कर निधि व सम्पत्ति का संचय करने में किया। कहना उचित होगा कि स्वतंत्रता के बाद उद्योगों, सार्वजनिक विकास की दिशा में इतनी प्रगति नहीं हुई जितनी साम्प्रदायिक संस्थाओं के विकास में हुई। इन सब सम्प्रदायों में भव्यता व शान-शौकत की संस्कृति तेज़ी से फैली। सम्प्रदायों की पारस्परिक प्रतिस्पर्धा व प्रतिद्वंद्विता ने सम्प्रदायों को वैभवशाली व सम्पतिशाली तो बना दिया परन्तु धर्म की मूल भावना तिरोहित हो गई। 

राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय अनुदानों एवम् राजनेताओें के प्रत्यक्ष और परोक्ष संरक्षण ने भारत में धर्म को एक पृथक सम्प्रभु राज्य का दर्जा प्रदान कर दिया। यह एक निरापद तथ्य है कि स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद धार्मिक उपासना स्थल न केवल अपार सम्पदा और शक्ति के गढ़ बन गये वरन्‌ शस्त्रों के संग्राहलय बन अराजक तत्वों की शरणस्थली बन गये। उनकी छवि आतंकवाद, साम्प्रदायिक विभेद, राष्ट्र विरोधी गतिविधियों के केंद्र के रूप में उभरी। इन सबका परिणाम यह हुआ कि भारतीय लोकतंत्र का बट वृक्ष धर्म की पराजीवी लतिकाओं से आवृत हो अपने अस्तित्व का अहसास खो बैठा। दीमक की तरह ये साम्प्रदायिक संस्थायें उसे खोखला करने में लगी हुई हैं। गाँधी जी ने शायद पहले ही इस स्थिति का अनुमान कर लिया था। उन्होंने कहा था, “The unholy alliance and wrangling for sharing the crumbs of power has made religion in India as a major force for representation of democratic movements and retardation of development programmes of the nation.” (selected works of M. K. Gandhi p. 340-342) 

भावार्थ— 

महात्मा गाँधी जी ने सलेकटिड वर्क्स आफ एम.के. गाँधी ने लिखा था कि सम्प्रदायों के  अपवित्र  गठबंधन और शक्ति में हिस्सा प्राप्त करने की प्रतिस्पर्धा धर्म को लोकतांत्रिक आन्दोलन की मुख्य शक्ति बन दोगा, जो देश के विकास के कार्यक्रमों को पीछे धकेल देगा। 

  
    


 

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