मनु, मनुवाद और हम
डॉ. उषा रानी बंसलभारतीय दर्शन के अनुसार मनुष्य मनु की संतान है। मनु पर जितना कोहराम मचा है उतना किसी पर नहीं मचा। मनु को भारत में सब जानते हैं और गाहे-बेगाहे उस की माला जपते रहते हैं। कभी उसके नाम पर गाली-गलौज करते हैं, उसे अपमानित करते हैं, उसका पुतला जलाते हैं तो कभी अंतहीन अनर्गल विवाद। जब से मनु हुए तब से वह भारत के कण-कण में रचे बसे हैं। तब यह जानना आवश्यक हो जाता है कि यह मनु कौन हैं, कौन थे, ऐसा क्या कह गये लिख गये कि पत्थर की अमिट लकीर बन गया। आइये मनु कौन थे, पता करते हैं!
त्रिकालदर्शी लोक पितामह के मानसपुत्र (मस्तिष्क की कृति) का नाम मनु है। ब्रह्मा ने वेदों के गूढ़ विषयों को ग्रहण करने के लिये १ लाख श्लोकों की रचना की थी। इन श्लोकों का उपदेश उन्होंने मनु को दिया। आज के वैज्ञानिक शब्दों में मनु ब्रह्मा का आविष्कार, कम्प्यूटर या रोबोट की तरह का परिष्कृत जीव था।
मनु ने मनुष्यों की समझ को दृष्टि में रख कर इन श्लोकों को मुनियों जैसे मरीच, भृगु, आदि को समझा कर कहा।
मानसपुत्र वास्तविक सृष्टि नहीं कर सकता था। उसने सृष्टि करने के लिये बार-बार मनु की रचना की, पर वह सब मानस पुत्र थे। तब इस दृश्य जगत की रचना कर ने के लिये ब्रह्मा ने मनुष्य की रचना की, उनकी पहली संतान लड़की हुई, जिसका नाम शतरूपा था, फिर पुत्र मनु हुए। इस तरह संसार की सृष्टि कर ने वाले आदि पुरुष का नाम मनु हुआ। अयोध्या के राजा का नाम मनु था, जिसने ३१०२ ई.पू. के लगभग राज्य किया। परन्तु प्रलय के बाद जब संसार समाप्त हो गया तब केवल शतरूपा व मनु नामक पुरुष ही बचा था! इस विवरण से यह कह सकते हैं कि ऐतिहासिक व साहित्यिक मनु कौन थे? उसका समय क्या था? वह किस स्थान पर हुआ था? उनके विषय में बहुत से विवाद हैं। हिमाचल प्रदेश में एक गाँव है जिसका नाम मनाली है। वहाँ मनु का उपेक्षित सा मंदिर है। (मैंने उसे देखा है, वहाँ के लोगों से चर्चा भी की थी) अब मनाली एक आकर्षक पर्यटन स्थल बन गया है। इस तरह बहुत से मनु के बारे में उल्लेख यहाँ वह मिल जाते हैं। इन सब विवादों में न पड़ कर मनुसंहिता, जो मनु की कृति मानी जाती है, उसमें देखते हैं क्या लिखा है? मनु संहिता/ मनुस्मृति के प्रथम अध्याय के ६१, ६२, ६३, श्लोक में सात मनु के नाम इस प्रकार दिये गये हैं: स्वायंभुव, स्वारोचिस, श्रोतमश्च, तामसी, रैवतस्थउवा, चाक्षुसश्च, महातेजा, विवस्वत्ससुत मनु।
मनु संहिता में कितने श्लोक हैं, उनकी रचना कब हुई, इस विषय में स्मृतिकारों में मत भेद है। मनुस्मृति में प्रस्तुत विचार तथा भाषा के आधार पर मनुसंहिता की रचना वेदों के समय से लेकर गुप्तवंश तक हुई होगी। गुप्तकाल में किसी मनु नामक महर्षि होने का उल्लेख मिलता है जिसने मनु संहिता संकलित की। कह सकते हैं कि मनुस्मृति के श्लोक विभिन्न युगों की गाथा को अंक में छिपाये एक कालजयी संहिता है। मनुस्मृति में क्या लिखा उसे पढ़ते हैं।
मनुस्मृति में बारह अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में विश्व की उत्पत्ति, दूसरे अध्याय में जातकर्म आदि; संस्कार विधि, ब्रह्मचर्य विधि, व्रत विधि, गुरु, माता-पिता अभिवादन विधि; तृतीय अध्याय में ब्रह्मचर्य व्रत की समाप्ति के बाद समावर्तन, पंचमहायज्ञ, नित्यश्राद्ध विधि; चतुर्थ अध्याय में मृत-प्रभृत आदि जीविकाओं के लक्षण, गृहस्थ के लिए नियम; पंचम अध्याय में दूध-दही आदि भक्ष्य तथा प्याज़-लहसुन आदि अभक्ष्य पदार्थों, मरण-जनन, शौचादि दशाहादिके मिट्टी, पानी की अशुद्धि तथा द्रव्य और बर्तनों की शुद्धि, स्त्री धर्म; छठे अध्याय में वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम; सप्तम अध्याय में व्यवहार, न्याय-मुकदमों के निर्णय, कर ग्रहण, राजधर्म; आठवें अध्याय में गवाहों से प्रश्न की विधि; नवम अध्याय में साथ या पृथक रहने पर स्त्री-पुरुष के धर्म, धन आदि का विभाजन, जुआ, चौर आदि निवारण, वैश्य एवं शूद्र के अपने अपने कर्म का अनुष्ठान; दशम अध्याय में अनुलोम-प्रतिलोम जातियाँ, आपत्तधर्म; एकादश अध्याय में पाप निवृत्ति कर्म, प्रायश्चित विधि; अंतिम द्वादश अध्याय में कर्मानुसार तीन प्रकार की सांसारिक गतियों, मोक्ष प्रद, आत्मज्ञान, विहित एवम् निषिद्ध गुण दोष की परीक्षा, देश धर्म तथा पाखंडी धर्म का विस्तृत वर्णन है। (मनुस्मृति, श्री हरगोविंद शास्त्री)
मनुस्मृति के इन अध्यायों के संक्षिप्त वर्णन से स्पष्ट है कि मनुस्मृति का लक्ष्य काम, अर्थ, काम, मोक्ष, अर्थात् चार पुरुषार्थों का वर्णन प्रतिपादन है। काम तथा अर्थ इस भौतिक जगत की उत्पत्ति व क्रियाकलापों का प्रेरणास्रोत है। इच्छा व कर्म त्याज्य नहीं है। मनुस्मृति सांसारिक व अध्यात्मिक गुणों का अद्भुत संगम है। साधारणतः हिन्दू धर्म को अध्यात्मिक पारलौकिक माना जाता है। लेकिन हिन्दू धर्म की धर्म संहिता, जिसे स्वयं ब्रह्मा ने प्रतिपादित किया उसमें न तो जगत मिथ्या है और न त्याज्य ही है। इसमें काम, अर्थ जैसे लौकिक भोगों का नियमानुसार संयम से उपयोग (उपभोग नहीं) व संवृद्धि करते हुए मोक्ष प्राप्त करना है। मनुष्य के ये चार पुरुषार्थ बताये गये हैं। इसमें योग-भोग का अनुशासित क्रम है। इतनी भौतिकवादी सांसारिक विधि विधान वाली विश्व में शायद ही कोई धर्म संहिता होगी?
मनुस्मृति के प्रथम अध्याय में सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है। प्रलय काल में सर्वत्र अंधकार था। प्रकाशादि भूतों को प्रकट करते हुए ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्होंने प्रजाओं की सृष्टि की इच्छा से जल में शक्ति रूपी बीज प्रवाहित किया, जो सहस्रों सूर्य के समान प्रकाशमान अंडा बन गया। ब्रह्मा का प्रकाश ३६० दिन उस अंडकोश में निवास करने के बाद वह अंडकोश स्वयं ही दो भागों में बँट गया। (शायद वह जिसकी सर्वाधिक चर्चा है—डीऐनए होगा, जो जीन का वाहक है। जीव की समस्त कोशिकाओं का सृजन कर्ता है, स्वयं ही सम्पूर्ण गुणों के साथ विभाजित होता रहता है) नोट: “मुझे डीऐनए ऐसे ही समझाया गया, मेरा ज्ञान अधूरा हो सकता है।” यह एक वैज्ञानिक तथ्य है। उसी तरह अंडकोश भी दो भागों में विभक्त हो गया होगा। जिससे एक पृथ्वी और दूसरा आकाश बने होंगे। फिर चर, अचर जगत, सत्-असत् गुणों की सृष्टि हुई होगी। मानव भी इसी क्रम में प्रकट हुआ होगा। मनुष्य के चार वर्ण भी ब्रह्मा के अंगों के कार्यों से उत्पन्न हुए होगे।
अतः मनुस्मृति में मनुष्यों के कर्मों की विस्तृत व्याख्या है। इसमें मनुष्य के दैनिक व्यक्तिगत क्रियाकलापों को निष्पादित करने के छोटे से छोटे विषयों से लेकर परिवार, समाज, राज्य के निष्पादन के लिये विधि, क़ानून व तरीक़ा बताया गया है। सोने, शौच करने, स्नान, ध्यान आदि कर्मों को करने की विधि तथा उसका वातावरण पर क्या प्रभाव पड़ेगा का विशद उल्लेख मिलता है। सरकार-राजा चारों पुरुषार्थों की प्राप्ति के अनुकूल वातावरण बनाने के लिए दण्ड धारण करता है। जिस प्रकार दण्ड के आँख नहीं होती उसी प्रकार राजा, ऊँच-नीच, चोर-साधु का ध्यान किये बग़ैर अपराध के अनुसार अपराधी को दण्डित करें। पापियों का निग्रह (दण्ड देकर अपराध की रोकथाम करे) तथा सज्जनों पर अनुग्रह करने से राजा सदा पवित्र व पुण्यवान होता है। (श्लोक ३११, अध्याय ८) शास्त्र की मर्यादा न मानने वाले, लोभ आदि के वशीभूत होकर अनुचित दण्ड आदि के द्वारा धन लेने वाले, रक्षा नहीं करने वाले और बली आदि का भोग करने वाले राजा की अधोगति होती है। जिस सभा (न्यायालय) में धर्म अधर्म से पीड़ित होकर रहता है, अर्थात् असत्य बात कह। कर सत्य को छिपाता है और सभा के सदस्य विज्ञ ब्राह्मण उसे सत्य का पक्ष नहीं लेते, असत्य बोलने वाले की चिकित्सा (दण्डित) नहीं करते तो वे सदस्य ही (न्यायाधीश) धर्मरूपी रोग से पीड़ित होते हैं। (श्लोक १२, अध्याय ८) जिस अपरा में साधारण मनुष्य १ पण (मुद्रा) से दंडनीय है उसी अपराध में राजा सहस्र पण से (एक हज़ार मुद्रा) दंडनीय है। (श्लोक ३३७ अध्याय ८) भारत के प्रजातांत्रिक राज्य में प्रधानमंत्री आदि दण्ड से परे हैं।
मनु स्मृति में पर्यावरण प्रदूषित करने, भ्रूण हत्या, चिकित्सा में उपेक्षा करने के बारे में दण्ड का विधान किया है। संसार में मनुस्मृति क़ानून की प्रथम पुस्तक मानी जाती है। मनु को प्रथम क़ानूनवेत्ता का सम्मान दिया जाता है। ऐसी विलक्षण प्रतिभा प्रभृति दूसरा व्यक्ति व ग्रंथ विश्व में नहीं है। कौटिल्य के अर्थशास्त्र में दंड व राजनीति के सिद्धांत मनुस्मृति पर आधारित प्रतीत होते हैं। वर्तमान निहित स्वार्थ परक राजनीति ने राज्यनीति, न्याय, दण्ड, धर्म के प्रतिपादक ग्रंथ को मनुवाद अथवा जातीय व्यवस्था का पर्याय बना दिया है। सृष्टि की उत्पत्ति व कर्मों की व्याख्या में महर्षि मनु ने समाज के नियमन के लिये कर्म पर आधारित जातियों के जन्म का का उल्लेख किया था। मनुस्मृति के समस्त श्लोकों में केवल पाँच प्रतिशत ही जाति व्यवस्था से संबंधित हैं। हमारे समाज ने ९५% बातों को पाँच प्रतिशत जाति व्यवस्था के बली चढ़ा दिया। जैसे तुलसीदास रचित रामचरितमानस के सुंदरकांड में लंका पार करने के समय समुद्र के अभिमान को दूर करने के लिये जब रामचंद्र जी ने धनुष उठाया तो सागर ने विनय पूर्वक कहा:
“गगन, समीर, अनल, जल, धरनी, इन्ह के नाथ सहज जड़ करनी॥
तव प्रेरित माया उपजाए। सृष्टि हेतु सब ग्रंथनि गाए॥”
इसमें प्रथम चार पुरुष वाचक हैं, केवल धरनी ही स्त्री वाचक है। अगली पंक्ति जिसे बार बार आधा ही दोहराया जाता है: ढोल गँवार सूद्र, पशु नारी . . . में भी पहले चार पुरुष वाचक हैं। पर ताना केवल स्त्री को ही दिया जाता है।
जिन महिलाओं की तुलसी दास जी ने प्रशंसा की है, सीता जी, कौशल्या, अहिल्या, अनसुईया, तारा, मंदोदरी, शबरी आदि का कोई कभी भूल कर भी नाम नहीं लेते। बस कह देते हैं तुलसी बाबा भी कह गये हैं, ढोल . . . इसी तरह की एक और अधूरी बोली जाने वाली पंक्ति है, “नानक दुखिया सब संसार”, इसकी आगे की पंक्ति स्वयं करने की है वह अधिकांश कोई नहीं कहता, “कहो नानक ऐह तत विचारा, बिन हरि भजन नहींं छुटकारा।” इसे लिखते समय मुझे एक चर्चा याद आ रही है जिसका उल्लेख करना आवश्यक है। चर्चा इस प्रकार है—
किसी भद्र परिवार की बैठक में शिक्षित परिवार की महिलाएँ व पुरुष वार्तालाप कर रहे थे। बात का विषय था कि विवाह के बाद लड़के बदल जाते हैं। माँ, बाप, भाई, बहन सब पराए लगने लगते हैं ऐसा व्यवहार लड़के अपनी पत्नी के कहने पर करते हैं। इस तरह स्त्रियाँ ही स्त्रियों की दुश्मन हैं। इस तरह के घरों के टूटने व परिवार वालों के दुखों का दुखड़ा रोया जा रहा था। मैंने उपस्थित पुरुष समुदाय से कहा कि मैं कुछ पूछना चाहती हूँ, ये प्रश्न है, मैंने एक भद्र पुरुष से पूछा कि आप वही सब करते हैं जो आपकी श्रीमती कहती हैं? सभी पुरुष एक साथ बोले, “ये भी कहने की बात है? हमारी श्रीमती जी से पूछ लो भाई हम तो इनके ग़ुलाम हैं। हमारी श्री-मति, बुद्धि यही हैं।” मैंने कहा कि शत प्रतिशत सही बात है . . . क्या पान-सुर्ती, तम्बाकू, खाते हैं? क्या आप शराब पीते हैं? ताश पत्ती खेलते हैं? बाज़ार में सामान लाने के नाम पर कई घंटे दोस्तों से गप्प करते हैं? कुछ मौन साध गये, कुछ बग़लें झाँकने लगे, कुछ ने कहा कि कभी-कभी।
इन सवालों को सुनकर अधिकतर सज्जन बग़लें झाँकते बोले, “भाभी जी आप भी हद करती हैं।” पत्नियों के चेहरे बता रहे थे कि वह इन बातों से त्रस्त रहती हैं। जब महिलाओं से पूछा गया, तो उन्होंने सधा-सधाया उत्तर दिया, “ये हमारी माने तब न”।
यह लिखने के बाद मेरा विनम्र निवेदन है कि पुरुष पत्नी के मना करने पर भी शराब पी सकता है, नशा कर सकता है, सैर-सपाटा कर सकता है, स्त्री-बच्चों को पीट सकता है, झूठ बोल कर झाँसा दे सकता है, परन्तु जब माता-पिता, भाई-बहिन की सहायता करने, दायित्व निभाने की बात आती है तो असहाय, दीन-हीन बन कर पत्नी के पल्लू के पीछे क्यों छिप जाता है? जैसे यह सब करना पत्नी का दायित्व हो?
बेचारी मनुस्मृति का भी यही हाल दिखाई देता है, सरकार से लेकर साधारण आदमी तक मनुस्मृति के द्वारा बताये, अर्थ, काम, मोक्ष, धर्म नामक पुरुषार्थों के पालन का भूल कर भी नाम नहीं लेते लेकिन जाति व्यवस्था का ढोल पीट-पीट कर अपनी अक्षमता, लोभ, वासना, पाप वृत्ति को छुपाने में लगे रहते हैं। जाति व्यवस्था की आड़ में सब राजनीतिक दल अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और जनता को गुमराह कर रहे हैं।
3 टिप्पणियाँ
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शानदार जानकारी के लिए सादर नमन आपको!
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आपने मेरे मन की बात लिखी। जहाँ सुविधा हुई मान लिया असुविधा हुई त्याग दिया... यही हाल है, मनुस्मृति की अच्छाइयों को छोड़ कर बुराइयाँ खोजना और उनका प्रचार करना ये क्यों और कैसे हुआ पता नहीं। कितने निहित स्वार्थ और राजनीतिक हित साधे गये, इस प्रचार से। धन्यवाद ऐसी जानकारी देने के लिए। प्रार्थना करती हूँ कि लोग दुष्प्रचार से बचें और मनुस्मृति का अध्ययन करें, वस्तुस्थित समझें. ।
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बहुत सही लिखा है आपने, अपने स्वार्थ और इच्छाओं की पूर्ति के लिए तथ्यों को तोड़ना- मरोड़ना, ग्रहण और त्याग तो मानव स्वभाव है। स्वार्थ सिद्धि में लगे लोगों ने मनु स्मृति का पालन एक गाली के समान बना दिया है जबकि मनु ने जीवन के किसी भी पहलू को उपेक्षित न करते हुए ,स्वस्थ्य ,प्राकृतिक ,संतुलित, सामाजिक जीवन जीने की शैली का प्रतिपादन किया है। बधाइयां।
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