फेयरवेल
डॉ. उषा रानी बंसलजीवन जल की बहती धारा है। जिसमें नित्य प्रति नई लहरें जुड़ती जाती हैं और पुरानी जलधार में जाने कहाँ समा जाती हैं। इस चक्र को कोई नहीं जान पाया। मानव जीवन के क्रिया-कलाप भी इसी ऐसे ही नियम चक्र में बँध कर अबाध गति से चलते रहते हैं। जीवन दर्शन की ऐसी विशद व्याख्या में किसी महाविद्यालय का अध्यापक कक्ष खोया हुआ था। आते-जाते अध्यापकों के द्वारा जीवन दर्शन पर अपने-अपने दृष्टिकोण से नुक्ते छोड़ने से चर्चा की दिशा बदलती रहती थी। जीवन दर्शन की इस वार्ता की धुरी था, सेवा से निवृतमान अध्यापकों का फेयरवेल। कुछ अध्यापक गण किन्हीं अवकाशप्राप्त अध्यापकों की कर्मठता व निष्ठा का गुणगान कर रहे थे। कुछ अवकाशप्राप्त अध्यापकों की अवकाश के बाद होने वाली समस्याओं का ज़िक्र कर रहे थे। जिसमें मकान एक बड़ी समस्या था। कुछ अध्यापक विदाई समारोह में क्या बोलेंगें इस चिंता में घुले जा रहे थे। ऐसे अध्यापकों को कुछ उपहास कुछ सांत्वना के माध्यम से ऐसे शब्द सुझाए जा रहे थे जो विदाई समारोह में अक्सर बोले जाते हैं। किसी ने दबी ज़ुबान से कहा कि रुदाली देखी है न। ठहाके में यह आवाज़ दब सी गई। सेवानिवृत होने वाले के विषय में दो शब्द कहने की प्रथा भी कितनी अजीब है। जब इस अवसर के लिये शब्द ही न सूझें तो कोई क्या करे? एक अध्यापक ने हँसते हुए कहा कि वाह! शिक्षण संस्था में ही फेयरवेल समारोह में शब्दों का अकाल पड़ गया। तभी किसी समझदार वयोवृद्ध ने कहा कि ऐसे समय भारतीय परंपरा का निर्वाह करना चाहिये। जाने वाले के गुणों का बखान करना चाहिये, जैसे वो बड़ी कर्मठ, परोपकारी, ज़िंदादिल, अनुशासनप्रिय, मिलजुल कर रहने वाली छात्रों में प्रिय, आदि आदि। जिन व्यक्तियों ने सेवा के कुल वर्षों में से एक तिहाई वर्ष किसी न किसी आधार पर छुट्टी लेकर बिताये हों’ अथवा पूरे सत्र में 4-5 महिनों की छुट्टी लेकर पूरे वर्ष वेतन ख़ुदा को हाज़िर नाज़िर जानकर लिया हो, उनकी प्रशंसा करने में शब्द मुँह चिढ़ाकर वाक्य से ठुमक जाते हों तब..।
विषय दर्शन से तथ्यान्वेषण पर अटक कर कुछ शुष्क व गम्भीर हो गया। हँस-हँस कर बतकही का रस बटोरने वाले शिक्षक बगलें झाँकने लगे। सहसा कक्ष छोड़ते भी नहीं बन रहा था। तभी रुक जाने वाली घड़ी में चाभी भरते हुए सा किसी ने बोझिल पल को खिसकाते हुए कहा कि मैं एक सच्चा किस्सा सुनाता हूँ और सब किस्सा सुनने में मशगूल हो गये।
किस्सा यूँ था कि एक बहुत कर्कश काकतैनी बुढ़िया थी। चार-चार बेटे बहू थे। सबको नचाये रखती थी। प्रत्येक सास की तरह बहुओं पर ज़ुल्म करती थी। उसकी मौत के कागज़ कहाँ खो गये थे कि मरती ही न थी। मरने से तीन साल पहले बहू-बेटों को गरयाती, कोसती गिर पड़ी। बेचारी अपाहिज हो गई। बिस्तर से लग गई पर क्या मजाल बेटा-बहू चैन की साँस ले सकें। सब मन ही मन उसके मरने की राह देखने लगे। एक दिन बुढ़िया अचानक बेहोश हो गई। बेटे बहू की तो बाछें खिल गईं कि आखिर पिंड छूटने का वक्त आ ही गया। डाक्टर को बुलाया गया। डाक्टर ने भली प्रकार जाँच पड़ताल करके कहा कि हृदय गति रुक-रुक के चल रही है नब्ज़ भी ठीक से नहीं मिल रही अन्तिम समय निकट लगता है। अब ईश्वर ही मालिक है। बुढ़िया को खाट से उतार कर ज़मीन पर ले लिया। उनके मुँह में गंगाजल डाला गया। आनन-फानन में मरियल सी बछिया लाकर गौ दान की रस्म भी पूरी कर दी गई। बुढ़िया की साँस थम सी गई थी। बेटा बहू ने चैन की साँस ली। बुढ़िया के गुणों का बखान कर-करके रोने पीटने का स्वांग भरने लगे। आसपास के लोग चीख पुकार सुन कर इकत्रित होने लगे। अर्थी ले जाने का प्रबंध करने की सलाह दी जाने लगी। मरनेवाली वृद्धा अपने पीछे नाती-पोतों से भरा-पूरा परिवार छोड़कर गई थी। अत: विमान सजाने का काम शुरू करवा दिया गया। अन्तिम यात्रा का साथ देने के लिये ढोल, ताशे, नपीरी बजाने वालों को बुलवा लिया गया। इस अफरा-तफरी में कई घंटे बीत गये। मातमपुर्सी करनेवालों ने इस बीच वृद्धा को भूल कर भी नहीं छुआ। अन्तिम यात्रा के लिये अन्तिम स्नान का वक्त आ गया। बड़े स्नेह व आदर से बरसों के जमे मैल को बेटे बहू ने मलमल कर छुड़ाया और फिर नये तौलिये से बदन पोंछने लगे। बदबूदार कपड़ों को उतार कर फेंका और नये वस्त्र पहिना दिये। जैसे ही बेचारी बुढ़िया को अर्थी पर लिटाने के लिये उठाने लगा, बुढ़िया हर-हर कर उठ बैठी जैसे कुछ हुआ ही न हो। चारों तरफ नज़र घुमाते ही बुढ़िया समझ गई कि माजरा क्या था? फिर क्या था! बुढ़िया बुक्का फाड़-फाड़ कर रोने कलपने लगी कि हाय क्या ज़माना आ गया, घोर कलियुग, कैसी औलाद जनी है इस करमजली ने कि जिंदी को जलाने ले चले। हाय रे दैया, इससे तो बाँझ होती तो अच्छा था। बेटे बहू अलग आसमान उठाये थे कि इत्ती मुश्किल से तो बुढ़िया मरी थी पर हाय री किस्मत छाती पर मूँग दलने को मरती से जी गई।
कहानी के बाद अध्यापक कक्ष धीरे-धीरे खाली हो गया। इसके बाद के दो-तीन दिन रुपये एकत्र करने, खाने, नाश्ते के व्यंजन तय करने तथा भेंट–उपहार खरीदने में बीत गये। फेयरवेल से ठीक एक दिन पूर्व स्वेच्छा से सत्र के बीच अवकाश प्राप्त करने वाले अध्यापक पुनः काम पर लौट आये। इस का ज्ञान विश्वविद्यालय बंद होने तक बहुत कम अध्यापकों को हो सका था, जिन्होंने उन्हें देखा यही समझा कि रिटायरमेंट के बहुत से झमेले होते हैं इसी संदर्भ में आये होंगें। कुछ अध्यापक तो काफी समय से बीमार चल रहे थे। कुछ रिटायरमेंट के बाद थके से लग रहे थे। किन्हीं अध्यापकों ने उनका कुशलक्षेम पूछते हुए उनके स्वास्थ्य की जानकारी ली। जिन लोगों को उनके लौटने के बारे में पता चला उन्होंने उनकी अनुपस्थिति में बड़ी मिश्रित प्रतिक्रियाएँ कीं।
फेयरवेल के दिन प्रात ही अध्यापक कक्ष के बरामदे में तथाकथित रिटायर्ड अध्यापक दिखाई दिये। सामने वाले व्यक्त्ति ने उनका अभिवादन करके कुशल क्षेम पूछा फिर हाथ जोड़कर कहा कि किसी आवश्यक कामवश उन्हें कहीं जाना पड़ रहा है अत: फेयरवेल में उपस्थित नहीं रह पायेंगें। उन सज्जन ने बात काटते हुए कहा कि मेरा तो आज फेयरवेल नहीं है। वक्त कहीं रुक गया साँस कहीं अटक सी गई। लंबे-लंबे डग भरते वह व्यक्ति अध्यापक कक्ष के नोटिस बोर्ड की ओर लपके। नोटिस जस का तस लगा था। उनका सिर चकराने लगा। या इलाही ये माजरा क्या है? कहते हुए वह कुर्सी पर धम से गिर पड़े।
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