डॉ . बृज बिहारी बंसल की तेहरान यात्रा : संस्मरण 

01-11-2022

डॉ . बृज बिहारी बंसल की तेहरान यात्रा : संस्मरण 

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

23 मई 1994 से 25 मई 1994 तक मेरे पति डॉ बृज बिहारी बंसल की एक कॉन्फ़्रेंस ईरान की राजधानी तेहरान में थी। तेहरान विश्वविद्यालय ने इन्टरनेशनल सेमिनार ऑन टेक्नॉलोजिकल एजुकेशन पर यह कॉन्फ़्रेंस आहूत की थी। तेहरान जाने का, या यूँ कहिए किसी इस्लामिक राज्य को क़रीब से देखने का पहला अवसर मिला था। ईरान जो कभी पर्शिया था जिससे भारत के ऐतिहासिक समय से व्यापारिक व सांस्कृतिक सम्बन्ध रहे हैं, को देखने की उत्सुकता उनके मन में  बहुत अधिक थी। मन में कुछ शंकाएँ भी थीं। जैसे मांस-मदिरा, धूम्रपान से दूर रहने वाले व्यक्ति का ईरान में कैसे निर्वाह होगा। रह-रह कर पिछले वर्ष की जापान यात्रा के चित्र दिमाग़ में कौंध जाते थे। बुद्ध के संदेश जीव हत्या निषेध का संवाहक जापान अधिकांशतः मांसाहारी था। महँगाई इतनी थी कि दूध, ब्रेड (ढूँढ़कर) खाने में ही कई समय के भोजन के रुपये ख़र्च हो जाते थे। ट्रांसपोर्ट सुविधाजनक थी, पर पर्यटकों की जेब पर बहुत भारी पड़ती थी। अगर ऐसा ही तेहरान में भी हुआ तो क्या होगा? ईरान-ईराक़ युद्ध से वहाँ महँगाई और भी ज़्यादा होने का अंदेशा था। इसी उधेड़बुन में तेहरान देखने की तमन्ना लिये ईरान एयरलाइन्स की उड़ान से 21 तारीख़ की प्रातः तेहरान हवाई अड्डे पर वह उतरे । तेहरान विश्वविद्यालय के आयोजकों ने हमारा हवाई अड्डे पर स्वागत किया और एक कार में बिठा कर उन्हें एक पाँच सितारा होटल के वातानुकूलित कमरे में पहुँचा दिया। 21 तारीख़ की दोपहर को उन्होंने डेलिगेट्स को घुमाने की पूरी-पूरी व्यवस्था की थी। खाने-पीने, रहने की सभी सुविधाएँ आयोजकों की तरफ़ से प्रदान की गई थी।

भोजन व्यवस्था

तेहरान में भोजन में ब्रेड, नान, आलू, खीरा, दूध, दही (योगर्ट) चाय, मक्खन, टमाटर सूप, पनीर (चीज़), अंडा उपलब्ध था। मांसाहारी भोजन में मटन व मुर्गे का मांस ही परोसा गया था। गाय का मांस किसी भी भोजन में नहीं रखा गया था। तीन दिन के भोजों में भोज ईरान के मन्त्रियों द्वारा उनके ख़ूबसूरत बाग़ों व बग़ीचों में दिये गये थे। पीने के लिये पानी, कोका-कोला प्रत्येक खाने के साथ था। यह देखकर उन्हें बहुत आश्चर्य हुआ कि इतने सम्मानित रात्रि भोजों में मदिरा कहीं भी पेश नहीं की गई थी।

एक दिन शाम के भोज में उन्होंने चीज़ आमलेट मँगवाया तो वो साथ में चार-पाँच बन व मक्खन भी दे गया। खाने की वस्तुएँ वहाँ बहुत सस्ती थीं।

तेहरान में नशे पर पूर्ण प्रतिबंध था। मदिरा की तेहरान में कहीं कोई दुकान न थी। यहाँ तक तेहरान हवाई अड्डे की ड्यूटी फ़्री शॉप, जहाँ से आप एक बोतल विदेशी शराब क़ानूनन ला सकते हैं, वहाँ शराब उपलब्ध नहीं थी। भारत में मुसलमान, शराब व मांस के बिना भोज देना अपनी शान के ख़िलाफ़ समझते हैं। गाँधी की कांग्रेस के राज्य में भारत सरकार आज तक शराबखोरी प्रतिबन्धित करने का साहस न कर सकी। शराब की बात तो चलो ठीक है, लेकिन वहाँ किसी पुरुष व महिला के दाँत, पान या तम्बाकू खाये नहीं दिखाई दिये। अपनी जिज्ञासा शांत के लिये उन्होंने एक-दो व्यक्तियों से बातचीत की तो पता चला कि तेहरान में पान, तम्बाकू, जर्दा, अफ़ीम, भाँग जैसी चीज़ों की ख़रीद-फ़रोख़्त नहीं है। वह यह सुनकर सकते में आ गये!  पान, तम्बाकू, जर्दा, पानदान जो उन्होंने बचपन से अपने रहमत चाचा के यहाँ मुसलमानी सभ्यता के अभिन्न अंग के रूप में देखे थे, उनका इस्लामिक राज्य की राजधानी में कोई वुजूद न था। यह सब देख वह गहन सोच में पड़ गये  कि ईरान में तम्बाकू, जर्दा, बीड़ी, सुपारी, शराब के व्यवसाय के बग़ैर वहाँ के नवयुवकों में बेरोज़गारी बहुत अधिक होगी? 20 कि.मी. की परिधि में जहाँ तक वह पैदल व गाड़ी से घूमे थे, उन्हें  कोई भिखारी नहीं मिला। ( इस्लाम में भीख मांगना हराम है।)  ऐसा वहां के व्यक्तियों ने बताया । फिर भी उन्हें  लगा कि, हो सकता है,  राजधानी के बाहर भिखारी हों? अपनी इच्छानुसार घूमने पर प्रतिबंध था। 

तेहरान में वेतनमान भारत की तुलना में भी कम था।  इतने कम वेतन के बाद भी वहाँ भुखमरी की समस्या न थी। खाने की वस्तुएँ बहुत सस्ती थीं। बन का दाम 1 पैसे के बराबर था। बहुत सी चीज़ों के साथ बन मुफ़्त दिया जाता था। जिसे देखकर उन्हें  बनारस के भेलूपुरा स्थित सिन्ध होटल की याद आ गई। जिसमें 20 वर्ष पहले रोटी के साथ दाल फ़्री का बोर्ड लगा रहता था। तेहरान में  आने-जाने के लिए लग्ज़री बसें थीं। जिनका किराया 20 किमी की दूरी तक मात्र 25 पैसे था। इस तरह रोज़मर्रा की चीज़ों के दाम बहुत कम थे। (अल्लाउद्दीन  के समय चीज़ें बहुत सस्ती थीं पर आय बहुत कम थी। तब यह कहवत प्रसिद्ध  हुई कि, ‘एक ऊँट का दाम एक टका था पर टका किसी-किसी के ही पास था) अतः व्यक्तियों को दैनिक उपयोग की आवश्यक वस्तुओं को ख़रीदने कोई कठिनाई न होती होगी। उन्हें यह सब देखकर अनायास ही जापान याद आ गया, जहाँ वेतन भी बहुत अधिक है और वस्तुओं की क़ीमत भी उसी अनुपात में थीं। बस व ट्रेन के किराये तो आसमान छूने लगते थे। होटल बेहद महँगे थे, परन्तु जापानियों के लिये वह अधिक नहीं थे, क्योंकि उनका वेतन भी उसी अनुपात में था। विदेशियों के लिये भी जापान घूमना बहुत-बहुत महँगा था।

स्त्रियों की दशा

तेहरान में स्त्रियों पर बहुत से प्रतिबंध थे। उनके साथ पूना के एक महिला भी अपना शोध-पत्र प्रस्तुत करने तेहरान गई थीं। वह अपने साथ बुरका व सिर ढँकने का स्कार्फ़ ले गईं थीं। पर्दे का पालन इतनी कड़ाई से किया जाता था कि होटल के कमरे के बाहर जाने के समय बुरका तथा स्कार्फ़ बँधा होना आवश्यक था। मुँह ढँका नहीं था। पर पैर में मोज़े तथा कलाई तक हाथों का बुर्क़े से ढँका होना आवश्यक था। इतना प्रतिबंध होने पर भी ईरानी स्त्रियाँ विभिन्न प्रकार के कार्यों को करती दिखाई दीं।  विभिन्न सेक्टर में  प्राध्यापिका, आदि सेवाओं में स्त्रियाँ पुरुषों के साथ-साथ कार्य में लगी हुई थीं। स्त्रियाँ प्रसाधन सामग्री जैसे नेलपॉलिश, लिपिस्टिक का प्रयोग नहीं कर सकती थीं। यूँ तो ख़ुदा ने ही उन्हें पूरे मेकअप के साथ ज़मीं पर उतारा था। यह प्रतिबंध केवल ईरानी स्त्रियों पर ही नहीं, वरन् विदेशी पर्यटक महिलाओं को भी समान रूप से पालन करना पड़ता था। ईरान में विवाह के विषय में भी थोड़ी सी जानकारी मिली। वहाँ अधिकतर लोग एक ही विवाह करते हैं परन्तु दो से अधिक विवाह करने से लोग परहेज़ करते हैं।

तेहरान में उनकी कान्फ्रेस में भाग लेने ईरान के मन्त्री आये थे। उन्हें अन्य डेलिगेट्स के साथ ही कक्ष में बिठाया गया। जब उनके बोलने का अवसर आया, तब ही वह मंच पर गये और वक्तव्य देने के बाद अपनी सीट पर सभाकक्ष में बैठ गये। उनके लिये कहीं अतिरिक्त सुरक्षा प्रबंध व सुरक्षा के नाम पर प्रतिबंध दिखाई नहीं दिया। तेहरान में पुलिस की उपस्थिति भी कम थीं। परन्तु नियम, क़ानून का भय व अनुशासन बहुत अधिक था। सुरक्षा की दृष्टि से तेहरान में हम अपने माल असबाब के साथ पूरी तरह सुरक्षित थे। सामान चोरी होने, जेबकटी का कोई भय न था। तेहरान के बाहर का ईरान देखने की इच्छा मन में लिये वह वापस अपने देश आ गये।

तेहरान में इस समय ऐसा मौसम था जैसा भारत में फरवरी के अंत व मार्च के महीनें में होता है। बाग़-बग़ीचे, फूलों (गुलाब) से भरे हुए थे। सब तरफ़ बाग़ों में बहार ही बहार थी। मुलायम घास के हरे-भरे मैदान उनकी शोभा बढ़ा रहे थे। 

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