18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग

01-04-2024

18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

 (उषा रानी बंसल इतिहास विभाग बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी और बी. बी. बंसल यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग प्रौद्योगिकी संस्थान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी) 

प्रस्तावना

18-19वीं शताब्दी की विशेषता यूरोप में औद्योगिक क्रांति थी। यह धन, जनसंख्या और उत्पादन में वृद्धि के साथ चिह्नित थी। उद्योगों में तेज़ी से विकास ने माल के लिए बाज़ार की आवश्यकता थी। परिणामस्वरूप बाज़ारों पर एकाधिकार करने की दौड़ में अँग्रेज़ों ने भारत पर तथा कम विकसित देशों में उपनिवेश और औपनिवेशिक साम्राज्य स्थापित किए। इसी से साम्राज्यवाद संसार भर में फैला। जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति भी बनी। भारत में स्थापित अंग्रेज़ी राज में भारतीय उद्योग के विकास को अपने शासन में बहुत प्रभावित और नियंत्रित किया। 

18वीं शताब्दी तक प्रमुख हाथ करघा व अन्य उद्योग भारतीयों के हाथ में थे। उस समय, रेशम, जहाज़ निर्माण, हस्तशिल्प, इत्र, काग़ज़ निर्माण आदि मुख्य उद्योग थे, कपड़ा, टाइल, कपास और अन्य कला और शिल्प जैसे कि चमड़े के उद्योग थे। अठारहवीं शताब्दी के अंत में इन उद्योगों का पतन होना प्रारम्भ हो गया। इन की दशा में दिन प्रतिदिन गिरावट आने लगी। इन उद्योगों के पतन के प्रमुख कारण थे: साम्राज्यवादी उद्योग नीति, मशीन से बनी सस्ती वस्तुओं के साथ प्रतिस्पर्धा, जिसका उद्देश्य भारतीयों में विलासिता की वस्तुओं के प्रति रुझान, पश्चिम की तथा ब्रिटिश आदतों और स्वाद के प्रति रुझान पैदा करना। इसके साथ ही भारत में कुछ नए उद्योगों की शुरूआत हुई। प्रस्तुत पत्र में, इस अवधि के दौरान भारत में कुछ महत्त्वपूर्ण उद्योगों की स्थिति को रेखांकित किया गया है। 

अठारहवीं सदी में भारत के उद्योग-धंधे

यूरोपीय यात्रियों के प्रकाशित विवरण से पता चलता है कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी के आरंभ में, भारत, अधिकांश यूरोपीय देशों की तुलना में आर्थिक रूप से अधिक उन्नत था। उसके पास समृद्ध औद्योगिक केंद्र थे, जिनके उत्पाद अपनी गुणवत्ता, कम लागत और शिल्प कौशल के लिए पूरी दुनिया में प्रसिद्ध थे। दुनिया के विभिन्न हिस्सों से व्यापारी भारत आते थे और अपने सोने, चाँदी और क़ीमती पत्थरों का आदान-प्रदान सूती वस्त्र, शोरा, तंबाकू, नील, रेशम, ब्रोकेड आदि से करते थे। व्यापार का संतुलन हमेशा भारत के पक्ष में रहता था। उसकी अर्थव्यवस्था की इस अनूठी विशेषता ने लगभग सभी विदेशी पर्यवेक्षकों का ध्यान आकर्षित किया और टिप्पणियाँ कीं। इस प्रकार, ऐसे समय में जब यूरोप में वाणिज्यिक और औद्योगिक क्रांति हुई, भारत को दुनिया का सबसे अमीर देश माना जाता था। 

भारत की व्यापारिक समृद्धि यूरोप को बुरी तरह परेशान कर रही थी। इस दौरान यूरोपीय राजनेता भारतीय वस्तुओं के बदले सोने के निर्यात को बहुत नापसंद करते थे। 1708 में डैनियल डेफो ने अपनी साप्ताहिक समीक्षा में इंग्लैंड से भारत में इस धन के निर्यात के बारे में लिखा और सरकार से इस पर सख़्त क़दम उठाने को कहा। भारतीय वस्तुओं के इंग्लैंड में प्रतिबंध लगाने के लिए, विलियम तृतीय ने अध्याय 10 के अधिनियम 11 और 12 को रद्द कर दिया गया। अन्य यूरोपीय देशों ने भी भारतीय वस्तुओं के आयात और निर्यात को नियंत्रित करने के लिए इसी तरह के प्रयास किए। बेन्स ने लिखा कि सभी यूरोपीय सरकारों ने अपने निर्माताओं की रक्षा के लिए भारतीय वस्तुओं पर प्रतिबंध लगाना या भारी शुल्क लगाना आवश्यक समझा और लगाना प्रारंभ कर दिया। 

क़ानून इस मामले में मदद नहीं कर सका, लेकिन प्लासी की जीत और भारत में राजनीतिक शक्ति के प्रयोग ने 75 साल (1757 से 1829) से भी कम समय में स्थितियों को काफ़ी हद तक बदल दिया। भारत एक औद्योगिक देश की स्थिति से घटकर कच्चे माल की माँग को पूरा करने वाला देश बना दिया गया। इस प्रकार 1830 तक, अँग्रेज़ों ने कच्चे माल के एक बड़े हिस्से की आपूर्ति के लिए भारत की ओर देखना शुरू कर दिया। ग्रेट ब्रिटेन के उद्योग औद्योगिक क्रांति की प्रगति भारत से भेजे जाने वाले सस्ते कच्चे माल पर निर्भर हो गये। 

भारत के उद्योग-धंधों का विनाश

18वीं और 19वीं शताब्दी में भारतीय उद्योग के पतन के लिए बहुत सी बातें उत्तरदायी थीं। सबसे पहले, मुग़ल साम्राज्य के पतन के साथ होने वाले राजनीतिक विघटन ने देश की आर्थिक स्थिति को बहुत अधिक प्रभावित किया। 1757 में प्लासी के युद्ध में ब्रिटिश सत्ता की सफलता ने देश के व्यापार और उद्योग के यूरोपीयकरण का मार्ग प्रशस्त किया। इंग्लैंड की औद्योगिक क्रान्ति और भारत में अंग्रेज़ी साम्राज्य की स्थापना व प्रसार समससामयिक थे। इंग्लैंड में औद्योगिक क्रांति भी इसी समय हुई। इंग्लैंड का पूँजीपति वर्ग इस अवसर का पूरा लाभ उठाने के लिए उत्सुक था। जबकि भारत में, एक वाणिज्यिक वर्ग तो था, परन्तु इंग्लैंड जैसी औद्योगिक परंपराएँ नहीं थीं। भारत में विजय के आरंभिक दिनों में ईस्ट इंडिया कंपनी शीघ्रता से धन कमाने के लिए लालायित थी। जिसके परिणामस्वरूप उसने भारतीय उद्योग धंधों में लगे लोगों का निर्दयतापूर्वक शोषण किया। विभिन्न भारतीय वस्तुओं पर भारी शुल्क लगा दिए गए। इसके अतिरिक्त, विद्युत चालित मशीनों से अधिक मात्रा में उत्पादन ने भारतीय उद्योगों की स्थिति को और बिगाड़ दिया। मुख्य भारतीय निर्यातों का बाज़ार इससे फीका पड़ने लगा, उसकी माँग घटने लगी। उधर कंपनी ने अपनी आय बढ़ाने के लिए इंग्लैंड को सस्ते दामों पर भारत से कच्चा माल भेजना शुरू कर दिया। अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध तक भारत अँग्रेज़ों द्वारा अपने हितों के अनुसार तय दरों पर कच्चे माल का आपूर्तिकर्ता बन गया और यूरोपीय देशों में उत्पादित तैयार माल के लिए एक बाज़ार बन गया। 

अंत में, यूरोपीय एजेंसी हाउसों की शुरूआत ने भारतीय व्यापारियों के समूह, भारतीय बैंकर, सूदख़ोरों को बाज़ार से बाहर कर दिया। यही व्यक्ति बाद में ज़मींदारों में परिवर्तित हो गये। भारतीय व्यापार और उद्योग के पतन के परिणामस्वरूप, देश में ग्रामीणीकरण की प्रक्रिया शुरू हुई। इस प्रकार, जिस समय यूरोप ने ख़ुद को औद्योगिक बनाना शुरू किया, भारत में एक विपरीत प्रवृत्ति शुरू हुई, उद्योगों से पलायन। 

नए उद्योगों की स्थापना

कितना अजीब है जब भारतीय उद्योगों का विनाश किया जा रहा था, तब यूरोप में मुक्त व्यापार की नीति की वकालत की जा रही थी। ब्रिटिश सरकार ने तब भारतीय बाज़ार के निर्यात को बंद करके, भारत के बाज़ार को यूरोप के बाज़ार के लिये खोल दिया गया। इस तरह भारतीय बाज़ार यूरोपीय दुनिया के लिए खुल गया। भारत के शहरी औद्योगिक क्षेत्रों में विदेशी पूँजी का प्रवाह शुरू हो गया। मुख्य रूप से इस पूँजी का विदेशी व्यापार और बाग़ान उद्योगों में निवेश किया गया। 1848 के बाद, रेलवे और संचार के निर्माण के लिए बड़ी मात्रा में विदेशी पूँजी का निवेश किया गया, जिसने देश के औद्योगीकरण की पूरी प्रक्रिया में क्रांति ला दी। कपास की खेती, कोयला खनन, काग़ज़, लोहा और इस्पात जैसे विभिन्न उद्योग, जो उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में आए भारत में स्थापित किये गये। इन उद्योगों का विस्तार से वर्णन निम्नलिखित हैं:

सूती कपड़ा उद्योग:

कपास का जन्म स्थान भारत है। यह संभवतः प्रामाणिक इतिहास से बहुत पहले यहाँ विकसित था। भारतीय कपास व्यापार उस समय से अठारहवीं सदी के अंत तक व्यापक रूप से सब जगह फैला हुआ था। उन्नीसवीं सदी की शुरूआत में, जब ब्रिटिश उद्योग फलने-फूलने लगे, तब भारतीय उद्योगों में गिरावट आई। भारतीय कपास उद्योग के पतन के लिए आम तौर पर पावरलूम और अन्य यांत्रिक उपकरणों का आविष्कार, ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा अपने पक्ष में व्यापार पर एकाधिकार करना, इंग्लैंड में भारतीय कपास और कपास के सामान पर भारी शुल्क लगाना, भारत में आयातित ब्रिटिश स्टेपल पर शुल्क में छूट और समय-समय पर भारतीय वस्तुओं पर शुल्क बढ़ाना शामिल हैं। 

निम्नलिखित तालिकाएँ भारत में कपास के सामान के आयात और निर्यात को दर्शाती हैं। तालिकाओं से यह स्पष्ट है कि 1833 तक, भारतीय विनिर्माण बाज़ार से लगभग विस्थापित हो गए थे।

 

वर्ष

1814

1821

1828

1835

ब्रिटिश कपास,

आयातित, "000 गज में

81.8

1913.8

4282.2

 5177.7

 

वर्ष

आयात ०००£

 निर्यात ०००£

1815

  1,300

26.3

1832

100

400

 

     

             1840 तक, ईस्ट इंडिया कंपनी की भारतीय व्यापार में प्रत्यक्ष रुचि समाप्त हो गई। प्रशासक के रूप में अपनी नई भूमिका में, इसने भारतीय उद्योगों को हतोत्साहित और दमन करने वाले द्वेषपूर्ण शुल्कों को हटाने के लिए ब्रिटिश संसद में एक याचिका प्रस्तुत की। कंपनी के पूँजीपतियों को और भारतीय पूँजीपतियों को भारत में उद्योग स्थापित करने को प्रोत्साहित किया। 

भारत में इस नई औद्योगिक नीति की प्रकृति और क्षेत्र, कपास मिलों के इतिहास से अच्छी तरह से स्पष्ट है। 1850 तक, यूरोपीय कारख़ाना प्रणाली इतनी विकसित और समन्वित हो गई थी कि उसे पूर्व में प्रत्यारोपित किया जा सकता था। पहली कपास मिल 1854 में बॉम्बे में शुरू की गई थी और उन्नीसवीं सदी के अंत तक, उनकी संख्या बढ़कर 193 हो गई थी, जिनमें से 82 अकेले बॉम्बे क्षेत्र में थीं। 1877 के बाद नागपुर, अहमदाबाद, शोलापुर, कानपुर, कलकत्ता और मद्रास जैसे कई अन्य स्थानों पर कई कपास मिलें शुरू की गईं। जमशेदजी टाटा और मोरारजी गोकुलदास पहले भारतीय निर्माता थे जिन्होंने क्रमशः नागपुर और शोलापुर में मिलें शुरू कीं। 

ये मिलें मुख्य रूप से मैनचेस्टर और लंकाशायर डिज़ाइन पर बनाई गई थीं। हालाँकि, ये डिज़ाइन भारतीय जलवायु की आवश्यकताओं के अनुसार नहीं थे। इन मिलों में स्थापित अधिकांश मशीनें ब्रिटिश निर्मित थीं। भारत ने लंकाशायर की प्रथा का अनुसरण इन मिलों में किया गया। कपड़ा बुनने के लिये mule Spindle (खच्चर तकली) और सादे करघे का प्रयोग किया, जबकि भारत में बुने जाने वाले मोटे, सस्ते और सादे माल के लिए ऐसे करघे और तकली का इस्तेमाल करने का कोई आवश्यकता नहीं थी। जमशेदजी टाटा ने पहली बार इसे समझा और उन्होंने भारत में पहली बार नागपुर में अपने कारख़ाने में रिंग तकली लगाई। 

ब्रिटिश यूनाइटेड टेक्सटाइल फ़ैक्ट्री वर्कर्स एसोसिएशन द्वारा भारत के कपड़ा उद्योग की स्थितियों पर एक अध्ययन कर के 1926 में यह रिपोर्ट दी गई थी कि “समग्र रूप से देखा जाए तो भारत की मिलें भवन निर्माण, आधुनिक मशीनरी और आधुनिक श्रम-बचत उपकरणों के मामले में लंकाशायर की मिलों से बेहतर हैं।” 

किसी भी अन्य भारतीय उद्योग की तुलना में कपास में बड़ी मात्रा में पूँजी निवेश की गई थी। इसके बारे में सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि विदेशी पूँजी जिसने अन्य उद्योगों पर अपना दबदबा बना रखा था, उसका कपास उद्योग में बहुत कम स्थान था। इन मिलों से होने वाला मुनाफ़ा काफ़ी संतोषजनक था। अस्सी के दशक में कुछ कपड़ा मिलों ने पहले चार वर्षों में ही सारी पूँजी वापस कर दी थी। प्रथम विश्व युद्ध से पहले, ये मिलें पूँजी निवेश पर 11 से 12 प्रतिशत लाभांश देने लगीं थीं। 

इन कपास मिलों के उत्पादन में उनकी स्थापना के बाद से बहुत बड़ा बदलाव आया है। शुरूआत में वे मुख्य रूप से मोटे सूत कातते थे, लेकिन बीसवीं सदी की शुरूआत के साथ, इन मिलों ने कपड़े बुनने के लिए सूत का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। सूत के लिए विदेशी बाज़ार के बजाय घरेलू बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए करघे लगाने की प्रवृत्ति दिखलाई पड़ी। स्वदेशी आंदोलन और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार ने भारत में कपास उद्योग को और बढ़ावा दिया। 

वृक्षारोपण उद्योग

18वीं-19वीं सदी के दौरान भारत में नील, चाय, कॉफ़ी और रबर जैसे विभिन्न वृक्षारोपण उद्योग विकसित किए गए। इस अवधि के दौरान उनकी स्थिति निम्नलिखित खंडों में बताई गई है:

नील

भारत प्राचीन काल से ही अपने रंगों के लिए प्रसिद्ध रहा है। नील का इस्तेमाल मुख्य रूप से कपड़ा रँगने के लिए किया जाता था। उस समय पश्चिम में नील मुख्यतया वेस्ट इंडीज़ और दक्षिणी अमेरिकी उपनिवेशों से उन्नत क़िस्म का प्राप्त होता था। परन्तु १८ वीं शताब्दी के अंत में इंग्लैंड  कम्पनी द्वारा कपास निर्माण के विकास और अमेंरिकी और फ्रांसीसी क्रांतियों के साथ नील के व्यापार में गिरावट आने लगी॥तब कम्पनी के पूँजीपतियों ने भारत में नील का उत्पादन, एक व्यापक स्तर पर प्रारंभ किया। प्रारंभ में नील की खेती मुख्य रूप से यूरोपीय लोगों के अधिकार में थी। भारत में नील की खेती व उत्पादन अप्रत्याशित रूप से विकसित हुआ। 

काफ़ी समय तक नील निर्यात का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा। Item बना रहा और यूरोपीय बाग़ान मालिकों ने बड़ा मुनाफ़ा कमाया। 1831 में, बंगाल में 300 से 400 नील कारख़ाने थे और 1987 में, अकेले आजमगढ़ ज़िले में 415 कारख़ाने थे। 1829 में, लगभग 1-3 मिलियन एकड़ में नील की खेती होती थी और लगभग 9 मिलियन पाउंड नील का निर्यात किया जाता था। भारत में नील की खेती के मुख्य क्षेत्र बंगाल, बिहार, पूर्वी उत्तर प्रदेश, उड़ीसा और मद्रास थे। इंग्लैंड मुख्य बाज़ार था, जहाँ से इसे दुनिया के अन्य भागों में भेजा जाता था। 

पहले के दिनों में, नील का प्रसंस्करण/ processing मैन्युअल रूप से किया जाता था। उन्नीसवीं सदी के मध्य तक बिजली की भाप का उपयोग केवल नील के टैंकों के लिए ऊष्मा के स्रोत के रूप में गर्मी और पंपिंग के लिए में किया जाता था। (नील के मज़दूरों ने 1859-60 में नील की खेती का बहिष्कार कर दिया और उसके विरुद्ध व्यापक आंदोलन हुआ) 
उन्नीसवीं सदी के अंत में, जर्मनी में उत्पादित सिंथेटिक रंगों द्वारा पेश की गई तीव्र प्रतिस्पर्धा ने प्राकृतिक नील की खेती को लाभहीन बना दिया। 1897 से नील का क्षेत्रफल और उत्पादन तेज़ी से कम हो गया। 1901-02 में, निर्यात 1896 से आधे से भी कम हो गया। 1904-05 में, नील की खेती का क्षेत्र 1894-95 की तुलना में लगभग एक तिहाई था। इस प्रकार उन्नीसवीं सदी के अंत में, नील उद्योग का लगभग विलुप्त होना शुरू हो गया। 

चाय

नील की खेती के अलावा, यूरोपीय लोग भारत में चाय के प्रसंस्करण/ processing की ओर आकर्षित हुए। अठारहवीं शताब्दी के दौरान, कंपनी ने चाय की शुरूआत का प्रस्ताव रखा था, लेकिन इंग्लैंड में कम्पनी के निदेशकों ने इसे ठुकरा दिया था। परन्तु 1834 में, भारत में चाय की शुरूआत करने की योजना को मंज़ूरी दे दी गई। चीन से चाय के बीज, पौधे और मज़दूर लाए गए और हिमालय के दक्षिणी ढलानों और असम में कई जगहों पर प्रायोगिक उद्यान शुरू किए गए। 1838 में पहली बार भारतीय चाय का विपणन लंदन में किया गया और 1838 में असम कंपनी का गठन किया गया। अपने संचालन के पहले दशक के दौरान, असम कंपनी ने कोई लाभ नहीं कमाया और काफ़ी पूँजी का नुक़्सान हुआ। पचास के दशक की शुरूआत में, इसने बड़ा मुनाफ़ा कमाना शुरू कर दिया और इसके साथ ही चाय बाग़ानों का विस्तार शुरू हुआ। निम्न तालिका 1850-1871 की अवधि में असम में चाय की खेती और उत्पादन के क्षेत्र में वृद्धि खो दर्शाती है: 

वर्ष 

चाय की खेती के तहत

क्षेत्र एकड़ में

चाय का उत्पादन

(000 पॉउंड में)

1850

1,876 

 216

1853

 2,425  

366.7

1859

7,599

1205.7

1869

25,174

4714. 7

1871

31,303

6251.1

 

चाय बाग़ानों में बहुत से व्यक्तियों की आवश्यकता थी। क्योंकि चाय की नाज़ुक पत्तियों को तोडने, एकत्र करने, छाँटने, छानने, कारख़ाने तक पहुँचाने के लिये बहुत से व्यक्तियों की आवश्यकता थी। यह सब काम मनुष्यों के द्वारा ही होता था। अतः इससे रोज़गार के नये अवसर आये। बहुत से व्यक्तियों ने इसमें काम करना प्रारंभ कर दिया। एक साधारण अनुमान के अनुसार 1887 में चाय बाग़ानों में लगभग 500, 000 कर्मचारी कार्यरत थे। (बॉलिवुड मूवी में कई हीरो को इन बाग़ानों में मैनेजर का पद सँभालने की नौकरी मिलना दिखाया गया है) 

कॉफ़ी

कॉफ़ी एक अन्य बाग़ान उद्योग है। भारत में ये उद्योग भी यूरोपीय लोगों के प्रभाव में विकसित हुआ। ईस्ट इंडिया कंपनी ने 1823 की शुरूआत में ही कॉफ़ी उगाने में रुचि दिखाई। कॉफ़ी की खेती के लिए लंबे समय के लिये पट्टे पर ज़मीन देने जैसे बड़े प्रलोभन भी दिए गये। 1830 में, लगभग 4000 एकड़ ज़मीन पर कॉफ़ी की खेत की जाती थी, लेकिन पैदावार कम थी। दक्षिण भारत के ऊँचे इलाक़ों में कुछ प्रयोग सफल साबित हुए और कुछ ही वर्षों में मैसूर और आसपास के पहाड़ी क्षेत्र, एक महत्त्वपूर्ण कॉफ़ी उत्पादक क्षेत्र बन गए और आज भी कॉफ़ी की आपूर्ति का एकमात्र स्रोत बने हुए हैं। 

1850 और 1860 के बीच कॉफ़ी उद्योग में कुछ विशेष तरक़्क़ी नहीं हुई। लेकिन बाद में जब कई यूरोपीय लोगों ने कॉफ़ी के बाग़ान लगाए तो कॉफ़ी उद्योग में पर्याप्त उछाल आया। हालाँकि, 1877-1887 की अवधि के दौरान, ब्राज़ील से सस्ती कॉफ़ी की पेशकश की वजह से 263 बाग़ानों को छोड़ दिया गया। अगले दशक के दौरान कॉफ़ी को और भी अधिक नुक़्सान हुआ। प्रथम विश्व युद्ध और युद्ध के बाद की अवधि के दौरान क़ीमतों में वृद्धि के साथ, कॉफ़ी उद्योग भी लाभदायक हो गया और कॉफ़ी की खेती के अंतर्गत आने वाला क्षेत्र धीरे-धीरे बढ़ता गया। 

रबर

रबर सबसे बाद में विकसित बाग़ान उद्योग है। इसे सरकार के कहने पर 1870 के दशक में ब्राज़ील से लाया गया था। त्रावणकोर के महाराजा ने लगभग 1900 में अपने राज्य में रबर की शुरूआत की। वहाँ से रबर के बाग़ान कोचीन, कूर्ग और मालाबार के पड़ोसी क्षेत्रों में फैल गए। रबर के बाग़ान लगाने का काम मुख्य रूप से यूरोपीय लोगों ने किया। शुरूआत में प्रगति बहुत धीमी थी लेकिन 1906 के बाद यह और तेज़ हो गई। 

कोयला खदानें और खनन

कोयला आधुनिक आर्थिक जीवन की सबसे ज़रूरी वस्तुओं में से एक है। हालाँकि यह प्राचीन काल से ही भारत में प्रयुक्त होता था। लेकिन बड़े पैमाने पर इसके उत्पादन का इतिहास छोटा है। छोटा नागपुर के ब्रिटिश मजिस्ट्रेट, श्री एस. जी. हीटली, शायद पहले साहसी व्यक्ति थे जिन्होंने बड़े पैमाने पर कोयला खनन किया। 1774 में, श्री हीटली ने श्री जॉन समर के साथ मिलकर बंगाल के तत्कालीन गवर्नर जनरल वारेन हेस्टिंग्स से पाचेटे/ Pachete और बीरभूम में कोयला खनन का विशेषाधिकार प्राप्त किया। बाद में, श्री रेडफर्ने भी इस उद्यम में शामिल हो गए और उन्हें बंगाल और उसके आश्रित क्षेत्रों में कोयला खनन और बिक्री का विशेष अधिकार दे दिया गया। संयुक्त उद्यम ने छह खदानों का संचालन किया और 1777 में 90 टन कोयला उत्पादित किया। श्री हीटली के स्थानांतरण के कारण इस उद्यम को बहुत बड़ा झटका लगा। 

1814 में, श्री जोन्स, एक सेवानिवृत्त खनन इंजीनियर को भारत में कोयला खनन की संभावनाओं का पता लगाने के लिए वारेन हेस्टिंग्स के सुझाव पर भारत भेजा गया था। श्री जोन्स ने भारत में कोयला खनन की संभावनाओं को बहुत उज्ज्वल पाया। फिर उन्हें सरकार ने 40, 000/-रुपये की वित्तीय अग्रिम राशि इस काम के लिये दी। इस रक़म से उन्होंने रानीगंज में एक खदान खोली। जल्द ही उनकी मृत्यु हो गई, कलकत्ता की एक फ़र्म जिसने गारंटर के रूप में काम किया था, ने खनन कार्यों को अपने हाथ में ले लिया। 1831 तक, यह कंपनी सालाना 15, 000 टन कोयला खनन कर रही थी। इस खदान की सफलता के बाद रानीगंज में कई अन्य खदानें खोली गईं। 1843 में कुछ consolidation। संस्थापन, एकत्रिकरण, समेकन के परिणामस्वरूप बंगाल कोल कंपनी का गठन हुआ। कोयले की माँग में कमी के कारण शुरूआत में कोयला खनन की प्रगति धीमी रही। दामोदर नदी के माध्यम से कोयले का परिवहन पूरे साल नहीं हो सकता था, क्योंकि साल के अधिकांश समय पानी उथला रहता था। फिर भी, 1831 में, ईस्ट इंडिया कंपनी ने अपने स्टीमशिप के लिए सिंगापुर, मद्रास, सीलोन और पेनांग को कोयला भेजा। 1839 में कोयले का उत्पादन 36, 000 टन और 1846 में 91, 000 टन था। 

आधी सदी, 1850 के अंत में कोयला खनन के लिए भी नए क्षितिज खुले। उद्योगों और उनके सहायक उपकरणों की स्थापना के परिणामस्वरूप कोयले की माँग में वृद्धि हुई। इसके अलावा, 1854 में कलकत्ता और रानीगंज के बीच रेल परिवहन की शुरूआत ने भी कोयले के नियमित परिवहन में मदद की। 1860 तक, रानीगंज में 50 कोयला खदानें काम कर रही थीं। 1905 में भारत में कोयला खदानों की संख्या बढ़कर 555 हो गई। नीचे दी गई तालिका भारत में कोयले के कुल उत्पादन को दर्शाती है। 

भारत में कोयला उत्पादन

वर्ष

1831

1839

1846

1868

1880

1900

1912

कोयले का उत्पादन हज़ार टन में

15

36

91

500

1,000

6,000

12,000

 

तालिका से स्पष्ट है कि भारत में कोयले का उत्पादन लगातार बढ़ा। उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में उत्पादन में वृद्धि बहुत तेज़ी से हुई थी। इस अवधि के दौरान कोयले की बढ़ती माँग इस बात का उदाहरण है कि उस समय तक औद्योगीकरण की प्रक्रिया शुरू हो चुकी थी। 

काग़ज़ उद्योग

हाथ से काग़ज़ बनाने का काम भारत में सदियों से होता आ रहा है, लेकिन मशीनों के ज़रिए काग़ज़ बनाने की शुरूआत 1870 में हुगली में बैली मिल्स की स्थापना के साथ हुई थी। इसने एक ही मशीन से काग़ज़ का उत्पादन शुरू किया। मशीन से बने काग़ज़ की लोकप्रियता और माँग ने बैली मिल्स को 4 और मशीनें लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। बैली मिल्स प्रति वर्ष लगभग 5, 000 टन काग़ज़ का उत्पादन करती थी। कुछ कारणों से इस कंपनी को 1905 में बंद कर दिया गया। दूसरी पेपर मिल 1884 में टीटागढ़ में और तीसरी 1894 में हुगली में स्थापित की गई। हुगली की पेपर मिल को बाद में टीटागढ़ पेपर मिल ने अपने में मिला लिया। 

देश की सबसे पुरानी मिलों में से अपर इंडिया कूपर पेपर मिल्स कंपनी लिमिटेड की स्थापना 1879 में लखनऊ में की गई थी। एक मशीन वाली दूसरी मिल को महाराजा सिंधिया ने 1881 में ग्वालियर में बनवाया था। इसे अंततः बंद करना पड़ा क्योंकि इसे लाभ पर नहीं चलाया जा सकता था और बाद में इसका प्रबंधन बंगाल पेपर मिल कंपनी लिमिटेड ने अपने हाथ में ले लिया। इसे अंततः 1922 में बंद कर दिया गया। डेक्कन पेपर मिल कंपनी लिमिटेड ने 1887 में पूना में उत्पादन शुरू किया लेकिन 1924 में परिचालन बंद कर दिया। 
बंगाल पेपर मिल कंपनी लिमिटेड सबसे महत्त्वपूर्ण पेपर मिल थी जो रानीगंज में स्थित थी। यह कंपनी 1891 में पहली बार एक मशीन के साथ बनाई गई थी, लेकिन बाद में 1892, 1900 और 1922 में तीन और मशीनें जोड़ी गईं। तीन अन्य छोटी महत्त्व की पेपर मिलों में से दो बॉम्बे में और एक त्रावणकोर राज्य के पुनालुर में थी। इन मिलों में केवल सामान्य और सस्ते क़िस्म का काग़ज़ ही बनाया जाता था। 

लोहा और इस्पात

भारत में लोहे, इस्पात का इस्तेमाल हथियारों, सजावटी उद्देश्यों और विभिन्न औज़ारों और उपकरणों के लिए किया जाता था। इससे उल्लेखनीय रूप से उच्च श्रेणी की वस्तुएँ बनाई जाती थीं। दिल्ली में प्रसिद्ध लौह स्तंभ इसका एक उदाहरण है। पूरे देश में पुरानी लोहा गलाने वाली भट्टियों के अवशेष पाए गए हैं। लोहे का उत्पादन व्यापक रूप से बिखरे हुए समुदायों द्वारा उनके सदियों पुराने पारंपरिक तरीक़े से किया जाता था। 

देश में आधुनिक तकनीक से लोहा और इस्पात के उत्पादन का इतिहास 1777 से शुरू होता है, जब मेसर्स फरगुहर और मोट्टे ने झरिया में मिस्टर हीटली की कोयला खदान के पड़ोस में तोप चलाने और गोली और गोला फेंकने वाली मशीन बनाने वाली मिल लगाने की अनुमति माँगी थी। क़रीब दो साल बाद इस उद्यम को बंद करना पड़ा। वर्ष 1808 में मिस्टर डंकन ने ईस्ट इंडिया कंपनी के संरक्षण में एक छोटा कारख़ाना स्थापित किया लेकिन इसे भी बंद करना पड़ा। मद्रास सरकार के अनुरोध पर 1825 में मिस्टर जोशिया मार्शल हीथ को कंपनी के क्षेत्र में लोहा गलाने और इस्पात बनाने का विशेष अधिकार दिया गया। मिस्टर हीथ को कंपनी ने क़र्ज़ भी दिया था। परन्तु वे अच्छा प्रदर्शन नहीं कर सके। 1835 तक उनका क़र्ज़ बढ़कर 5,71,000 रुपये हो गया ईस्ट इंडिया आयरन कंपनी ने 1853 में उनकी सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। हालाँकि इसने 1855 में 2150 टन कच्चा लोहा बनाया, लेकिन इसे 392 पाउंड का घाटा हुआ। अंततः 1874 में सरकार ने इस सम्पत्ति पर कब्ज़ा कर लिया। 

इन उपक्रमों की विफलता के कारणों को जानने के लिए जाँच की गई। लोहे के नमूने जाँच के लिए इंग्लैंड भेजे गए। ये स्वीडन से आयात किए गए नमूनों से बेहतर पाए गए। जाँच रिपोर्टों में से एक में कहा गया कि विफलता अनुभवहीनता, दोषपूर्ण मशीनरी और पूँजी की कमी के कारण थी। यह भी महसूस किया गया कि भारतीय लौह उद्योग केवल पूरी तरह से आधुनिक तरीक़ों और उन क्षेत्रों में सफल हो सकता है जहाँ कोयला और लोहा आस पास में हों। 

1839 में, मेसर्स जेसप एंड कंपनी ने रानीगंज कोयला क्षेत्र में बराकर के पास एक प्रायोगिक लौह कारख़ाना स्थापित किया, लेकिन इसे जल्द ही बंद कर दिया गया। 1855 में, एक अन्य फ़र्म मेसर्स मैके एंड कंपनी ने बीरभूम आयरन वर्क्स शुरू किया। 1858 में यह प्रतिदिन 2 टन कच्चा लोहा उत्पादित करता था, लेकिन चारकोल की उपलब्धता की कमी के कारण 1860 में इसे बंद कर दिया गया। मिस बर्न एंड कंपनी ने 1875 में इसी कार्य का संचालन किया, लेकिन जल्द ही इसे छोड़ दिया। सरकार द्वारा कैम्बे की खाड़ी में इसके मुहाने से लगभग 200 मील ऊपर नेरबुड्डा नदी पर एक लोहे का कारख़ाना संचालित करने का एक और प्रयास किया गया। 1864 में, परियोजना के प्रभारी कैप्टन कीटिंग्स का तबादला कर दिया गया। सरकार ने, हालाँकि परियोजना पर लगभग 7.5 लाख रुपये ख़र्च किए थे, लेकिन काम बंद करने का फ़ैसला किया। इस तरह कम्पनी सरकार व अँग्रेज़ों के द्वारा चारकोल से लोहा वह इस्पात बनाने के लम्बी शृंखला, और उनकी विफलता के बाद इसे बंद कर दिया। 

इस विफलता के बाद भी लोहा व इस्पात बनाने की दिशा में प्रयास जारी रहे। 1875 में लोहे को पिघलाने के लिया कोयले का उपयोग किया गया। मिस्टर नीस ने कोयले और अयस्क (ores) की सहायता से लोहा बनाने का काम मध्यप्रदेश के बांदा ज़िले में प्रारंभ किया। उन्हें सरकार द्वारा यह कार्य सौंपा गया था। लेकिन कोयले से बनने वाली राख बहुत बड़ी समस्या बन गई। इसी समय बंगाल आयरन कम्पनी ने आसनसोल में इस्पात मिल शुरू की। परन्तु पर्याप्त पूँजी व सरकारी सहायता के अभाव में मजबूरन उसे बंद करना पड़ा। 

इस संयंत्र को 1981 में गवर्मेंट ने अधिकार में ले लिया। जिसका संचालन श्री वॉन श्वार्ट्स द्वारा आठ वर्षों तक किया। एक रिपोर्ट के अनुसार इसमें 1954-1989 के दौरान 30,000 टन पिग आयरन का उत्पादन किया गया। बाद में इस संयंत्र को बंगाल आयरन एंड स्टील कंपनी को बेच दिया गया। इस कंपनी को सरकार से पर्याप्त समर्थन व सहायता मिली। तब भी सदी के अंत तक कंपनी अच्छी तरह से नहीं चल पाई। बाद में 20वीं सदी की शुरूआत में, अन्य लौह और इस्पात विनिर्माण कंपनियाँ आधुनिक उपकरणों के साथ आईं और लौह व इस्पात कम्पनी के रूप में स्थापित हुईं। 

उपर्युक्त विवरण के आधार पर यह कहा जा सकता है कि इतनी असफलताओं के बावजूद देश में लौह और इस्पात उद्योग स्थापित करने के प्रयास निरंतर होते रहे। 

समीक्षा

18वीं-19वीं सदी के दौरान भारत के बारे में जानकारी देते हुए पता चलता है कि उन्नीसवीं सदी के उत्तरार्ध में कलकत्ता, बॉम्बे और मद्रास तक रेलें पहुँच गईं। जिसने मिलों की प्रगति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। बंगाल और बिहार में कोयला खदानों पर गंभीरता से काम शुरू हुआ; बॉम्बे में पहली कपास मिल और बंगाल में पहली जूट मिल शुरू हुई; मशीनों के ज़रिए काग़ज़ बनाने के सफल प्रयास किए गए। इसने ही भारत में औद्योगीकरण की नींव रखी। 

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लेखक:उषा रानी बंसल इतिहास विभाग बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी व डॉ. बी. बी. बंसल यांत्रिक अभियांत्रिकी विभाग प्रौद्योगिकी संस्थान बनारस हिंदू विश्वविद्यालय वाराणसी) 
नोट: इंडियन जर्नल ऑफ़ हिस्ट्री ऑफ़ साइंस, 19 (3): 215-223 (1984) में प्रकाशित

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