अंधा भिखारी
डॉ. उषा रानी बंसल
यह घटना उस समय की है जब दिल्ली में इतनी भीड़ नहीं थी। चाँदनी चौक सदैव चाँदनी से नहाया रहता था। बिरला मंदिर बन चुका था। उसमें बहुत बड़ी संख्या में भक्त आते थे। जहाँ भक्त वहाँ भिखारी। मंदिर में बडे़ बडे़ भक्त प्रभु से भीख माँगते थे। मंदिर के बाहर बहुत से भिखारी दानपात्र ले कर बैठे रहते थे। मंदिर से निकलने वाले भक्त-भिखारी इन्हें भीख देते थे। भक्त भी क़िस्म-क़िस्म के थे। कोई भक्त, मुक्त हस्त से दान करता था तो कोई एक पैसा, इकन्नी भी कठिनाई से मजबूरन भीख में देता। उनका बस चलता तो भिखारी के पैसे उठा लेते। कभी-कभी बच्चे ऐसा कर भी लेते थे। इन भिखारियों में एक सुंदर नौजवान भिखारी था। परन्तु उसको दिखाई नहीं देता था। उसमें कुछ दीनता का भाव लिए ऐसा आकर्षण था कि सब कुछ न कुछ उसकी कथरी पर रख जाते थे। वह सदा राम का भजन गाता रहता था। मंदिर के पट बंद हो जाने पर वह अपने साथ बैठने वाली भिखारिन के साथ उसकी झोंपड़ी में चला जाता। जहाँ वह उसका पकाया खाना खा कर, एक कोने में पड़ कर सो रहता। ऐसा करते-करते जाने कितने वर्ष बीत गये। भिखारी को वह भिखारिन अच्छी लगने लगी। कभी-कभी वह सोचता कि जो मेरी माँ की तरह मेरी इतनी देखभाल करती है, जिसकी आवाज़ इतनी मीठी है, वह कैसी दिखती होगी? वह अपने मन में उसके कितने ही काल्पनिक चित्र बनाता। कभी कभी भगवान से कहता आपने मुझ अंधे पर इतनी कृपा की है, कि धन्यवाद के लिए शब्द भी नहीं है। आप तो अंतरजामी है, बस एक पल के लिए आँखों में रोशनी दे दो, जिसे में इस दया की देवी के दर्शन कर सकूँ।
जाने ईश्वर ने कब उसकी विनती सुन ली। मंदिर में आने वाला एक व्यक्ति उसे भीख देने के बाद उसका भजन सुनने के बहाने उसकी आँखों को देखता रहता। उससे उसके बारे में बात भी करता रहता था। एक दिन उसने उसकी आँखों की रोशनी की बारे में पूछ ही लिया। बात आई गई हो गई।
मंदिर के कपाट बंद हो गये थे। वह व्यक्ति उस भिखारी के पास आ कर बोला कि वह आँखों का डॉक्टर है। उसकी आँखों का ऑपरेशन कर उसकी रोशनी लौटाने का प्रयास करना चाहता था। प्रभु की कृपा हो गई, तो आप देखने लगेंगे। अंधा क्या माँगे दो आँखेंं। उसने ख़ुशी से हाँ कर दी। डॉक्टर ने उसका पता पूछ लिया और कहा कि वह कल सुबह आकर गाड़ी से उसे ले जायेगा। भिखारी-भिखारिन ख़ुशी से फूले न समाये। रात बड़ी मुश्किल से जाग कर बिताई। सुबह होते ही दोनों प्रातः कालीन क्रिया से निवृत्त हो, डॉक्टर की प्रतीक्षा करने लगे।
डॉक्टर गाड़ी ले कर आया और दोनों को ले गया। उस समय आँख के ऑपरेशन के बाद बहुत सतर्कता बरती जाती थी। बीमार को कम से कम एक सप्ताह अस्पताल में रखते थे। यह तो कुछ विशेष केस था। डॉक्टर भी बहुत उत्साहित था, व्यग्र था। डॉक्टर ने पूरी सावधानी से उसकी जाँच पड़ताल की। और अगले दिन ऑपरेशन करने को कहा। जैसा तय हुआ था, आँखों का ऑपरेशन कर के आँख पर पट्टी बाँध दी। डॉक्टर ने उसे अपने छोटे से अस्पताल में एक बेड पर लिटा दिया। डॉक्टर ने ऑपरेशन के बाद उसे बताया कि ऑपरेशन सफल हुआ था। वह अपनी कामयाबी पर बहुत ख़ुश था। फिर भी उसने भिखारी से कहा कि लक्ष्मीनारायण ने चाहा तो रोशनी आ जायेगी।
भिखारिन अब अपनी भीख माँगने की जगह चली गई। रोज़ी-रोटी का भी तो सवाल था। मंदिर आने से पहले एक बार उस का हालचाल पूछ आती। इस तरह दिन बीतते रहे। पट्टी खोलने का दिन आ गया। भिखारी और डॉक्टर दोनों ही बहुत आशान्वित व देखने के लिए व्यग्र थे कि रोशनी लौटी क्या? पट्टी खोल कर धीरे-धीरे आँखें खोलने को भिखारी को सलाह दी। कमरे में प्रकाश भी मध्यम रखा था। कमरे में आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी दौड़ गई जब भिखारी ने बताया कि वह डॉक्टर साहब की उँगलियों, हाथ, चेहरे को देख सकता है। आख़िरकार उसकी दुआ प्रभु ने क़ुबूल कर ली। उसकी मन्नत पूरी हो गई। डॉक्टर ने कुछ एतिहात बरतने की हिदायत दी। दवाई वग़ैरा भी दीं और अगले दिन आकर चैक अप कराने को कहा।
अंधा भिखारी अब देख सकता था। वह जल्द से जल्द अपनी साथिन को देखना चाहता था, जो कमरे के बाहर उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। डॉक्टर ने उसे कमरे में बुला कर उसे सावधानी से ले जाने को कहा। भिखारिन भी उससे मिलने को उतावली थी। जब डॉक्टर ने कहा कि ये थी आपकी दुख सुख की साथिन। उसे सहसा अपनी आँखों पर विश्वास ही नहीं हुआ। उसने कई बार आँख खोलीं, फिर बंद कीं। वह भिखारिन साँवली थी। उसके दाँत बाहर निकले हुए और पान, सुरती से रंगे थे। उसकी कल्पना का संसार एक बार में ही ढह गया। उसे लगा जैसे स्वप्न में कोई राजा जागने पर भिखारी बन जाये।
अपने विचारों को संयत करके हुए वह भिखारिन के साथ चला गया। एक दो दिन बाद वह एक दिन शाम को मंदिर का पट खुलने पर अपनी भीख माँगने की जगह पर जा कर बैठा। मंदिर में आने जाने वालों को देखने के साथ उनके हाव-भाव, भिखारियों की आपसी छीना-झपटी, पुलिस का व्यवहार देख कर उसका दिल बैठ गया। पुलिस वाले ख़ुद भिखारियों से भीख माँग रहे थे या यूँ कहे जबरन हफ़्ता वसूली कर रहे थे। उनके हाव-भाव बहुत निंदनीय थे। उसने सोचा, क्या इसके लिए उसने आँखें माँगी थीं? वह सोचने लगा कि संसार इतना बुरा है! ईश्वर की बनाई दुनिया में इतना अनाचार, धर्म के नाम पर अधर्म, लूट खसोट, आदमी आदमी में भेद-भाव था? उसका मन वितृष्णा से भर गया। उसके दिमाग़ में कोलाहल मच गया। मन की शान्ति, जो पहले थी वह समाप्त हो गई। वह सिर पकड़ कर बैठ गया।
ऐसे में, उसके मन में, मंदिर में होने वाली भागवत कथा के प्रसंग चक्कर काटने लगे। जिसमें एक प्रसंग जो उसे कभी समझ में नहीं आता था, अचानक समझ में आ गया।
प्रसंग बताना आवश्यक है। जब कुरुक्षेत्र के मैदान में कौरव और पांडव के बीच युद्ध होना निश्चित हो गया तो धृतराष्ट्र बहुत चिंतित हो गया। वह युद्ध की पल-पल की घटना घटित होते देखना चाहते थे। तब उनके पिता श्री व्यास जी वहाँ आये और उन्होंने ने धृतराष्ट्र को युद्ध देखने के लिए दिव्य दृष्टि देने को कहा। लेकिन धृतराष्ट्र ने लेने से, विनम्रता पूर्वक मना कर दिया और कहा कि आप यह कृपा कर संजय को दिव्य दृष्टि दे दीजिए। तब वह सोचता था कि धृतराष्ट्र ने दिव्य दृष्टि क्यों नहीं ली? वह होता तो अंधत्व से हमेशा के लिए मुक्त हो जाता!
उसे अब दृष्टि पाकर समझ में आया कि वास्तविकता, सत्य को देखना, सहना, जीना उसका सामना करना कितना कठिन है। तभी प्रभु के चतुर्दश रूप का दर्शन कर अर्जुन भयभीत हो गया। दुर्योधन, यशोदा माता घबरा गईं होगी। उन्होंने ईश्वर को सौम्य मानव रूप में दर्शन देने की विनति की होगी। ज़िन्दगी का सत्य देखने व सुनने व भोगने में कितना अंतर है। भिखारी के जीवन में इस दृष्टि ने इतनी उथल पुथल मचा दी कि जब अगले दिन डॉक्टर को आँख दिखाने गया तो डॉक्टर से हाथ जोड़कर बोला, “मेरी रोशनी ले लीजिए, मुझे फिर से अंधा बना दीजिए!”
1 टिप्पणियाँ
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एक अच्छी ,सुंदर, कहानी।मनुष्य की लालसा,लिप्सा,ओछी विचारणा का भाव ,जो संसार में व्याप्त है उनका भिखारी के माध्यम से अभिव्यक्त किया गया है
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