आज के शहर और कल के गाँव
डॉ. उषा रानी बंसलजब हम गाँव में रहते थे
तो
वहाँ —
रात को गाँव सोता था
दिन में गाँव जग जाता था,
दिन रात सूरज की घड़ी के साथ होता था।
जब से बड़े शहरों में रहने लगे,
तो—
न तो शहर रात को सोता है
और न दिन में जागता है।
पौ फटने, सूरज निकलने
मुर्ग़े की बाँग, चिड़ियों का कलरव
गाँवों की गँवई वस्तु है,
मोबाईल का अलार्म,
कारों की सरसराहट,
चिल्लाते कानफोड़ू हॉर्न /
तेज़ रफ़्तार कारों की आवाज़
शहरों की पहचान हैं।
शहर वह है!
जो न कभी सोता है
न कभी जागता है।
जब गाँव सो जाते,
तो -
चोर चोरी करते,
डाका डालते,
जैसे चोरी का समय रात के साथ तय हो।
शहर में रात की दरकार ही नहीं है,
दिन व रात, सुबह हो शाम,
चोरी, डाका, छिनैति
सारे अपराध दिन के उजालों के सताये नहीं है,
(दिन में खुल्लम खु्ल्ला )
और न ही
अँधेरों के मोहताज हैं।
हमारे गाँव आज भी
सोते हैं,
ओ! पौ फटने पर जागते हैं।
परन्तु
शहर सोना नहीं जानते।
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