कुछ अनुभव कुछ यादें—स्लीप ओवर
डॉ. उषा रानी बंसल
यूरोप, अमेरिका, कैनेडा, ऑस्ट्रेलिया में बच्चों व टीनएजर के लिए स्लीप ओवर! (मनभावन मित्रों के साथ रात बिताना) एक इम्पोर्टेन्ट इवेंट है। अंग्रेज़ी कहानियों और उपन्यासों में, इसका बहुत ही रोचक विस्मयकारी रोमांचक वर्णन विस्तार से मिलता है। बच्चे भी उसी ज़िंदगी को जीने के लिए आपस में स्लीप ओवर का दिन तय कर लेते हैं। वह अमुक दिन किस के घर, रात को प्रैंक करेंगे, धमाल मचाएँगे। कुछ रोमांचक रोंगटे खड़े करने वाले कारनामें करेंगे। कितने सपने लेकर सोने का प्रोग्राम बनाते हैं। भारत में स्लीप ओवर जैसा कुछ नहीं होता। शायद वहाँ प्रतिदिन, गरमी जाड़ों की छुट्टियों में स्लीप ओवर जैसा धमाल होता ही रहता है। कल जब १० वर्ष के पोते ने स्कूल से आकर बताया कि यह मेरा मित्र आज हमारे घर स्लीप ओवर करेगा तो मुझे लगा कितना बड़ा हो गया है वह, अपने निर्णय ख़ुद लेने लगा। साथ ही साथ बचपन व युवा होने पर परिवार के सदस्यों के साथ स्लीप ओवर की बहुत सी घटनाएँ मस्तिष्क में उठा-पटक करने लगीं। हमने कई भारत जीये हैं अर्थात् समय की धुरी पर बदलते भारत के कई सोपान देखे व अनुभव किए हैं। भारतीय परिवार में शहर, क़स्बे और गाँव में जीवन जिया है। इसमें सबसे पहले गाँव के जीवन से बात शुरू करते हैं, गाँव का जीवन शहर से भिन्न होता है।
गाँवों का पारिवारिक जीवन:
यूँ तो आप सबने गाँव देखें हैं, वहाँ के जीवन का अनुभव (जिया) भी होगा। फिर भी गाँव के घरों का छोटा परिचय देना आवश्यक है। गाँवों में साधारण व्यक्तियों के घर छोटे होते हैं। परन्तु गाँव के ज़मींदार, सम्पन्न परिवारों के घर बड़े, महलनुमा घर, हवेली, कोट आदि बड़े-बड़े होते हैं।
साधारण परिवार संयुक्त परिवार होते हैं। इसी कारण सदस्यों की संख्या भी अधिक रहती है। सबके लिए अलग-अलग शयनकक्ष कक्ष नहीं होते। प्रति व्यक्ति अलग शयनकक्ष तथा अलग शय्या की बातें तो उन्हें राजघरानों, महलों व परीलोक की कथा जैसी लगती हैं। घरों में चारपाई, गद्देदार बिस्तर (बेड) के नाम पर कहीं एक या दो तख़्त ही होते हैं। ये तख़्त मेहमान नवाज़ी ये काम आते हैं। गाँव में दिन तो रसोई घर, आँगन, खेत खलिहान, चौपाल, औसारे (घर के दरवाज़े से बरामदे तक के बीच की ख़ाली जगह) में बीत जाता है। रात को दालान, हॉल में दरी, चटाई, चादरें बिछाकर सब एक साथ ही सोते हैं। सर्दी में पुआल बिछा कर भी सोते हैं। थक हार कर सोने के लिये लेटते ही, व्यक्तियों को नींद भी तुरंत घेर लेती है, तब घंटा बज रहा है या खर्राटों का घड़ियाल, किसको सुनाई देता है। कभी-कभी कुत्ता भी पास में आकर सो जाता है। (अनुभव से लिख रही हूँ) यह सह-अस्तित्व है या कि भारतीय संस्कृति, या यह किसी और युग की दास्तां? गाँवों में आज भी इसी तरह का जीवन देखने को मिल जाएगा। वहाँ ऐसा स्लीप ओवर बाबा आदम के ज़माने से चला आ रहा है।
इन गाँवों में कुछ संपन्न परिवारों और ज़मींदारों के घर पक्के होते थे। जिनमें एक आँगन, उसके दोनों तरफ़ बरामदा, बरामदे के बाद कुछ हवादार कोठरी, कमरे बने होते हैं। जब कोई नव नवेली दुलहन घर आती है, तब उसे कोई कमरा या कोठरी दे दी जाती है। फिर एक और नई बहू के आने पर वही कोठरी या नई कोठरी अथवा छत पर कोठा बनवा कर दे दिया जाता है। कई बार दूसरी नई बहू को पुरानी बहू की कोठरी मिल जाती है। पुरानी दुलहन अपने बाल बच्चों सहित अन्य महिलाओं के साथ सोने लगती है। वहाँ न किसी के पास शयनकक्ष होता है और न ही अलग सेज या शय्या, अलग बिस्तर, अलग बैड, सब कुछ सबका साझा होता था।
क़स्बों के जीवन पर एक नज़र
गाँव के उसी परिवेश में पल-बढ़ कर, सरकारी पाठशाला में गुरु जी की संटी का खाकर, मुर्ग़ा बन बनकर कई लड़के क़स्बों के स्कूलों में पढ़ने भेज दिये जाते थे। यहाँ भी उन्हें किसी दूर के अथवा, पास के रिश्तेदार अथवा परिचित के मित्र परिवार में शरण लेनी पड़ती थी। वहाँ भी उसे अमुक परिवार के साथ रहना, खाना तथा सोना होता था। उसे वहाँ घर के काम में भी अन्य सदस्यों के साथ हाथ बटाना पड़ता था। क़स्बे के घर ईंटों के होते थे। पर घर गाँव के घरों से छोटे होते थे। रहने, खाने का बंदोबस्त हो गया यही बहुत बड़ा उपकार माना जाता था। कुछ करने की उत्कंठा, बड़ा व्यक्ति बनने के सपनों के सामने यह सब सुविधाएँ बहुत बड़ी नियामत लगती थीं। इस तरह यहाँ भी सब कुछ साझा सा होता था। परिवार के हम उम्र सदस्यों के साथ रहना खेलना, शैतानियाँ करना, कथा कहानी सुनना कहना सब शायद पाश्चात्य देशों से भी अधिक हैरतअंगेज़ व रोमांचकारी, रोमांटिक आदि होता था। बाद में उनको याद कर कहते थे, कैसे बीत गये वह दिन। (न मोबाइल था, न नेटवर्क)।
शहरी जीवन: शहरों में शहर दिल्ली
भारत में यूँ तो बहुत से नगर, महानगर हैं, जैसे बम्बई, कलकत्ता, हैदराबाद, आगरा, आदि। अपनी कहानी आगे बढ़ाने के लिए हम आपको शहरों में शहर दिल्ली की झलक दिखाते हैं। दिल्ली भारत कर दिल है। दिल्ली वाले बड़े दिलवाले होते हैं। घर के तिल रखने की जगह न हो पर घर आने वालों का खुले दिल से स्वागत करते हैं। दिल्ली में 1 या दो कमरों में रहने वाले बड़े दिल वाले होते हैं। परन्तु बड़े-बड़े आलीशान महलों में तंग दिल वाले लोग रहते हैं। वहाँ एक के पास कई कमरे होते हैं। कुल मिला कर रहने वाले दो या तीन।
15 साल की नौकरी के बाद दो कमरों का सरकारी क्वार्टर अग्रवाल साहब को, मिल क्या गया, क्वार्टर पाने की मुराद पूरी हो गयी। दूर पास के रिश्तेदारों व उनके परिवारों की तो जैसे लॉटरी लग गई। गर्मी की छुट्टियाँ हों या जाड़े की छुट्टियाँ, बहन भाइयों का परिवार को अपने बच्चों को दिल्ली घुमाने की योजना बनने लगी। साथ ही साथ मौसी-मौसा चाचा-चाची का परिवार भी दिल्ली जाने की योजना बनाने लगा। दिल्ली ऐतिहासिक शहर जो है, वहाँ लालक़िला, हुमायूँ का मक़बरा, कुतुबमीनार, राष्ट्रपति भवन, संग्रहालय, संसद भवन, शानदार होटल, कनॉटप्लेस, इंडिया गेट, बाग़ बग़ीचे आदि सैकड़ों अजूबे हैं। इन्हें देखने की साध, अब पूरी होने की आशा बँध गई थी। अग्रवाल साहब के घर में दो छोटे कमरे, एक बाहर बरामदा था एक अंदर वराण्डा था। एक स्नानघर एक शौचालय, आँगन में एक छोटी सी रसोई बनी हुई थी। अग्रवाल साब ख़ुद पाँच प्राणी थे। गर्मी जाड़े की छुट्टी में दूर व पास के परिवार के लोग बाल बच्चों सहित दिल्ली घुमाने उनके यहाँ आने लगे। कई बार तो तो रात को सोने के समय बीस (२०-२५) तक व्यक्ति बाल बच्चों को मिलाकर हो जाते थे। बुज़ुर्गों को दो-दो बच्चों के साथ पलंग दे दिया जाता था। बाक़ी सब ज़मीन पर चटाई, चादर दरी बिछाकर सो जाते थे। कौन किसके पास सोएगा इस पर ख़ूब चिल्ल-पों, चिल्ला-चिल्ली होती थी। फिर डाँट खाकर सब चुप हो जाते थे और शुरू होता था, गुपचुप बातों का सिलसिला, सोने वाले कई गुटों में बँट जाते थे—महिलाएँ आपस में बातचीत करने लगतीं, युवा, स्कूल, कॉलेज की कहानियाँ सुनाते हुए हँसते-हँसाते लोट-पोट हो जाते। सब मज़ाक़ करने में मशग़ूल हो जाते। भूत, प्रेत, चुड़ैल, डायनों के क़िस्से सुन कर छोटे बच्चे डर कर एक दूसरे से चिपक जाते। बड़ी-बूढ़ी स्त्रियाँ बच्चों को परियों की कथा कहानी, थपकी दे कर लोरी सुनाने लगतीं। ये सब करते-करते, कब कौन सो जाता, पता ही नहीं लगता था। फिर शुरू होता, खर्राटों का साज़ ‘स’ से ‘नी’, तक मय अलाप के, कुछ सुर में कुछ भयानक आवाज़ में बजने लगता। पर शायद ही किसी को यह सुनाई पड़ता हो! इतने मधुर संगीत में सब बेसुध, सूरज के सिर पर चढ़ने तक सोते रहते थे। इस तरह अपने ही इतने लोग होते थे कि मित्र परिवारों को बुलाने की या मित्रों को रात में साथ सुलाने की, कही गुंजाइश नहीं बचती थी। बड़े खुले दिल वाले दिल्ली वाले अग्रवाल साहब साल दर साल अपनों के साथ इसी तरह छुट्टी बिताते।
विदाई के समय सब मिल मिल कर रोते और फिर आने का वादा करके विदा होते।
शहर में रहने वाले बच्चे बड़ी बेसब्री से गर्मी की छुट्टियों की प्रतीक्षा करते हैं। बच्चों की माँ को तो बच्चों से अधिक मायके जाने की प्रतीक्षा रहती है। बच्चे आपस में छुट्टी से पहले ही नानी के घर जाने, दादी के गाँव जाने और वहाँ की मौज-मस्ती की बातें करने लगते। बच्चे मस्ती में गाते, “नानी के घर जाएँगे, मोटे होकर आएँगे”, “ख़ूब खेलेंगे, अपने सगे संबंधियों के साथ धमाल मचायेंगे।” नानी-दादी के घर जाकर उनमें नई ऊर्जा, नवजीवन का संचार हो जाता। यह चक्र वर्ष दर वर्ष चलता रहता। नानी-दादी बच्चों के आने की राह देखती रहती हैं और उनकी छुट्टियों की प्रतीक्षा करती हैं। दोनोंं तरफ़ यही उत्सुकता बनी रहती है।
ये भारत के संस्कार हैं या अतिथि देवो भव, सह-अस्तित्व, सहन शक्ति अथवा अपनेपन का बोध, जिस का कोई नामकरण नहीं किया जा सकता और न ही इसे किसी स्लीप ओवर की परिधि में बाँधा जा सकता।
समय बदल रहा है। फिर भी एक अपनापन कहीं ज़िन्दा है जो बार बार घर (भारत में देस, शहर, गाँव) की ओर खींचता है।
(बहुत कुछ अनुभव व ख़ुद की यादों पर आधारित है)
1 टिप्पणियाँ
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बहुत सुन्दर सटीक लिखा आपने
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