स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई 

15-11-2022

स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई 

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 217, नवम्बर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

नोट: यह लेख The Role of Women in Indian freedom Struggle, Feb. 20-21 2004 (भारत के स्वतन्त्रता संग्राम में नारियों की भूमिका, फरवरी २०-२१ २००४) में प्रस्तुत किया था: 

भारत का स्वतंत्रता आन्दोलन बड़ा विलक्षण है। उससे भी विलक्षण है, घर की चहार में बंद रहने वाली महिलाओं का योगदान। भारत की नारी उच्चतम मानवीय गुणों सत्यम-शिवम्-सुंदरम् की साक्षात्‌ प्रतिमा है। दया करुणा, त्याग क्षमा, शक्ति आदि की वह मूर्ति है। उसका कार्य क्षेत्र अनंत तक फैला हुआ है। वह कभी कर्म क्षेत्र से पीछे नहीं हटी हैं। इतिहास उसकी कर्म शक्ति का साक्षी है, कि उसने कठिनाइयों का धैर्य से सामना किया है। विकट परिस्थितियों में भी वह पलायनवादी नहीं बनी। जौहर, सती, दहेज़ आदि की आग में तप कर नारी के गुण सोने की तरह चमके और समाज की विकृतियों को उजागर करते रहे हैं। देवी दुर्गा की तरह अन्याय व अत्याचार के विरुद्ध उसने तलवार उठाई है। भारत की पराधीनता के समय स्वतंत्रता की जो मशाल उसने जलाई, उसी का परिणाम है कि हम आज स्वतंत्र हैं। 

विदेशी शासन को उतार फेंकने के लिये जो संघर्ष हुए उन्हें गदर, विद्रोह, क्रांति संग्राम तथा आन्दोलन के नाम से पुकारा गया। इन नामों का शासितों के लिए अलग तथा शासकों के लिए अलग-अलग अर्थ थे। ये शायद उनकी मंशा के अनुरूप हैं। विदेशी शासकों ने जिस जन असंतोष को राजद्रोह और गदर कह कर पुकारा और कुचला, ज़ुल्मों की शिकार जनता ने उसे ही स्वाधीनता संग्राम और क्रांति कह कर, जान की बाज़ी लगा दी। अट्ठारह सौ सत्तावन में ईस्ट इंडिया कंपनी के मनमाने अत्याचारों के विरुद्ध भारत के लोग, राजा, सैनिक, किसान तथा साधारण जनता ने सशस्त्र आंदोलन छेड़ दिया। इसमें पुरुषों के साथ साथ अन्याय के विरुद्ध मोर्चा स्त्रियों ने भी सँभाला। कितना आश्चर्य है कि घर की चारदीवारी में बंद रहने वाली अबला नारी अचानक शस्त्र धारण कर रणक्षेत्र में पहुँच गई। सारी परम्परायें और समाज की मान्यताएँ उसके पाँव की बेड़ियाँ न बन कर उसे साक्षात्‌ शक्ति स्वरूपा दुर्गा के रूप में सम्मान देने लगीं। ऐसा संसार में होने वाली किसी क्रांति या अन्याय के युद्ध में नहीं हुआ। 

१८५७ के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में कथित अबलाओं ने व्यापक रूप से भाग लिया। इन महिलाओं में लखनऊ की बेगम हजरत महल, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, रानी तुलसीपुर, रानी रामगढ़, रानी तेजबाई, तुकलाई सुल्तान, जमानी बेगम, महारानी तपस्वनी, नर्तकी अजीजान, निचले तबक़े की कुमारी मैना, नंनी देवी आदि ने मोर्चा सम्हाला। रिकार्ड्स से पता चलता है कि अकेले मुज़फ़्फ़रपुर में २५५ स्त्रियों ने क्रांति में भाग लिया। ऐसी वीरांगनाओं में एक नाम बनारस में जन्म लेने वाली झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई का है। 

रानी लक्ष्मीबाई का विवाह झाँसी के गंगाधर राव से हुआ था। झाँसी का राज्य बुंदेलखंड में था। झाँसी मराठों के अधीन एक रियासत थी। मराठा सरदार पेशवा बाजीराव ने १८१७ ई. में पूना की संधि से सारे अधिकार ईस्ट इंडिया कम्पनी को हस्तांतरित कर दिये थे। ईस्ट इंडिया कम्पनी ने झाँसी के सूबेदार के झाँसी पर प्रभुत्व को मान्यता दे दी। उन्होंने झाँसी के साथ एक ‘in perpetuity’ अर्थात् ‘निरंतरता’ की सन्धि की। जिसके अनुसार झाँसी के राजा रामचन्द्र राव और उनके वंशजों तथा उत्तराधिकारियों, ‘his heirs and successors’ का झांसी पर अधिकार स्वीकार किया गया। ध्यान देने की बात है कि राजा रामचंद्र राव के शासन के प्रारम्भिक ३ वर्षों तक यह संधि लागू रही। इसके तीन वर्ष बाद १८२० में एक  ‘in consequence’ अर्थात् अनुवर्ती संधि पेशवा के साथ परिवर्तित संदर्भों के साथ की गई। इस संधि से रामचंद्र राव की स्थिति पर कोई प्रभाव भी नहीं पड़ा, उन्हें कोई उपहार आदि भी नहीं देना पड़ा। १८३२ में झांसी के सूबेदार रामचंद्र राव को राजा की उपाधि दे दी गई। पेशवा राज्य के सभी घराने, सिंधिया, होल्कर, गायकवाड़ आदि पेशवाओं के अधीन सूबेदार (सामंत) थे। लेकिन सूबेदार या राजा शब्द से उनका उनके राज्य की संप्रभुता पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता था। झांसी के राजा ने अनेक अवसरों पर कम्पनी सरकार की सहायता की थी। १८५७ की क्रांति तक Subordinate-Cooperation अर्थात् अधीनता-सहायता, की संधि चलती रही। लेकिन राजा और कम्पनी के मध्य १८५३ में गतिरोध उत्पन्न हो गया। 

इसके बाद गंगाधर राव झाँसी के राजा बने। अचानक ही राजा बहुत बीमार हो गये। उन्होंने १८५३ को एक पुत्र गोद ले लिया। उन्होंने बुंदेलखंड के राजनीति सह प्रतिनिधि मेजर इलियस को बुलाया, मृत्यु शैया पर पड़े गंगाधर राव ने उनसे प्रार्थना की कि वह उनके दत्तक पुत्र को झाँसी के उत्तराधिकारी की मान्यता प्रदान करवायें। राजा ने इसी आशय की सिफ़ारिश ईस्ट इंडिया कम्पनी के सेक्रेटरी मेलकॉम से करने के लिये भी कहा! राजा गंगाधर ने पिछली सभी संधियों का हवाला देते हुए ईस्ट इंडिया सरकार को पत्र लिखा तथा सरकार से याचना की, कि उसके दत्तक पुत्र को झाँसी के राजा की मान्यता प्रदान की जाये। २० नवम्बर १८५३ में राजा गंगाधर राव चल बसे। सुभद्रा कुमारी चौहान ने इस दुखद घटना का वर्णन इन शब्दों में किया है, 

 “रानी विधवा हुई हाय! विधि को भी दया नहीं आई।” 

लार्ड डलहौज़ी ने दत्तक पुत्र लेने की प्रथा पर रोक लगा दी। झाँसी के राजा के दत्तक पुत्र को झाँसी का संप्रभु बनाने तथा उत्तराधिकारी मानने का पत्र लार्ड डलहौज़ी के विचारार्थ रखा गया। सेक्रेटरी मैटरॉफ के विचार लार्ड डलहौज़ी के विचारों से मेल नहीं खाते थे। वह दत्तक पुत्र को मान्यता देने के पक्ष में थे। रानी लक्ष्मीबाई ने १६-२-१८५४ को लार्ड डलहौज़ी को एक विस्तृत पत्र लिखा जिसमें उसने झाँसी के राजाओं द्वारा कम्पनी की समय-समय पर की गई सेवाओं और सहायता का उल्लेख किया। रानी ने कम्पनी के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करते हुए अपने पुत्र को वारिसान और जांनिसान, (warrisan and Janisaan) की मान्यता देने की प्रार्थना की। लार्ड डलहौज़ी ने फरवरी १८५४ में ही झाँसी को कम्पनी राज्य में मिलाने का निर्णय कर लिया था। उसने झाँसी के राजा के पुत्र (male heir) न होने के कारण कम्पनी राज्य में मिलाने की घोषणा कर दी। डलहौज़ी ने अपना पक्ष रखते हुए कहा कि झाँसी का राज्य मराठों के अधीन था, झाँसी प्रमुख सूबेदार की हैसियत रखता था, वह स्वतंत्र राज्य नहीं था। कम्पनी रामचंद्र राव के दत्तक पुत्र को झाँसी का उत्तराधिकारी नहीं मान सकती। डलहौज़ी के पत्र की कुछ पंक्तियाँ इस संदर्भ में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं: 
“Jhansi formed  a part of the dominion’s of the Peshwa. Its ruler Shib Rau  Bhau however rendered signal services to the British during the second Maratha War, in recognition of the  services, the British government in 1804 while formally recognising the sovereign rights of the Peshwa made  a treaty of defensive alliance with this nominal tributary,  Shib  Rau  bhau, the Subedar of Jhansi. His successors, Ram chandra Rao adopted a son. After his death there were 4 claimant’s of the throne. Adopted son of Ramachandra Rao was not nominated as successor instead a blood relation of Shib Rao Bhu was made successor.” 

अर्थात्-

(झाँसी पेशवा राज्य में एक भाग था, जिसका शासक शिब राव भाउ थे। उन्होंने द्वितीय मराठा युद्ध में कम्पनी की बहुत सहायता की थी। कम्पनी सरकार ने १८०४ में जब पेशवा से सुरक्षात्मक संधि की तब शिब राव की सेवाओं को संज्ञान में रखते हुए, उन्हें झाँसी का सूबेदार मान लिया। शिब राव के बाद रामचंद्र राव सूबेदार बने। उन्होंने एक पुत्र गोद लिया। इसी बीच रामचंद्र राव की मृत्यु हो गई। उनकी मृत्यु के बाद चार व्यक्तियों ने झांसी की सूबेदारी पर अपना दावा कर दिया। रामचंद्र राव अपने पुत्र को अपना उत्तराधिकारी नामांकित न करके, शिब राव भाउ के रिश्तेदार को सूबेदार बना दिया) 

यह दलील देकर डलहौज़ी ने रामचंद्र राव के दत्तक पुत्र को झाँसी का सूबेदार मानने से मना कर दिया, और झाँसी को कम्पनी राज्य में मिलाने का निर्देश दे दिया। रानी लक्ष्मीबाई अभी कम्पनी सरकार से वार्ता कर रही थीं कि कुछ अप्रत्याशित घटनायें घटित हो गईं। 

५ जून १८५७ को कुछ सिपाहियों ने झाँसी के छोटे क़िलों (गढ़ों) पर अधिकार कर लिया। इस घटना में कुछ अफ़सर मारे गये, कुछ ने दूसरे क़िलों में भाग कर शरण ली। ८ जून १८५७ को सिपाहियों ने उस क़िले को भी घेर लिया। सिपाहियों ने अँग्रेज़ अफ़सरों से कहा कि अगर वह हथियार लिये बग़ैर क़िले से बाहर आ जायेंगे तो उन्हें छोड़ दिया जायेगा। यूरोपियनों के बाहर आने पर वह पुरुष, स्त्रियों, बच्चों को एक बाग़ में ले गये, और मौत के घाट उतार दिया। एक विवरण के अनुसार पुरुषों की संख्या ५७, स्त्रियों की १२ तथा बच्चों की २३ थी। कुल मिला कर ७२ लोगों को मारा गया। ध्यान में रखने की बात है कि रानी लक्ष्मीबाई ने इसमें कोई भाग नहीं लिया था। सिपाहियों ने झाँसी के और छोटे बड़े क़िलों पर अधिकार कर लिया। झाँसी पर अधिकार कर के सिपाहियों ने देहली की तरफ़ कूच किया। रानी लक्ष्मीबाई ने कम्पनी सरकार को झाँसी की स्थिति के बारे में सूचना भेजी। युरोपियों की मृत्यु पर शोक प्रकट किया। झाँसी सागर डिविज़न के अंतर्गत था। सागर के कमिश्नर ने रानी को लिखा,  “ As all the British officials were killed and the whole region became a scene of rapine & plunder, I  appoint Rani to rule the territory on behalf of British till such time as they could re- establish a regular system of administration, and he issued a formal proclamation to this effect.” 

अर्थात्-

“जैसे कि सभी ब्रिटिश अफ़सर झांसी में मारे गये हैं, झाँसी में लूट-पाट का माहौल हो गया है, जब तक ब्रिटिश अफ़सरों का प्रबंध नहीं होता है तब तक, झांसी में साधारण प्रशासन करने के लिये, रानी को झाँसी का प्रशासक नियुक्त करता है। इस आशय की एक उद्घोषणा भी जारी की।” रानी की प्रशासनिक योग्यता की मैलसन ने बहुत प्रशंसा करते हुए लिखा,  “she proved herself a most capable ruler, she opened a mint, fortified the strong places, cast canons, raised fresh troops.

रानी लक्ष्मीबाई ने बड़ी कुशलता से झाँसी का प्रशासन सम्हालना प्रारंभ कर दिया। 

अर्थात्-

“रानी ने स्वयं को बहुत योग्य शासक सिद्ध कर के दिखाया। उसने टकासाल खुलवाई, मज़बूत क़िलेबंदी की, तोपों का निर्माण कराया तथा नई सेना खड़ी की।” 

यहाँ यह विशेष बात है कि रानी यह सब कार्य कम्पनी सरकार के नाम पर कर रही थीं। क्रांतिकारियों ने रानी से अँग्रेज़ों के विरुद्ध उनकी सहायता करने को कहा पर रानी ने कोई स्पष्ट उत्तर नहीं दिया। रानी के हीला-हवाली करने पर क्रांतिकारियों ने रानी के गढ़, क़िले और महल को जलाने की धमकी दी। उधर अँग्रेज़ अफ़सरों की हत्या का मामला तूल पकड़ने लगा। कम्पनी सरकार के रानी के प्रति व्यवहार में भी परिवर्तन आने लगा। उन्होंने रानी पर क्रांतिकारियों की सहायता करने व अफ़सरों को मारने के लिये उकसाने का दोषारोपण कर दिया। घटनाक्रम को तोड़-मरोड़ कर प्रस्तुत करने की नीचता में सरकार का कोई मुक़ाबला न था। कम्पनी ने इस सम्बन्ध में रानी लक्ष्मीबाई पर जो आरोप लगाये वह इस प्रकार हैं जिसे (framed the charges) कहा गया। यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि जिस मैलसन ने रानी लक्ष्मीबाई की इतनी प्रशंसा की थी वही अब यह दोष लगा रहा है! यह दोषारोपण इस प्रकार है: 

मैलसन ने ६ जून १८५७ में रानी को सिपाहियों को प्रेरित करने का आरोप लगाने का यह कारण दिया,  “Rani like Nana Saheb, never forgave that which she considered an insult and outrage. Powerless she nursed her resentment, until the revolt of Mirat and seizure of Delhi gave her long wished opportunity.”

अर्थात्: “नाना साहब की तरह रानी भी अपने अपमान व बदसलूकी को नहीं भूल सकी। उसने इसे तब तक दबाये रखा जब तक देहली पर क्रांतिकारियों ने अधिकार नहीं कर लिया।” 

  1. रानी ने अँग्रेज़ों द्वारा गौ हत्या करने का ऐतिहासिक विरोध किया। 

  2. रानी के दत्तक पुत्र को डलहौजी के उत्तराधिकारी स्वीकार न करने के कारण वह अँग्रेज़ों से शत्रुता मानती थी। 

  3. रानी अपनी पेंशन नहीं छोड़ना चाहती थी। 

 दो महीने की गहन छानबीन के बाद भी जब अँग्रेज़ों को रानी का अफ़सरों की हत्या में हाथ होने का कोई ठोस सबूत नहीं मिला, तब एक बंगाली ख़ानसामा तथा एक चौकीदार तथा एक स्त्री के अस्पष्ट बयान को आधार बना कर अँग्रेज़ अधिकारियों, ((Kaye), मैल्सन (Mallesson), होम्स (Holmes) )  ने यह आरोप तय कर दिया। 

इन आरोपों का परिणाम दूरगामी हुआ। तत्कालीन और अन्य इतिहासकारों ने क्रांतिकारियों ने नाना साहब और राना लक्ष्मीबाई को १८५७ की क्रांति का नेता बना दिया। यह वस्तुत: अद्भुत, अद्वितीय है।

रानी लक्ष्मीबाई ने अपने को बेगुनाह सिद्ध करने तथा कम्पनी सरकार के संदेहों को दूर करने का अथक प्रयास किया। रानी इस समय ऐसे चक्रव्यूह में फँसी थी जिसका अनुमान लगाना कठिन है। एक तरफ़ वह अँग्रेज़ों से त्रस्त थी, दूसरी तरफ़ सदाशिव राव भाऊ ने अँग्रेज़ों को करेरा के दुर्ग (झाँसी से ३० कि.मी. दूर) से निकाल दिया और ख़ुद को झाँसी राजा घोषित कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने एक सेना लेकर सदाशिव राव भाऊपर चढ़ाई कर दी और सदाशिव राव को बंदी बना लिया। तीसरी तरफ़ क्रांतिकारी उससे अँग्रेज़ों के विरुद्ध सहायता न करने पर झाँसी पर क़ब्ज़ा करने की धमकी दे रहे थे। रानी आंतरिक व बाह्य शत्रुओं से घिरी थी। रानी ने नाना साहब के पास अपने प्रतिनिधि भेजे, झाँसी और करेरा के दुर्गों की क़िलेबंदी की। तभी ओरछा के राजा ने झांसी पर आक्रमण किया परन्तु रानी ने उन्हें खदेड़ दिया। रानी अभी इन आन्तरिक ख़तरों का सामना कर ही रही थी कि कम्पनी सरकार ने रानी लक्ष्मीबाई पर युरोपियों की हत्या का महाभियोग चलाने का निश्चय किया। रानी असमंजस में पड़ गईं। सुभद्रा कुमारी चौहान ने इस विशेष स्थिति के बारे में लिखा था, “रानी एक, शत्रु बहुतेरे होने लगे वार पर वार।” रानी लक्ष्मीबाई ने अंत में इन झूठे आरोपों का सामना करने का निश्चय किया। वह रानी जिसने सिपाहियों का साथ नहीं दिया था वह स्वतंत्रता संग्राम में आततायी सरकार का सामना करने निकल पड़ी। रानी ने स्वयं अपनी सेना का नेतृत्व किया। अपने दत्तक पुत्र को पीठ पर पीछे बाँध कर वीर वेश में अदम्य उत्साह के साथ रानी ने सेना का संचालन किया। रानी ने ८ दिन तक भीषण संग्राम किया। ग्वालियर से तांत्या तोपे सेना लेकर रानी की सहायता के लिये पहुँचे। रानी ने तांत्या तोपे के साथ झाँसी व ग्वालियर की रक्षा की। लेकिन कुछ देशद्रोही अँग्रेज़ों से मिल गये। जिन्होंने ३ अप्रैल १८५७ को झाँसी के क़िले का फाटक खोल दिया। अँग्रेज़ों ने क़िले में घुस कर बच्चों स्त्रियों, अबाल, वृद्धों की नृशंस हत्या कर दी। वह प्रतिशोध की ज्वाला से धधक रहे थे। रानी झाँसी से निकल कर कालपी पहुँच गईं। ह्यूरोज भी रानी का पीछा करते हुए कालपी पहुँच गया। ह्यूरोज ने रानी के युद्ध संचालन व वीरता की भूरी-भूरी प्रशंसा की थी। रानी कालपी से भाग कर ग्वालियर की तरफ़ मुड़ी, सिंधिया की सेना (अँग्रेज़ों के मित्र) को परास्त कर रानी ने ग्वालियर के क़िले पर अधिकार कर लिया। ह्यूरोज भी ग्वालियर पहुँच गया। उसने दुर्ग को चारों तरफ़ से घेर लिया अँग्रेज़ सेनापति को पीछे हटने के लिये मजबूर होना पड़ा पर तभी ह्यूरोज की सहायता के लिये सहायक टुकड़ियों के आ जाने से युद्ध का रंग बदल गया। अँग्रेज़ों की सम्मिलित सेना ने ग्वालियर के क़िले पर धावा बोल दिया। रानी ने शत्रु से बच कर भागने का प्रयास किया, लेकिन रानी का घोड़ा जो नया था नाला देख कर रुक गया। तभी शत्रुओं ने रानी को चारों ओर से घेर लिया। रानी ने अदम्य वीरता से शत्रुओं का सफ़ाया किया। रानी लक्ष्मीबाई बुरी तरह से घायल हो गईं, और घोड़े से गिर कर उनकी मृत्यु हो गई। बुंदेलखंड के राजनीतिक प्रतिनिधि से इस घटना उल्लेख करते हुए लिखा था,  “that she was overtaken resting and drinking sherbat neat the Phoolbagh batteries. All but the 15 of the rebels escaped but Rani’s horse refused to leap the canal, when she received a shot in the side and than a sabre cut on the head, but rode off. She soon after fell dead and burnt in the garden close by.”

अर्थात्: 

“फूलबाग के पास आराम करते व शरबत पीते समय उस/रानी पर हमला बोला गया। सब विद्रोहियों  में से १५ बच कर भाग निकले परन्तु रानी के घोड़े ने नाला लाँघने से इन्कार कर दिया, रानी को एक तरफ़ गोली लगी, फिर सिर पर तलवार से घाव लगा पर रानी वहाँ से बच निकली, परंतु शीघ्र ही वह घोड़े से गिर पड़ी और मृत्यु को प्राप्त हुईं।  उसके शव का दाह-संस्कार कर दिया गया,  पास के उद्यान में ही उनकी  समाधि बना दी गई।” 

रानी लक्ष्मीबाई ने अँग्रेज़ी शासन के अत्याचारों तथा अन्यायपूर्ण क्रियाकलाप के विरुद्ध तलवार उठाई। वह स्वतंत्रता संग्राम की एक मात्र नेत्री हैं जो युद्ध में शहीद हुईं। रानी की इस शहादत ने शीघ्र ही रानी लक्ष्मीबाई को स्वतंत्रता संग्राम की नायिका बना दिया। अँग्रेज़ों ने रानी की तुलना “Joan of Arc” अर्थात् “जोन ऑफ़ आर्क” से की, तो भारतीयों ने उसे शक्ति स्वरूप दुर्गा तथा काली का अवतार बताया। कालीघाट के चित्रों में रानी लक्ष्मीबाई को इसी रूप में दर्शाया गया है। यहाँ यह ध्यान देने की बात है कि देवी दुर्गा ने सदैव अन्याय व अत्याचार का सफ़ाया करने के लिये अस्त्र-शस्त्र धारण किये। रानी को दुर्गा के रूप में देखना इसी धारणा का प्रतिनिधित्व करता है। भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के सूत्रधारों ने रानी के बलिदान को राष्ट्रीय गौरव के रूप में प्रस्तुत किया है। रानी अपने देश की आन-बान-शान पर मर मिटने वालों का प्रतिमान बन गईं। उनका यह प्रतिबिम्ब इतना प्रभावोत्पादक था कि उनके सम्मान में साहित्यिक रचनाएँ लिखी गईं। 

सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान ने “बुंदेलों हर बोलों के मुख हमने सुनी कहानी थी“—कविता लिखी, जो शीघ्र ही स्वतंत्रता सेनानियों और युवाओं में जोश भरने का काम करने लगी। रामलीला व अन्य उत्सवों में रानी की तस्वीर लगाना, नाटक खेलना, कविता गाना आदि ने रानी को जन-जन की नायिका बना दिया। सुश्री सुभद्रा कुमारी चौहान की “झांसी की रानी की समाधि पर” कविता की यह पंक्तियाँ जनता जनार्दन में रानी की छवि का दर्शन कराती हैं:
“बढ़ जाता है मान वीर का, रण में बलि होने से। 
मूल्यवती होती सोने की भस्म, यथा सोने से॥
रानी से भी अधिक हमें अब, यह समाधि है प्यारी। 
यहाँ निहित है स्वतंत्रता की, आशा की चिनगारी॥”

इसकी अन्तिम पंक्ति विचारणीय है, जिसमें स्वतंत्रता और आशा की बात कही गई है। रानी लक्ष्मीबाई ने अनेक विपरीत परिस्थितियों में शत्रुओं का सामना किया वैसे ही आज भी भारत की नारी चाहे वह शोषित हो, अबला हो, चार दिवारी में बंद हो, अन्याय और अत्याचार का सामना करने की शक्ति रखती है। 

रानी ने नारियों को स्वतंत्रता और स्वाभिमान की आशा की जो किरण दिखाई उस पर चलकर स्त्रियाँ अपना और कल स्वर्णिम बना सकती हैं। परन्तु ध्यान रहे लड़ाई सत्य पर आधारित हो! “यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः। तत्र श्री विर्जयो भूति ध्रुवा नीति मति मम्।” अतः यह कहना नीतिगत है कि—रानी लक्ष्मीबाई का स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान के रूप में योगदान गुणात्मक तथा धनात्मक है। 

डॉ. ऊषा बंसल 
प्रोफ़ेसर इतिहास विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय 
वाराणसी 
 

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