बिम्ब
डॉ. उषा रानी बंसलआँसू की कुछ बूँदें तप्त रेत पर जा पड़ीं,
तो सोंधी ख़ुशबू से लगा बरसात हो गई,
तेरे आने तेरे जाने के कारण अनेक होंगे,
हम तो सिर्फ़ इतना समझ पाये हैं—
दूरियाँ बढ़ रहीं हैं; आज खाई है, कल समंदर हो जायेगा।
जो खाई न पाट पाये तब समंदर क्या लाँघ पायेंगे,
तेरे प्यार की रज से उठती ख़ुशबू में—
कुछ समय के लिये शायद खो जायें।
कल भी अकेले थे, आज भी अकेले हैं,
मथुरा में मथुराधीश न बसने दिया,
काशी में भोले न रमने दिया—
बंजारों की तरह गुज़ारी ज़िंदगी हमने,
कुछ ख़ानाबदोशी में कट गई, बची यायावरी में कट जायेगी।
कल तक एक फ़र्ज़ था निभाने का,
एक क़र्ज़ था चुकाने का-
अब न फ़र्ज़ बचा न क़र्ज़!
जीवन घट रीत गया यूँ ही आने व जाने में।
ये अपना वो अपना इस भुलावे में भुला दी ज़िंदगी अपनी,
आईने से सदा मुँह चुराते रहे, परछाईं तक से डरते रहे,
असलियत से निगाहें चुराते रहे।
ग़मों की सघन घटाओं में भी,
इन्द्रधुनष सा मुस्कुराते रहे।
कलियों और कोंपलों तक को सब्ज बाग़ दिखाये हमने,
बंजरों को पोलज बनाने में पसीना बहाया सदा,
वो निष्कंटक पथ पर क़दम बढ़ाते रहें,
काँटों को उनकी राह से हटाते रहे।
क्या कहें क्या बतायें वक़्त ए दौर का,
जो सबब कल था, आज भी वही है,
ये बात दीगर है कि शक्ल ओर सूरत और थी,
आज सूरत व सीरत और है।
अब तमन्ना है कि न खाई हो न समंदर,
बस दूर तक फैला उसके (प्रभु) प्रेम का लहराता सागर हो,
जहाँ होने न होने का अंतर मिट जाये,
बचा जीवन उसकी कृपा की छाँह में कट जाये।
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