कहानी साइकिल की सवारी की

15-08-2020

कहानी साइकिल की सवारी की

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 162, अगस्त द्वितीय, 2020 में प्रकाशित)

साइकिल का अविष्कार उन्नीसवीं सदी का महत्वपूर्ण अविष्कार था। इस ने समाज के प्रत्येक वर्ग को प्रभावित किया। यहाँ इस बात की चर्चा नहीं कर रहे हैं कि साइकिल बनाने में कितना समय लगा और क्या-क्या प्रयोग किये गये। कभी आगे का पहिया छोटा तो कभी पीछे का छोटा...!

साइकिल केवल लड़कों की सवारी होगी, लड़कियाँ चलायेंगीं तो क्या होगा?

इस पर हास्यास्पद कार्टून व टीका टिप्पणी, आज भी म्यूज़ियम में देखी जा सकती हैं। ऐसी साइकिल विदेश से चल कर भारत में भी पहुँच गई। भारत के अनुकूल वातावरण में रच बस गई। शुरू-शुरू में साइकिल गिने चुने सम्पन्न लोगों के यहाँ होती थी जिनके पास साइकिल होती वह बड़े अमीर समझे जाते थे। आज पढ़ने वालों को यह पढ़ कर बड़ा अजीब लग सकता है कि उस समय साइकिल समाज के प्रगतिशील व्यक्तियों की सवारी थी। 

पढ़ें लिखे लड़कों को बड़े शान से साइकिल दहेज़ में मिलती थी। गाहे-बगाहे बहुओं को यह ताना भी सुनना आम था कि, ’क्या दिया तेरे बाप ने,मेरे होनहार, लाखों में एक बेटे को साइकिल भी न दे सके।’ 

कभी कोई कहता– ’देखो, उसका लड़का पढ़ा न लिखा पर कैसे ससुराल से मिली साइकिल पर अकड़ता चलता है।’ इस तरह साइकिल न हुई राजा सवारी हो गई। 

साइकिल के आगे टोकरी लगाई जाने लगी, जिसमें बच्चे के पैर निकालने के लिये दो छेद बने रहते थे। इस तरह साइकिल पर बच्चे को घुमाने पापा, बाबा ले जाते थे। ऐसे दृश्य भी यदा कदा देखने को मिल जाते थे जिसमें बच्चा टोकरी में, पत्नी को आगे साइकिल के डंडे पर बिठा कर पति शान से घुमाने, फिराने, सिनेमा ले जाता था। देखने वाले कुछ ईर्ष्या, कुछ आश्चर्य से दाँत में उँगली दबाये देखते, और कहते, “क्या ज़माना आ गया है“? यह कह कर माथा ठोंक कर कहते कि ‘इन लड़कों ने तो लाज शरम बेच खाई।’ साइकिल के पीछे एक कैरियर भी लगने लगा। अब पति-पत्नी बच्चा व सामान सब एक साथ लाने ले जाने की सुविधा हो गई। 

साइकिल की इन बातों में न उलझें, सीधी बात कहते हैं। साइकिल पर बैठने में सावधानी भी बरतनी पड़ती थी, नहीं तो पीछे या डंडे पर बैठने वाले का पैर साइकिल के पहिये में फँस कर चोटिल हो जाता था और फिर डॉक्टर से मरहम-पट्टी करानी पड़ती थी। एक बार एक सज्जन अपनी नई-नवेली दुल्हन को साइकिल पर बैठा कर सिनेमा देखने चले। उन्होंने पत्नी को पीछे कैरियर पर आराम से बैठ कर उनके कमर में हाथ डाल उन्हें पकड़ने की ट्रेनिंग दी। जब सब तय हो गया तो वह स्वयं साइकिल पर बैठ गये और पत्नी को पीछे बैठने को कहा। वह साड़ी सम्हाल कर बैठने का उपक्रम कर ही रही थी कि साइकिल का पैडल दब गया, साइकिल सर से यह जा वह जा। पत्नी सड़क पर गिर पड़ी। जिसे लोगों ने सहारा दे कर उठाया। शरम व ग़ुस्से में उन्होंने घूँघट लम्बा कर मुँह छिपा लिया। कुछ दूर जाने पर उन्हें अहसास हुआ कि पत्नी ने उनकी कमर में हाथ नहीं डाला। वह एक हाथ से पत्नी का हाथ खोजने लगे तो उनके पैरों तले की ज़मीन ही खिसक गई। पीछे की सीट ख़ाली थी। वह साइकिल घुमा कर लौट पड़े। तो देखा सड़क के किनारे मुँह घूँघट से ढके पत्नी सुबक रही थीं, कुछ लोगों ने उन्हें घेर रखा था । 

आगे क्या हुआ होगा, आप स्वयं समझदार हैं सोचिये और कल्पना कीजिये। हँस हँस कर लोट पोट होते रहिये। 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में