माँ के हाथ का स्वाद
डॉ. उषा रानी बंसलमशहूर शायर निदा फ़ाज़ली का गोरखपुर में हुआ मुशायरा सुन रही थी। जिसमें माँ पर सुनाया एक शेर दिलो दिमाग पर छा गया। अल्फ़ाज़ थे :
खट्टा मीठा माँ का प्यार, या हाथों में स्वाद,
हर सब्ज़ी हर दाल में माँ आती है याद।
सबकी आप सबकी प्यारी प्यारी माँ होती है। जिससे कितनी बातें जुड़ी होती हैं। पर बड़े होने पर लगता है कि वह बीता कल था। प्रवर माँ का कल, चाशनी की तरह सबके दिमाग़ में लिपटा-लिपटा सा रहता है और वक़्त-बेवक़्त दस्तक देता रहता है। यहाँ क्योंकि बात स्वाद की हो रही है तो इस शेर के साथ बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के मैटलरजी विभाग के प्रोफ़ेसर ए.के. घोष का चेहरा घूम गया।
एक दिन की बात है कि वह उनकी पत्नी रेखा जी हमसे मिलने आये। बात धीरे-धीरे खाने के स्वाद पर आ गई। वह कहने लगे जब हमारी शादी हुई और हमारी पत्नी रेखा जी ने बनाया तो हमें लाजवाब लगा। धीरे-धीरे उनके द्वारा बनाये लज़ीज़ व्यंजनों की आदत पड़ गई। लेकिन जब कभी अचानक किसी सब्ज़ी या दाल में माँ के बनाये खाने के स्वाद का अहसास हो जाता तो प्यारी माँ के बनाए खानों का स्वाद जीवित हो जाता। लगता माँ जैसा बनाती थी कुछ वैसा है, माँ जैसा बनाती थी, उसका क्या कहना।
शायद कल ही पिछले चालीस-पैंतालिस साल से अमेरिका में बसी बहिन से बात हो रही थी। मैंने पूछा, दीवाली पर क्या बनायेंगीं? कहने लगी, दाल की कचौड़ी और — आलू की सादा सब्ज़ी, जैसी माँ बनाती थीं। फिर कहने लगी उस सादा सब्जी का स्वाद ही अलग था। उन्होंने बताया कि दो दिन पहले उनका नाती आया था उसे दाल वग़ैरा से एलर्जी है। मैंने पालक का साग बनाया, आटे का सालन लगा कर। बहुत अच्छा बना जैसा हमारी माँ बनाती थीं। उसे बहुत अच्छा लगा। साग में माँ के हाथ का इतना स्वाद था, जितना बचा सब मैंने ही खा लिया।
मस्तिष्क भी कमाल का कम्प्यूटर है जिसमें अलग-अलग, एक-एक एहसास, स्वाद, स्पर्श आदि सब सुरक्षित रहता है और मौक़े पर बिना किसी कमांड के मन पर छा जाता है/याद आ जाता है।
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