दूसरी माँ की पीड़ा

01-06-2022

दूसरी माँ की पीड़ा

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 206, जून प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

मेरी चाची एक छोटी बच्ची को छोड़कर चल बसीं। चाचा की उम्र उस समय मुश्किल से 23 साल होगी। चाचा पर सब दूसरी शादी करने के लिए दबाव डालने लगे। चाचा दूसरी शादी करने को तैयार न थे। परन्तु घरवालों के दबाव तथा बच्ची के लालन-पालन की कठिनाई को देखते हुए चाचा ने सिर झुकाकर विवाह करने की हामी भर दी। एक ग़रीब घर की सुशील कन्या से उनका विवाह रचा दिया गया। नई चाची के आने से घर में रौनक़ हो गयी। नई चाची की उम्र की कुछ यही 27 या 28 साल होगी। पर हम सबके लिए नई चाची बड़ी कौतूहल की चीज़ थीं। घर भर की नज़र चाची पर रहती थी, ख़ासतौर से बच्चे के साथ कैसे बोलती है, कैसे प्यार करती है, खिलाती-पिलाती है, आदि सभी बातों को बड़ी बारीक़ी से नापा-तौला जाता था। हर किसी की ज़ुबान पर उसकी ही चर्चा रहती थी। कुछ बातें शब्दों में और कुछ कनखियों में कही जाती थीं। नई चाची जो लड़की से पत्नी बनने से पहले ही माँ बना दी गयी अपने अनुभवहीन मातृत्व को निभाने में लगी रहती।

चाचा भी पुरानी चाची को भूले नहीं थे। दो साल का साथ तथा शादी के बाद का प्रथम मिलन, शिकायत और घूँघट का अवगुंठन सब याद में बसा था जैसे कल की ही तो बात थी। घर की औरतें, आनेवाले रिश्तेदारों, पड़ोसी अद-बद के नई चाची के सामने पुरानी चाची का गुणगान करते नहीं थकते थे। जिस चाची की प्रशंसा उनके जीते जी, किसी ने फूटे मुँह से भी नहीं की थी, वो नई चाची के आते ही गुणों की खान बन गयीं।

नई चाची ग़रीब घर की होने पर भी बड़े सलीक़े वाली थी। बड़ी जल्दी वो हम सब से हिलमिल गयीं। घर भर के बच्चों की वो सगी बन गयी थीं। दिल दुखने पर वो अपनी बातें भी कभी-कभार हमसे बाँटने लगी थीं। बच्ची भी बड़ी होने लगी। चाचा को भी नयी चाची रास आने लगी थी। बच्ची ने इधर बात-बात पर रोना, झींकना शुरू कर दिया था। उसकी बात मुँह से निकलने के साथ पूरा न होने पर वो घर सिर पर उठा लेती थी। उसके हठ के साथ नई चाची की तो जैसे शामत आ जाती थी। दादी, ताई, तुरंत ताना देती कि बिना माँ की ग़रीब घर की लड़की तो हमने इसीलिए ली थी कि लल्ला की बच्ची को माँ का प्यार अच्छे से दे सकेगी। उसे समझ सकेगी। बड़े अमीर-अमीर घर से हमारे लल्ला के रिश्ते आ रहे थे पर हमने सोचा कि बिन माँ की लड़की, हमारी बिन माँ की बच्ची का दर्द अच्छे से जान सकेगी। तभी तो न घर देखा न द्वार इसे ब्याह लाये। दादी, ताई, बुआ आदि तथा घर-परिवार के लोगों के हस्तक्षेप का लाभ उठाकर बच्ची में ज़िद करने की आदत हद से ज़्यादा बढ़ गयी। नयी चाची बच्ची को अकेले में समझाने का बहुत प्रयास करतीं पर बच्ची पर इसका कोई असर नहीं होता। नई चाची को ताना-बोली खिलवाकर वो खिलखिला कर हँसने लगती। पास-पड़ोस तथा घर के लोग बच्ची से पूछते रहते कि नई माँ कैसी है? उसने तुझे बुलाकर क्या कहा? क्यों बुलाया? नई माँ जितना बच्ची को क़रीब लाने का प्रयास करती उतनी ही बच्ची और उनके बीच खाई चौड़ी होती जाती। वो बच्ची से बोलने में भी झिझकने लगीं।

चाचा और चाची में बच्ची को लेकर आये दिन झगड़ा होने लगा। चाचा का कहना था कि बच्ची हमारी है, उसके लालन-पालन की ज़िम्मेदारी हमारी है, उसे प्यार करना, ज़रूरत पर डाँटना चाहिए तथा मारना भी ठीक है। पर चाची बड़ी पेशोपेश में पड़ी थीं। वो करें तो क्या करें? चाचा तो दिनभर घर रहते न थे। घरवालों के दख़ल से चाची न तो बच्ची को प्यार कर सकती थीं और न डाँट सकती थी। चाची के बोलते ही बच्ची की दादी, ताई, चाची, जिसे पाती उसी से माँ की रो-रोकर शिकायत करने लगती। कुछ बुरी आदतों ने बच्ची को घेर लिया, जैसे चूरन, चटनी के लिए किसी का पैसा दो, न मिलने पर पैसा उठा लेना व गली के नुक्कड़ की दुकान से जलेबी या चाट खा आना आदि-आदि। बातें कुछ बड़ी न थीं पर इन्हें लेकर घर में बवंडर आना शुरू हो गया। दादी का कहना था कि नई माँ बच्ची को प्यार देती तो उसे ऐसी बुरी आदत न पड़ती। ताई का मानना था कि अपनी बच्ची होती तो मँझली ऐसी ही आँख में सलाई दिए रहती। अरे! हम भी तो हैं, चार-चार को सँभालते हैं, मजाल है कि कोई ऐसी ज़ुर्रत करे। उन्हें डराकर, धमकाकर वश में रखते हैं। एक ये हैं, बड़ी बुआ कब मौक़ा चूकने वाली थीं झट से कहती कि इनकी थोड़े है, बने या बिगड़े। सूप बोले तो बोले छननी भी बोलने लगी। छोटी चाची टेक देते हुए कहती कि “जनी जनाई घेलुए में मिल गयी। जनने का दर्द सहा होता तो पता चलता।” चाची मुँह ढँके काठ सी खड़ी रहतीं। उनकी आवाज़ सुनने की न किसी को फ़ुर्सत थी न इच्छा। हर ऐसी हरकत पर 2-4 घंटे कोहराम मच कर ठंडा हो जाता। चाची का मुँह उतर जाता। वो उदास रहने लगीं। पर किसी का भी ध्यान उस ओर न था।

एक दिन चाची तारों की छाँह में छत पर आ गई। मैं और चाची अकेले थे। चाची ने ऐसे ही पूछा कि क्या पढ़ रही हो। मेरे हाथ में शरतचन्द्र का उपन्यास था जो सौतेली माँ के अत्याचार पर लिखा गया था। मैं उन्हें उपन्यास की कहानी संक्षेप में बताने लगी। चाची बीच में टोकती सी बोली, “मर्द है न, उन्हें दूसरी माँ की पीड़ा कैसे पता चलेगी, औरत होकर दुहजियां से ब्याहकर लिखते तो जानती,” नई चाची का गला रुँध गया। वो फूट-फूट कर रोने लगीं। रोते-रोते प्रलाप सा करने लगीं कि “ग़रीब घर की बेटी ऊपर से बिन माँ की होना न जाने कौन से जन्मों का अभिशाप है। न पति अपना और न संतान। बिना वुजूद की सौत व सौतेली बच्ची के बीच औरत चक्की के पाटों में ऐसे पिसती है कि न रो सकती है, न गा सकती। बच्ची को प्यार करो तो लाड़ दिखाकर बिगाड़ रही है। मारो तो मारा क्यों? समझाओ तो बच्ची की इच्छा भी पूरी नहीं करना चाहती अपनी माँ होती तो . . .”

जाने कब से आँखों में जमा पानी दिल की जलन से स्रोत सा फूट निकला। बुदबुदाते बुलबुले से अस्पष्ट चाची के शब्द मेरे कानों में गूँजने लगे कि “बीबी कारी रह जाना, मैं तो कहूँ वो अच्छा है, माँग कर गुजर-बसर कर लेना, पर कभी दुहेजियां से ब्याह न करना।”

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