चहल पहल का नगर न्यूयॉर्क
डॉ. उषा रानी बंसल
(Walkable City)
ऐसा नहीं कि मैं पहली बार मई 2025 में न्यूयार्क गई थी। इससे पहले भी मैं दो बार न्यूयार्क गई थी। सबसे पहले मई 1998 में अपने पति के साथ गई थी। मेरे पति के क्लासफ़ैलो न्यूजर्सी में रहते थे, वह हमें न्यूयार्क दिखाने ले गये थे। तब हमने स्टेच्यू ऑफ़ लिबर्टी देखा था और देख कर देखते रह गये। वहाँ एक म्यूज़ियम भी देखा था। जिसमें उन व्यक्तियों के नाम व कुछ की फोटो लगीं थीं जिन्हें मज़दूरी कराने के लिये संसार के विभिन्न भागों से जहाज़ों में भर कर लाया गया था। वहाँ मैंने एक लड़की को अपने पूर्वज की फोटो व नाम खोजते देखा था। आप किस देश से आये हैं, आपके पूर्वज कौन व कैसे थे, यह कुछ लोगों के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होता है। जिन्हें पूर्वजों के बारे में पता होता है शायद उनके लिए उसकी अहमियत नहीं होती। या कई को इसका पछतावा भी होता है कि वह अमुक व्यक्ति की संतान क्यों नहीं हुए! मैंने बहुतों को भारत में, अपना सम्बन्ध किसी महान वंश से जोड़ते हुए देखा हैं जो सरासर झूठ होता है। पहली बार वहाँ इस तरह बंधक बना कर लाये हुए एक पगड़ी वाले सरदार जी की फोटो भी देखी। बहुत देर तक देखती रह गई। कारण मन में कई थे। जो मुस्लिम शासकों के ज़ुल्मों के सामने अडिग खड़े रहे, जो पाक से भगा दिए जाने पर नया सिरे से ख़ुद को खड़ा किये वह मज़दूर बंधक क्यों कर बना होगा?
इन मज़दूरों के रहने की जगह पर लोहे के पटरेनुमा, स्ट्रेचर से मिलते जुलते बेड थे। वह बैरक समुद्र के किनारे बने थे। जहाँ पर मज़दूर पाली-पाली में सोते थे। उस बंद जेलनुमा जगह को देख कर मन बहुत बोझिल हो गया। अमेरिका ने अपने विकास के लिए व्यक्तियों की तस्करी की नई-नई मिसालें पेश कीं। नया स्वप्नों का झूठा संसार दिखा कर लोगों को लुभाया। नये-नये हथकंडे अपनाये। मेरे विचार से अमेरिका उन सब का ऋणी है व रहेगा, जिन्होंने इसे बनाने में अपना ख़ून पसीना बहाया। अपना देश भुला कर यहाँ के निवासी बने।
दूसरी बार-अपनी बेटी से मिलने सेंटियागो जाने के लिए वाया नेवार्क जाना पड़ा। मेरे पति के मित्र वहाँ लेने आये थे। उनकी पत्नी मुझे न्यूयार्क ले गईं थीं। बहुत रोमांचक सफ़र था। वह पहली बार हाइवे पर कार चला रही थी। हम दोनों ही कार में थे। बातें करते, कविता सुनते-सुनाते हम न्यूयार्क पहुँच गये। वहाँ से बस लेकर अटलांटिक कैसिनो बाज़ार गये। बस वालों ने कुछ डॉलर केसिनो में बाज़ी लगाने को दिए थे। ज़िन्दगी में पहली बार कैसिनो का लुभावना संसार देखा। जिनके खनखनाते डॉलर निकल रहे थे, उनके चेहरे चमक रहे थे। जिनके नहीं निकल रहे थे, वह मायूस से एक मशीन से दूसरी मशीन पर भाग्य आज़मा रहे थे। इस तरह डॉलर मेरे से तेरे हो रहे थे। हम भी जब तक वो डॉलर हमारे पास थे, खेलते रहे। जब डॉलर चुक गये तो समुद्र के किनारे टहलने लगे। वहाँ एक ताजमहल की अनुकृति का होटल देखा। जिसे देख कर लगा कि शाहजहां अगर इसे देख ले तो ज़ार-ज़ार रो पड़े और तुरंत नेस्तनाबूद कराने का फ़रमान जारी कर दे। वहाँ हमने बीच पर हाथ से चलने वाली (भारत जैसी) रिक्शा देखीं। लोग उनमें बैठ कर घूम रहे थे।
अटलांटिक सागर का पानी बहुत साफ़ व पारदर्शी था। ज़मीन साफ़ दिखाई पड़ रही थी। वहाँ सीगॉल समुद्री पक्षी बहुत थे। हमने खाने के लिए कुछ शाकाहारी ख़रीदा। हम बैठने की जगह खोज ही रहे थे कि सीगॉल ने झपटा मार कर खाना उड़ा लिया। ख़ैर वापस बस मिलने के समय तक घूमते रहे। फिर बस लेकर कार पार्किंग पहुँचे वहाँ से वापस न्यूजर्सी चले गये।
तीसरी बार न्यूयार्क:
हमारी बेटी ने 3-4 महीने पहले ही कनेक्टीकट में नया घर लिया था। 12 अप्रैल 2025 को मैं उससे मिलने कनेक्टीकट गई। वह न्यूयार्क हवाई अड्डे पर मुझे लेने आई। वहाँ से उसका घर ढाई घंटे की दूरी पर है। जाते जाते रात हो गई। मैंने अपनी बेटी से कहा कि मैं न्यूयार्क तो पहले भी दो बार गई थी परन्तु टाइम्स स्कॉयर वग़ैरा नहीं देखा है। उसने कहा कि हम वहाँ चलेंगे। 18 अप्रैल का उसने न्यूयार्क रेलवे स्टेशन से वाकिंग डिस्टेंस पर होटल बुक करा लिया। उसने बताया कि कनेक्टीकट से न्यूयार्क तक ट्रेन चलती है। हम माँ बेटी 1/30 घंटा कार से स्टेशन पहुँचे। रास्ते में दक्षिण भारतीय रेस्तरां अन्नपूर्णा में दोपहर का भोजन किया और ट्रेन में आ कर बैठ गये। होटल में चैकइन करके कमरे में आराम किया। फिर शाम को न्यूयार्क को रंगीन रोशनी में झिलमिलाते देखने गये। सभी सड़कों को चौखाने की स्टाइल से बनाया था, चौरस के खेल की बिसात के अनुसार बनाया था। सड़क के एक तरफ़ खड़े होकर जहाँ तक आँखें देख सकतीं हैं सड़क सीधी रेखा में दिख रही थी। बड़े-बड़े शानदार शोरूम थे। कुछ देर घूमते-घूमते हमारी नज़र ‘मुन्ना भाई रेस्तरां’ पर टिक गई। हम दोनों उसे देख कर ख़ूब हँसे। हिन्दी सिनेमा का मुन्ना भाई याद आ गया। वाह भई मुन्ना भाई! न्यूयार्क में करिश्मा करने चले आये। हमने भारतीय रेस्तरां देख वहीं रात्रि का भोजन करने गये। वेटर ने पूछा कि ऊपरी तल पर बैठना चाहेंगे? हम ने नीचे बैठने का तय किया। साफ़ सुंदर सजा हुआ रेस्तरां था। जिसमें भारतीय केवल हम-दोनों ही थे अग़ल-बग़ल की सीटों पर गोरे बैठे हुए थे, (पता नहींं कौन अमेरिकन था कौन अन्य देश का?) दाहिने वाली टेबल पर कोई गरमा-गरम बहस चल रही थी। बहस से पता चल रहा था कि कोई प्रोफ़ेसर नई राजनीति पर चर्चा कर रहा था। जिसमें ग़ुलामों का अमेरिका में लाना, नये प्रेसिडेंट का रुझान आदि विषयों पर गर्मागर्म बहस चल रही थी। प्रोफ़ेसर Political Relation का एक्सपर्ट था और स्वतंत्र पत्रकार (journalist) था। जिसमें कभी फ़्राँस की क्रांति तो तभी औद्योगिक क्रांति पर चर्चा आ जाती थी। खाना तो साधारण, काम चलाऊ था, परन्तु डिस्कशन ने समां बाँध दिया था। बिल देकर बाहर आये और फोटो खिंची। बेटी ने बड़ी रहस्यमय आवाज़ में अपने भाई को फोन कर के बताया कि मुन्ना भाई ने यहाँ रेस्तरां खोल लिया है। बेटे ने कहा, “शाबाश! लगे रहो मुन्ना भाई।” फिर होटल आ कर हम सो गये।
19 तारीख़ को बेटी ने सेंट्रल पार्क जाने की योजना बनाई। हम उबर टैक्सी से पार्क पहुँच गये। वहाँ का दृश्य बहुत अलग-सा था। सड़क के किनारे ताँगे, घोड़ा-गाड़ी खड़ी थीं। जो ख़ूब फूलों से सजी, चटक रंगों से पेंट की गईं थी। वहीं पर भारत की तरह की रिक्शा भी क़तार में खड़ी थीं। रिक्शा पर भी चटकीला रंगीन पेंट था। ख़ूब फूलों (नक़ली) से सजी हुई थी। ओढ़ने के लिए दो कम्बल भी रखे थे। एक रिक्शा के पास खड़े होते ही एक व्यक्ति (दलाल) हमारे पास आया। उसके पास प्रिंटिड पैम्फलेट था जिसमें घंटे व स्थान के हिसाब से घुमाने के डॉलर लिखे थे। हमने 2 घंटे के लिये रिक्शा तय किया। जिसके हमने शायद 250 डॉलर दिए।
रास्ता ऊँचा-नीचा था। न्यूयार्क मैनहैटन के बीच यह विशाल पार्क अपने में एक नई तरह का इतिहास लिए हुए है।
सेंट्रल पार्क मैनहैटन न्यूयार्क का एक शहरी पार्क है। जिसे हम डिज़ाइनर पार्क की संज्ञा भी दे सकते हैं। ऐसा इसलिए लिख रही हूँ क्योंकि इसका निर्माण करने से पहले पार्क डिज़ाइन करने की कई प्रतियोगिताएँ आयोजित की गई थीं। तब स्थापत्य कला, एग्रीकल्चर विशेषज्ञों तथा सैकड़ों मज़दूरों ने मिल कर इसका निर्माण किया। यह पार्क 843 एकड़ में फैला हुआ है। इस पार्क का निर्माण 1857-1876 के मध्य हुआ। 1811 से न्यूयार्क में प्रतिदिन बढ़ती जनसंख्या तथा इमिग्रेंटस के लिए एक खुली जगह की तलाश की जा रही थी। जहाँ खुले आकाश, पेड़ पौधों के बीच वह कुछ समय बिता सकें। न्यूयार्क के पास एक पत्थरीली तथा दलदली ज़मीन थी, जहाँ पर बहुत से किसान रहते थे। वह वहाँ खेती आदि का काम करते थे। न्यूयार्क सिटी सरकार ने वह ज़मीन ख़रीद कर उसे एक बड़े पार्क में विकसित करने का निश्चय किया। जैसा पहले लिखा जा चुका है, इसके लिए निर्माण के डिज़ाइन बनाने के लिए एक प्रतियोगिता आयोजित की गई, जिसमें 33 प्रतियोगियों ने हिस्सा लिया। इसे एक आम जनता के पार्क की तरह बनाने की योजना बनाई गई, जिसमें सब अमीर-ग़रीब, स्त्री-पुरुष, बच्चे, पालतू पशु भी घूम फिर सकें। जहाँ सार्वजनिक कार्यक्रम हो सकें। इस तरह एक सार्वजनिक पार्क की संकल्पना को सेंट्रल पार्क का रूप दिया गया। यहाँ पर्यटन की सारी सुविधाएँ प्रदान की गईं।
पार्क बनाने में पत्थरों को काट कर समतल बनाया गया, दलदली ज़मीन का पेड़, पौधे घास लगा कर सुंदरीकरण किया गया। वहाँ 36 ब्रिज, मेहराबों, पुलिया, सड़कें बनाईं गईं। पाँच लाख पेड़-पौधे लगाए गये। एक हिस्से में जापान के राजा ने चैरी के पेड़ों को उपहार स्वरूप लगवाया। जिसे जापानी पार्क कहते हैं। उन पेड़ों के नीचे घास का मैदान है नीचे की तरफ़ एक नहर है। यह पर्यटकों की पसंदीदा जगह है।
इस पार्क को बनाने में 15 वर्ष लगे। क़रीब 14 मिलियन का ख़र्च आया। इसमें 19 खेल के मैदान हैं। इस पार्क के रखाव पर प्रतिवर्ष बहुत ख़र्च किया जाता है। सार्वजानिक कार्यक्रम लिए एक बड़ा हॉल है। बाहर फ़व्वारे लगे हैं। दीवारों पर भित्ती चित्र बने हुए हैं। यहाँ कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते रहते हैं। पर्यटक कुछ देर रुककर उसका आनंद लेते हैं और ग्रेटीट्यूड में डॉलर उनके डिब्बे में या सामने बिछे कपड़े पर रखते हैं। यह देख कर मुझे अस्सी घाट याद आ गया। जहाँ पर विभिन्न कलाओं का सार्वजनिक प्रदर्शन होता रहता हैं। जिसमें कोई उन्हें रुपये-पैसे नहीं देता। वहीं दूसरी तरफ़ कुछ नट, कलाबाज़ी का खेल दिखा कर, ज्योतिष आदि से रुपयों कमाते हैं। कहीं रामायण कहीं गीता पाठ होता रहता है।
हम जापानी गार्डन गये, वहाँ चैरी के फूलों की बहार थी। मैग्नोलिया के पेड़ मैग्नोलिया के गुलाबी, सफ़ेद फूलों से लदे थे। घास के मैदानों में जनता पिकनिक का सामान लेकर आये हुए थी-चादर बिछा कर, फ़ोल्डिंग कुर्सी पर बैठ कर लेट कर आराम कर रहे थे। बच्चे खेलने में मशग़ूल थे।
जिसे देख कर बहुत से भारत के पार्कों की याद ताज़ा हो गई, जैसे देहली का बुद्धाजंयति पार्क, इंडिया गेट, कुतुबमीनार पार्क, प्रगति मैदान, बनारस का सारनाथ। जहाँ हम भी कभी-कभी खाना, चादर, बरतन, आदि लेकर बच्चों व मित्रों के साथ पिकनिक मनाने जाते थे। परन्तु यहाँ का अनुभव फिर भी अलग था। पार्क के एक तरफ़ पुराने अमीर लोगों की बहुमंज़िली इमारतें थीं तो दूसरी तरफ़ नये अमीरों की बहुमंज़िली रिहायशी बिल्डिंग थी। हमारे रिक्शा चालक ने बड़े उत्साह से हमारा ज्ञानवर्द्धन किया। उसने बताया कि यहाँ दो कमरे का अपार्टमेंट आठ मिलियन डॉलर का है। कुछ उससे भी महँगे हैं। यहाँ अमेरिका के रईस, हॉलीवुड स्टार तथा नामी गिरामी कलाकारों के फ़्लैट हैं। उसने बताया कि तीसरी तरफ़ लेक है, वहाँ बोट क्लब है। वहाँ 100 डॉलर में एक कप कॉफ़ी मिलती है। आपको वहाँ ले चलूँ? हमारी बेटी ने कहा—हम इतने अमीर नहींं है। फिर कुछ दूर जाने पर पूछा कि यहाँ कॉफ़ी पिएँगी, जो 70 डॉलर में एक कप है। हमारी बेटी ने कहा कि इतनी महँगी कॉफ़ी पीने की इच्छा नहींं है। यह बताते हुए वह ख़ासा उत्साहित था। वह एक छात्र था जो पार्ट टाइम में यह काम कर रहा था। किसी दूसरे देश से यहाँ डॉलर कमाने का सपना सजा कर आया था। इस तरह सेंट्रल पार्क घूम कर शाम को हम होटल वापस आ गये।
टाइम्स स्क्वायर
अगले दिन हम टाइम्स स्क्वायर गये। वहाँ की चहल पहल देख कर आँखें चौंधिया गईं। न्यूयार्क की सड़कें चारखाने की तरह फैली हुईं थीं। हड़प्पा की खुदाई में जो नगर मिले हैं उनकी टाऊन प्लानिंग के बारे में Percy Brown ने Architecture of ancient India में हड़प्पा की नगर संरचना का जो वर्णन किया है वह इस प्रकार है:
“In the first place the builders of these cities had acquired no little experience of town-planning, as proved by the methodical manner in which they were laid out with straight streets at right angles, the main thoroughfares running almost due north and south, east and west. The principal buildings were also fairly regularly orientated having their sides towards the cardinal points; while each city was divided into wards for protective purposes. All the walls of both houses and public buildings were constructed with a pronounced batter or slope, but it is in the substance and preparation of these edifices that the artificers showed such exceptional knowledge. In both cities the buildings were composed entirely of burnt brick, which in size were on an average rather larger than the common kind used in the present day.
न्यूयार्क की नगर संरचना मुझे उससे मिलती जुलती लगी।
यहाँ बेहिंतहा भीड़-भाड़ है। कहाँ तो अमेरिका की सड़कों पर केवल तरह-तरह के मॉडल की कारें फर्राटे से दौड़ती दिखाई देती हैं, पटरियों पर एक्का-दुक्का घूमने वाला कान में मोबाइल लगाये दिखाई देता है वहाँ न्यूयार्क में सड़कों पर मनुष्य ही मनुष्य दिखाई दे रहे थे। लगता नहीं था कि अमेरिका का एक शहर यह भी है। यहाँ चहल-पहल बहुत अधिक है। ऐसे लग रहा था जैसे देहली के चाँदनी चौक और कनॉटप्लेस या बनारस में गोदौलिया, लोहराबीर, दशाश्वमेध पहुँच गये। पटरियों पर लगा पटरी बाज़ार जनपथ, नई दिल्ली की याद दिला रहा था।
टाइम्स स्क्वायर पर चारों तरफ़ पोस्टर और रंगीन आकर्षक पोस्टर लगातार चल रहे थे।
कुछ लोग कार्टून करेक्टर बन कर घूम रहे थे। पर्यटक जिनसे साथ डॉलर दे कर फोटो खिंचा रहे थे। टाइम्स स्क्वायर पर अमेरिका के बड़े से झंडे का पोस्टर था। जो एक तरह फोटो शूट करने के लिए लगा था। बहुत व्यक्ति वहाँ फोटो खिंचा रहे थे। हमने भी वहाँ हमने भी फोटो खिंचाई। टाइम्स स्क्वायर में इतनी भीड़ थी कि कारों को चौराहा पार करने में बहुत रुकना पड़ता था। पैदल जाने वालों से ही पैदल पथ ख़ाली नहीं हो पाता था। रेड लाइट होने पर भी व्यक्ति सड़क पार कर रहे होते थे। अमेरिका में पैदल यात्रियों को प्राथमिकता दी जाती है। कोई भी कार या गाड़ी पैदल व्यक्ति को हिट करने की ज़ुर्रत नहीं करता। हमारी बेटी ने बताया कि न्यू यार्क एक मात्र ऐसा शहर है जहाँ पैदल चलने वालों को भी ट्रैफ़िक नियम भंग करने पर टिकट दिया जाता है। पटरी के बाद, एक से एक आकर्षक वस्तुओं के लुभावने शो रूम थे। ऐसे ही शौ रूम के कोनों में कुछ भीख माँगने वाले ग्रटिट्यूड एक्सपडिड का बोर्ड लगाये बैठे थे। एक अपने डॉलर को ठीक से गिन कर रख रहा था। कुछ ज़मीन पर पड़े थे। एक तरफ़ चकाचौंध, ऐश्वर्य की पराकाष्ठा दूसरी तरफ़ घने अँधेरे ही अँधेरे।
कुल मिला कर हर तरफ़ रौनक़, मौज मस्ती, चहल-पहल का आलम था। जिसमें आप चमक कर सितारा बन सकते थे या गुमनामी में खो सकते थे। फिर भी जितनी चहल पहल जीवंतता यहाँ देखने को मिली वैसी अमेरिका के किसी शहर में न देखी थी। हो भी क्यों न अमेरिका की आर्थिक राजधानी जो है न्यूयार्क।
रॉकफ़ेलर बिल्डिंग
टाइम्स स्क्वायर से घूमते घूमते हम 30रॉकफैलर बिल्डिंग गये। यह 60 स्टोरी बिल्डिंग थी। ऊपर तक ले जाने के लिये लिफ़्ट थी। इसे देखने का टिकट लगता है। पहले इसे (GE building) कहते थे। इसमें नाइट शो होते हैं। बहुत तरह के स्टुडियो हैं। कई रेस्तरां हैं। इसमें एक संग्रहालय भी है। जिसमें बिल्डिंग किस तरह बनी, उसे भी दिखाया गया है उस समय मशीनी उपकरण बहुत कम थे। एक दृश्य बहुत भयानक था। एक व्यक्ति रबड़ के दस्ताने पहन कर आग का गोला फेंकता था और दूसरा कई फ़ुट पर दूरी पर बीम पर खड़ा उसे पकड़ता था। लंच के समय संसार के विभिन्न भागों से लाये गये मज़दूर ब्रेड आदि, कई सौ फ़ुट ऊँची बीम पर बैठ कर खाते दिखाये गये थे। परन्तु वह सब आपस में बात कर रहे थे और ख़ुश दिख रहे थे। 1933 में काम के लिए इसका उपयोग प्रारंभ हुआ। यह बिल्डिंग अमेरिकन के द्वारा जहाज़ों के भर कर लाये गये ग़ुलामों के ख़ून पसीने से बनी है। अफ़सोस कि यह ग़ुलाम यहाँ अभी भी ऐसे ही रह रहे हैं। यह न तो अपने देश वापस जा सके और न ही वास्तविक अमेरिकन का दर्जा पा सके। अमरीका के नागरिक अवश्य बन गए परन्तु अभी भी उनका जीवन नहीं बदला।
हम ने 60 वीं मंज़िल से न्यूयार्क का शहर और एक से एक ऊँची बिल्डिंग देखीं।
न्यूयार्क की बिल्डिंग
न्यूयार्क की सबसे ऊँची बिल्डिंग ट्रेड टॉवर है। इसकी ऊँचाई 541 मीटर है। दूसरी इमारत सेंट्रल पार्क टॉवर है जिसकी ऊँचाई 472 मीटर हैं। 111 West 57, The Street Tower की उचाईं 428 मीटर है। यहाँ बिल्डिंग ज़मीन पर न फैल कर आकाश की और बढ़ती हैं। यहाँ की स्थापत्य कला विलक्षण है। पुरानी बिल्डिंग के मुख्य द्वार पर मनुष्यों तथा जानवरों की मूर्तियाँ, भित्ती चित्र बनाया गये हैं। जो इनको बहुत आकर्षक बना देती हैं।
शहर की प्लानिंग भी बड़ी सरल डिज़ाइन पर बनाई गई है। पहले युग में शहर निर्माण की यह शैली सभी प्राचीन शहरों में दिखाई देती है। एक सड़क पर खड़े होकर जहाँ तक नज़र जाते सीधी सड़क दिखाई देती है। + प्लस के साइन की तरह और प्रत्येक क्रॉस पर चौराहा होता है और सड़कें चारों दिशाओं में बढ़ती जाती हैं। इस तरह सड़कें बायें-दायें कटती हैं। जिन पर होटल, बहुमंज़िली इमारतें बनी हुई हैं। सड़क के दोनों तरफ़ चलने की पटरियों बनी हुई हैं। इस तरह टाइम्स स्क्वायर एक नियोजित टाउन प्लानिंग का परिणाम है।
ब्रायंट पार्क (Bryant Park)
दोपहर में कुछ समय आराम कर के शाम को हम ब्रायंट पार्क गये। चारों तरफ़ ऊँची ऊँची बिल्डिंग के बीच में एक खुली जगह थी। जगह काफ़ी बड़ी थी। जहाँ मेला लगा हुआ था। यह मेला वैसा ही दिख रहा था जैसा मेले गाँव देहात, शहर, नगर या राजधानियों में लगा होता है। टेंट में लगी अस्थाई दुकानें लगीं थीं। इन स्टॉल नुमा दुकानों में स्थानीय कारीगरों व आर्टिस्ट का बनाया सामान बिक रहा था। यहाँ का सामान अपने में कला का नमूना था जो शोरूम में नहीं मिलता है। और वह सामान अपनी तरह का अनूठा ही होता है।
हमने वहाँ की दुकानों पर इन कलाकारों की कला को देखा सराहा और कुछ ख़रीदा भी। पर सब सामान इतना महँगा था कि हमारी पर्स पर बहुत भारी था। हम उनका पूरा-पूरा आंनद व यादें सँजो कर लौटे।
1 टिप्पणियाँ
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वाह ऊषा जी । न्यूयार्क की सैर करा दी । आपके लेख द्वारा हम भी घूम आए। बहुत बहुत साधुवाद
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