इनवीजिलेशन ड्यूटी/किसको पकड़ लिया?
डॉ. उषा रानी बंसल
अधिकांशतः यह समझा जाता है कि शिक्षक की नौकरी बहुत आराम की नौकरी है उसमें कोई मार-धाड़, टंटा-बखेड़ा नहीं होता। चैन से जीवन बीत जाता है। शायद बीतता भी होगा। पर आइये मैं आपको इस आराम के जीवन की आपबीती की झलकियाँ दिखलाती हूँ।
1. इनवीजिलेशन ड्यूटी
बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय का सत्र 1976-79 तक अनियमित चल रहा था। कारण कुछ नहीं, छात्रों में आपसी मारपीट, छात्र संघ के उपद्रवों से बार बार बीएच यू साइन डाई, अनिश्चित काल के लिए बंद हो जाता था। 1977 में भी सत्र अनियमित होने के कारण परीक्षा दिसम्बर माह में चल रही थीं। मैं इतिहास विभाग में अस्थायी लेक्चरर थी। (Temporary Lecturer)। उस समय परीक्षा दो पाली में होती थी, पहली पाली 7:30 से 10:30 तक और दूसरी 3–6 तक। मेरी कक्ष निरीक्षक की ड्यूटी सुबह की पाली में लगाई जाती थी। हमारा बेटा तब छह माह का था। हमारे पास इतने रुपये नहीं थे कि उसके लिए आया रख सकते। हम घर में चार प्राणी थे, बिटिया 9 साल की, पतिदेव बीएच यू आई.आई.टी. में रीडर और मैं। बिटिया को स्कूल के लिए तैयार कर, सुबह का नाश्ता व बेटे के लिए दूध की बोतल आदि का काम कर भागते-दौड़ते रिक्शा से परीक्षा केंद्र पहुँचते थे। उस दिन मेरी ड्यूटी प्रथम तल के लेक्चर थियेटर में थी। मेरे साथ दो और इनविजिलेटर भी थे। कॉपी, पेपर बाँटने के बाद, छात्रों की कॉपी पर उनका नाम रोल नम्बर, परीक्षा का विषय आदि ठीक लिखा है चैक कर के साइन करना होता था, छात्र के साइन भी एक शीट पर करवाये जाते थे। इस सब में एक घंटा बीत जाता था। फिर कमरे में 8 सीढ़ियों पर चढ़ते-उतरते छात्रों पर निगरानी करनी होती थी कि कोई नक़ल तो नहीं कर रहा है। कक्षा में मुझे घूमते हुए सभी छात्र अपना मनोयोग से पेपर करते लग रहे थे।
परन्तु दो घंटा बीते होंगे कि मैं घूमते-घूमते आठवीं सीढ़ी पर पहुँची तो एक लड़के, (जिसे मैं बहुत शांत और लिखने में व्यस्त देख रही थी) ने जैकट की जेब से तभी पर्ची निकाली। मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। कमरे में हंगामा मच गया। दो में से एक कक्ष निरीक्षक तो जाने कहाँ ग़ायब हो गये। ख़ैर परीक्षा केन्द्र से अधिकारी आये रिपोर्ट लिखी गई। क्योंकि मैंने पकड़ा था, मुझे सिग्नेचर करने पड़े। जैसे-तैसे 3 घंटे बीते। मैं कॉपी वग़ैरा सम्हलवा कर, जमा कर घर पहुँची।
घर पर पतिदेव अपने इंस्टीट्यूट जाने के लिए तैयार बैठे थे। सो वह स्कूटर से चले गये।
हमने बच्चे को प्यार किया। उसको नहलाने के लिए गैस पर पानी चढ़ाया। साड़ी उतार कर गाउन पहना। फिर बच्चे की मालिश का सामान निकालने लगी। तभी घंटी बजी। मैंने दरवाज़ा खोला तो दो लड़के सामने खडे़ थे। एक के हाथ में कट्टा, देसी पिस्टल थी। उसमें एक लड़का वही था जिसे मैंने नक़ल करते पकड़ा था। मैं उसे बिल्कुल नहीं जानती थी। मैंने उसे पढ़ाया भी नहीं था। गेट खोलते ही शुरू हो गया, “आप अपने को क्या समझती हैं, किसी को भी पकड़ लेंगी, किसी की भी शिकायत कर सकतीं हैं?”
मैंने पूछा, मेरा घर, पता किसने बताया?”
“आप को इससे क्या? हम अभी आपको मार सकते हैं, तब क्या करेंगी?”
बहुत कुछ अनाप-शनाप बोलते रहे, मैंने कहा कि मुझे तो आपका नाम भी नहीं पता, न मैंने आपको पढ़ाया, न मेरी आपसे कोई दुश्मनी, मुझे जो ज़िम्मेदारी दी गई वह मैं पूरी कर रही थी।
“बड़ी आईं ज़िम्मेदारी वाली और भी व्यक्ति तो थे, हम आपको मार देंगे।”
मेरा धैर्य समाप्त हो गया। मैंने कहा कि अगर मेरी मृत्यु आपके हाथ लिखी है, तो तुरंत गोली चला दो, पकड़े भी नहीं जाओगे, मेरे घर में छह महीने का बच्चा है, और कोई नहीं है। गवाही भी कोई नहीं देगा, देख क्या रहे हैं!
“अरे! आप जानती नहीं हैं हम किसके भाई हैं?”
“आप बता दीजिए, मुझे। सच में नहीं पता!”
उन्होंने कोई नाम बताया, कहाँ बैठते हैं यह भी बताया।
बस फिर क्या था, मैंने आव देखा न ताव, कहना शुरू किया, “अब आप चुपचाप चले जाओ, अपने भाई को ही ले कर आना, उनसे पूछूँगी कि अपने भाई को पढ़ाने भेजते हैं या नक़ल कराने, टीचरस को बंदूक से डराने।
“अब आप चले जाइये आप से बात नहीं करनी।”
“आप बनारस की नहीं हैं, आपको देखते हैं, कैसे लंका से बीएचयू जायेंगी?”
“देखते रहना, नहीं जायेंगे।”
“तब क्या करेंगी?”
“घर पर रहेंगे, बच्चा देखेंगे।”
और वह बड़बड़ाते चले गये।
(बाद में वह यूपी विधान सभा में विधायक व मंत्री भी बना)
गेट बंद कर, मैं कमरे में कुर्सी पर धड़ाम से गिर पड़ी, मैं बुरी तरह काँप रही थी,
गैस पर पानी मेरी तरह ही खौल रहा था!
2. किसको पकड़ लिया?
मेरे जीजाजी ने बताया था किसी समय खुरजा में परीक्षा में नक़ल का यह आलम था कि छात्र डेस्क पर रामपुरी चाकू गाड़ कर नक़ल करते थे। कक्ष निरीक्षक आँखों पर पट्टी बाँध कर (अनदेखा) ड्युटी करते थे। ख़ैर बीएचयू में ऐसी दबंगई नहीं थी। परन्तु उस समय नक़ल तो होती ही थी। जितना समय छात्र पर्ची बनाने में लगाते, मैं सोचती कि उतने में तो सब याद ही हो जाये। बाद में किसी ने कहा दबंग पर्ची भी दूसरों से बनवाते हैं। ‘अगर वो ग़लत बना दें तो?’ मैं कई बार यह सोचती थी।
उस दिन मेरी शाम की पाली में ड्युटी थी। बिटिया स्कूल से आ गई थी। सो उसके पास बेटे को छोड़ में कक्ष निरीक्षक की ड्यूटी करने गई। मेरी ड्यूटी उस दिन भी लेक्चर थियेटर में थी। हम तीन व्यक्ति वहाँ थे क्योंकि कमरा बड़ा था। क़रीब डेढ़ घंटे बाद एक लड़के को जैकट की उपरी जेब से काग़ज़ निकालते मैंने पकड़ लिया। मज़े की बात यह हुई कि यह देख कर दोनों व्यक्ति यह कह कर कि अभी आते हैं कमरे से बाहर चले गये। वह लड़का बहुत आग बबूला हो गया और अपना पेन वग़ैरा उठा कर, कॉपी मुझ पर फेंकते हुए बोला कि जब लिखने ही नहीं दे रहीं तो आप ही लिख लो . . .
फिर कंट्रोल रूम में ख़बर पहुँची। अधिकारी आये और मुझे रिपोर्ट लिख कर हस्ताक्षर करने पड़े।
उसके बाद दोनों कक्ष-निरीक्षक भी आ गये। एक ने बड़े गुप्त तरीक़े से बताया कि जिसे आपने पकड़ा है वह आपके पति के इंस्टीट्यूट के गणमान्य प्रोफ़ेसर का रिश्तेदार है। आप रिपोर्ट वापस ले लीजिए।
मैं उनका मुँह देखती रह गई।
“क्या जो रिपोर्ट पहले की थी, वह मैंने ग़लत की थी?”
उनसे कुछ नहीं कहा, ड्युटी पूरी की और घर वापस।
मन में शान्ति थी कि कोई धमकाने नहीं आया।
अगले दिन दोपहर को उन प्रोफ़ेसर की पत्नी अपनी ननद के साथ हमारे घर आईं। हमारे उनसे पारिवारिक सम्बन्ध थे। कहने लगी आपके बच्चे को देखने व आपसे मिलने का मन था सो आ गये। हम तो कल की बात भूल चुके थे। चाय पानी नाश्ते के बाद बहुत देर बात होती रही। फिर उन्होंने कहा कि आजकल के लड़के बड़ी नादानी कर देते हैं। हमने उसे ख़ूब डाँटा व समझा दिया है। आप कुछ बुरा मत मानिएगा।
वह भी बाद में यूपी विधानसभा में विधायक व मन्त्री बना।
नोट: भला हो वाइसचांसलर (Vice chancellor) डॉ. रस्तोगी, डॉ. गौतम, डॉ सिम्हाद्रि जी का जिन्होंने अथक प्रयास करके इस नक़ल को रुकवा दिया। उड़ाका दल बनाये, स्वयं भी अचानक कभी कहीं, किसी कमरे में कहीं भी पहुँच जाते थे।
ऐसी शान्तिपूर्ण ज़िंदगी थी हमारी।
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