1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय

01-11-2022

1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 216, नवम्बर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

जनवरी 1857 को कलकत्ते से पाँच मील पर स्थित डमडम छावनी का एक सिपाही मंगल पाण्डेय लोटे में पानी लेकर मंथर गति से अपने चौके (सिपाही के खाना बनाने का स्थान) की तरफ़ चला जा रहा था। उस समय अँग्रेज़ी सेना के उच्च वर्ग के सिपाहियों को अपना खाना ख़ुद बनाने की छूट थी। उन्हें सैनिक मेस में खाना खाने की बाध्यता न थी। सिपाही मंगल को सामने आता हुआ डमडम कारतूस फ़ैक्ट्री का खलासी (मेहतर) मिला। खलासी ने मंगल पाण्डेय ने कहा कि “पंडित जी बहुत प्यास लगी है। अपने लोटे से पानी पिला दो।” 

मंगल पाण्डेय बोला,“तुम ठहरे मेहतर, मैं ब्राह्मण हूँ। तुम्हें पानी पिलाने से मेरा लोटा जूठा हो जायेगा। तब मैं खाना केसे बनाऊँगा। मेरा धर्म भ्रष्ट हो जायेगा।” 

उन्नीसवीं शताब्दी में भारत में जात-पात तथा छुआ-छूत ज़्यादा थी। उच्च वर्ग के लिये पोखरे, तालाब, घाट आदि पृथक-पृथक होते थे। खलासी बोला, “पंडित जी आपको जात का बड़ा गर्व है, जल्द ही सारा ग़ुरूर मिट्टी में मिल जायेगा। कम्पनी सरकार गाय तथा सूअर की चर्बी से भिगोये कारतूस राइफ़ल में लगाने के लिए बना रही है, जिन्हें दाँत से खोलना पड़ेगा। तब तुम्हारे धर्म का क्या होगा?” 

खलासी की बात सुनकर मंगल पाण्डेय का चेहरा तमतमा गया। उसे यकायक खलासी की बात का यक़ीन नहीं हुआ। उसने सोचा, मुझे नीचा दिखाने के लिये ऐसा कह दिया होगा। परन्तु उसके दिल में खलासी की बात फाँस की तरह चुभ गई। मंगल पाण्डेय इस बात से परेशान रहने लगा। उसने अपने साथियों से इस घटना का उल्लेख किया। वे सभी धर्म-भ्रष्ट होने की आशंका से चिन्तित हो गये। हिन्दू गाय को पवित्र और मुसलमान सूअर को अपवित्र मानते हैं। मांसाहारी हिन्दू भी गाय का मांस और मुसलमान सूअर का मांस नहीं खाते थे। 

सत्रहवीं-अट्ठारहवीं सदी में आने वाले यूरोपीय व्यापारियों ने न केवल भारत से व्यापार किया, बल्कि, भारत में अपने ठिकाने, चर्च आदि बनवाये तथा बड़े पैमाने पर भारतीयों को ईसाई भी बनाया। भारतीयों  को लालच देकर या धोखे से उनका धर्म भ्रष्ट कर दिया जाता था। जिसके कारण उन्हें परिवार और समाज से बहिष्कृत कर दिया जाता था। इस परिप्रेक्ष्य में चर्बी वाले कारतूस का प्रयोग हिन्दू और मुसलमानों को ईसाई बनाने का एक उपाय समझा गया। डॉ. आर.सी. मजूमदार ने लिखा है, “जो हिन्दू समाज के बारे में कुछ भी जानते हैं वह तुरंत सहमत हो जाएँगे कि यह भय केवल अकारण ही नहीं था, बल्कि उनमें से बहुतों के लिये आहत करने वाला था।” (“Those who know anything of the Hindu society in those days would readily agree this fear was not only unfounded, but would weigh even more heavily with many of them।”) 

नेशनल इन्फ़ैंट्री 34 की टुकड़ी बैरकपुर में स्थित थी। 18 तथा 25 फरवरी को ऐनआई 34 की टुकड़ी बहरामपुर अपनी रूटीन ड्यूटी पर गई। बहरामपुर कलकत्ता से 120 मील पर स्थित है। तब 34वीं बटालियन की इस टुकड़ी ने बहरामपुर की उन्नीसवीं बटालियन की टुकड़ी से चर्बी वाले कारतूसों के बारे में सुना होगा। 26 फरवरी को सिपाहियों ने चर्बी वाले कारतूसों के डर से परेड में जाने से इन्कार कर दिया। इस बात की ख़बर जेसे ही कमांडर माइकल को लगी, वह क्रोध से आग-बबूला हो गया। उसने सिपाहियों को लाइन हाज़िर करने का निश्चय किया। लेकिन उसने सब्र से काम लिया और सिपाहियों को लाइन हाज़िर नहीं किया। उधर सिपाही भी परेड में पहुँच गये। इस घटना से सिपाहियों का चर्बी वाले कारतूस के विषय में सन्देह पक्का हो गया। कम्पनी ने भी इस घटना की जाँच कराई। इस घटना को स्थानीय सिपाहियों का असंतोष माना गया। ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार ने 19वीं रेजिमेंट तोड़ने का आदेश दे दिया। 34वीं नेशनल इन्फ़ैंट्री के सिपाहियों को इस घटना से बहुत दुःख पहुँचा। उनका सिर शर्म से झुक गया, वे सब आत्मग्लानि से भर गये। चर्बी वाले कारतूसों को दाँत से काटने की सम्भावना ने हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों को असंतुष्ट बना दिया। इसी बीच बैरकपुर तथा रानी गंज की 34वीं नेशनल इन्फ़ैंट्री तोड़ दी। बरख़ास्त सिपाहियों ने अपने घर जाकर चर्बी वाले कारतूसों की घटना का ज़िक्र किया। जिससे यह बात आग की तरह पूरे देश में फैल गई। अँग्रेज़ी सरकार ने इस पर उच्चस्तरीय क़दम उठाने का निश्चय किया। वह सिपाहियों को स्पष्टीकरण देना चाहती थी, पर फिर उसे धार्मिक उन्माद के डर से स्थगित कर दिया। इस तरह चर्बी वाले कारतूसों में चर्बी के प्रयोग की बात एक सच्चाई थी जो नई प्रकार की राइफ़ल के कारतूसों के लिए बनाये गयी थी। 

अचानक एक अनहोनी घटना घटी। 29 मार्च 1857 को रविवार के दिन सायंकाल में जनरल हिपरसी ने सिपाहियों को संबोधित करके अन्तिम व्याख्यान दिया। उसके बाद सभी आराम करने चले गये। तभी एक भारतीय सार्जेन्ट ने जाकर ख़बर दी कि मंगल पाण्डेय नामक सिपाही हाथ में भरी बन्दूक लेकर अपने साथियों को विद्रोह के लिए उकसा रहा है। मंगल पाण्डेय को जब गार्द और सार्जेन्ट ने रोकने की कोशिश की तो उसने उस पर गोली दाग दी मेजर सार्जेन्ट ह्यूसन ने लेफ़्टिनेंट बाघ को भी इसकी सूचना भेज दी। बाघ भी शीघ्रातिशीघ्र वहाँ पहुँच गये। जैसे दोनों वहाँ पहुँचे, मंगल पाण्डेय ने अपनी बंदूक से फ़ायर कर दिया। परन्तु गोली उनके घोड़ों को लगी। दोनों घोड़ों से गिर पड़े। बाघ ने अपनी तलवार निकाल ली और मंगल पाण्डेय की ओर दौड़ा। ह्यूसन ने सिपाहियों को हुक्म दिया कि मंगल पाण्डेय को गिरफ़्तार कर लो। मंगल पाण्डेय ऊँची आवाज़ में धर्म भ्रष्ट करने वालों के विरुद्ध कार्य करने के लिये सिपाहियों को प्रोत्साहित कर रहा था। अजीब स्थिति थी, सैनिक जड़वत खडे़ थे। ह्यूसन के हुक्म से उनमें कोई हरकत नहीं आई। ऐसा लग रहा था कि सिपाहियों की श्रवण शक्ति उनका साथ छोड़ गई थी। वे शायद किसी की भी बात नहीं सुन रहे थे। किंकर्तव्यविमूढ़ खड़े थे। मंगल पाण्डेय के प्रोत्साहित करने पर भी बग़ावत करने का साहस नहीं जुटा पा रहे थे। मंगल पाण्डेय के साहस ने उन्हें अचम्भित कर दिया था। लेफ्टिनेंट बाघ और ह्यूसन ने मंगल पाण्डेय पर वार किया। मंगल पाण्डेय ने फ़ायर कर उन्हें घायल कर दिया। किसी अन्य सिपाही ने निशाना चूकने पर उनको गोली मार दी। शेख़ पलटू नामक सिपाही ने दोनों अँग्रेज़ों अफ़सरों को घटनास्थल से भगाने में सहायता की। परन्तु आर सिपाही अफ़सरों की सहायता के लिये आगे नहीं बढ़े, न ही किसी ने मंगल पाण्डेय को पकड़ने का प्रयास किया। मंगल पाण्डेय की बन्दूक ख़ाली हो गई थी। 

वह उसमें गोली भर रहा था तभी जनरल हिपरसी गोरे अँग्रेज़ सिपाहियों के साथ अपने दो पुत्रों को लेकर वहाँ पहुँच गया। जनरल ने दूर से देखा कि मंगल पाण्डेय सिपाहियों को विद्रोह करने के लिये उकसा रहा था। जनरल हिपरसी पर मंगल पाण्डेय ने बन्दूक दाग दी, परन्तु उनका निशाना चूक गया। गोरे सिपाहियों ने उसे घेर लिया। अपने को घिरा देखकर उसने ख़ुद पर निशाना लगाया वह ख़ाली चला गया। उसे गिरफ़्तार कर लिया गया। 

मंगल पाण्डेय का कोर्ट मार्शल हुआ। उस पर मुक़दमा चलाया गया। अन्त में उसे फाँसी की सज़ा सुना दी गई। 8 अप्रैल 1857 का दिन फाँसी देने के लिये नियत किया गया। बैरकपुर का कोई जल्लाद मंगल पाण्डेय को फाँसी पर झुलाने को तैयार नहीं हुआ। अन्त में कलकत्ता से चार जल्लाद बुलाये गये। मंगल पाण्डेय ने कहा कि जिनको मैंने मारा था, उनसे मेरा कोई व्यक्तिगत विद्वेष नहीं था। मैंने जो कुछ भी किया, स्वधर्म और अपने देश की रक्षा के लिये किया। मंगल पाण्डेय को 8 अप्रैल 1857 की सुबह फाँसी के फन्दे पर लटका दिया गया। इससे सारी रेजिमेन्ट में मातम छा गया। मंगल पाण्डेय ने जो बलिदान दिया उसका रंग शीघ्र ही पूरे क्षितिज पर फैल गया। पूरे उत्तर भारत में एक माह बीतते बीतते 10 मई 1857 को स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बज गया। 

धन्य है अमर शहीद मंगल पाण्डेय जिसने ईस्ट इंडिया कम्पनी सरकार की हुकूमत में कील ठोकने का साहस किया। विदेशी सत्ता को समाप्त करने का प्रयास किया। क्रान्ति का जयघोष किया। 

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