सनातन संस्कृति में परिवार
डॉ. उषा रानी बंसलगणेश पूजा के दिन थे, भक्त भक्ति भाव से सब भजन गा रहे थे, “ऋद्धि, सिद्धि लेके आओ गणराज, मोरे घर में पधारो। राम जी आना सीता मैया को संग लाना, विष्णु जी आना लक्ष्मी मैया को संग लाना . . .“ अचानक ध्यान आया कि ईश्वर को उनके विभिन्न रूपों में पत्नी, परिवार के साथ आने का न्योता दिया जा रहा है? पर क्यों? अकेले गणेश, रामजी, कृष्ण जी को क्यों नहीं? स्वयं पर बहुत हँसी भी आई कि यह भी कोई कहने की बात है। सनातन संस्कृति में मानव जीवन को आश्रमों में बाँटा गया है। बाल्यकाल, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास आश्रम। जिसमें गृहस्थ आश्रम सबसे कठिन तथा समाज का मेरुदण्ड बताया गया है। बाक़ी तीनों आश्रमों का पोषक भी यही गृहस्थ आश्रम ही है। इसके साथ ही मुझे आदि शंकराचार्य व मण्डन मिश्र के बीच हुए शास्त्रार्थ की याद आ गई। जिसमें शंकराचार्य केवल इसलिये परास्त हुए थे, क्योंकि उन्हें गृहस्थ आश्रम का ज्ञान, अनुभव नहीं था। उन्हें कुछ समय गृहस्थ आश्रम में बिताना पड़ा था, ऐसा लिखा गया था।
बात १९६७-६८ की है, मैं अपनी माँ व पिताजी के साथ मथुरा वृंदावन की यात्रा पर गई थी। जिस पंडे ने हमें मथुरा, वृंदावन, गोकुल, नंदगाँव, बरसाने के दर्शन कराये उसने अपना परिचय ऐसे दिया, “हम साढ़े तीन भाई हैं।“ मुझे साढ़े तीन का मतलब समझ में नहीं आया तब उसने बताया कि तीन की शादी हो गई है और वह अभी (कुँवारा) अधूरा है, उसकी अर्द्धांगिनी आने पर वह भी पूरा हो जायेगा। उस समय तो मुझे यह बहुत मज़ाक़िया बात लगी थी। पर जैसे-जैसे भारतीय सामाजिक संरचना के बारे में पढ़ा तो समझ में आया कि सनातन समाज में परिवार समाज की सबसे छोटी इकाई है। आप जानकर हँसेंगे कि जब कोई बिहार का व्यक्ति अपनी पत्नी का परिचय करवाता है तो कहता है कि, ”मेरी फ़ैमिली“ .. My family. मेरी बात पर यक़ीन न हो तो ’कौन बनेगा करोड़पति‘ में देख लीजियेगा। जब पाश्चात्य देशों की सामाजिक संरचना के बारे में पढ़ा, तो ज्ञात हुआ कि वहाँ परिवार नहीं अपितु व्यक्ति सबसे छोटी इकाई है।
क़रीब १०-१५ दिन पहले सुमन घई जी से बात हो रही थी कि गणेश जी इतने विशालकाय और उनका वाहन इतना छोटा क्यों? इसी पर चर्चा करते-करते परिवार की बात आ गई। तब कुछ तथ्य सामने आये। जनमानस का ज्ञान सीमित हो सकता है पर उनमें समझ बहुत अधिक है। वह सम्पूर्णता (totality) को स्वीकार करता है। दूसरे उसे अच्छे–बुरे, सत्य–असत्य, धर्म–अधर्म आदि की बहुत समझ है। वह मानव जाति में ही नहीं वरन् अपने देव, देवता, ईश्वर को भी उसी मानक से परखता है। एक साधारण से अनुभव से इसे समझा जा सकता है। यह आप सब का अनुभव भी है। राम जी के जो भी मंदिर, मिलते हैं, वह सब राम-दरबार के हैं, अर्थात् राम, लक्ष्मण, जानकी, हनुमान जी के हैं। यह उनका परिवार है। कृष्ण जी के विग्रह रुक्मणी, सत्यभामा आदि के साथ नहीं मिलते। उनके चित्र या तो गोप ग्वालों के संग या रास रचाने के मिलते हैं। मंदिरों में वह अकेले ही विराजते हैं। बाँके बिहारी हों, मदन मुरारी, नाथद्वारा के श्रीनाथ जी, रंगनाथ जी, द्वारिकाधीश . . . आदि। परिवार का विग्रह केवल जगन्नाथ पुरी में मिलता है। जिसमें वह बलराम और बहिन सुभद्रा के साथ दिखाई देते हैं। प्रिय पाठकों आप से निवेदन है कि आप अपने अनुभव व ज्ञान से इसमें सुधार कर मुझे लाभान्वित करें। जो मैंने देखा है उसी के आधार पर लिख रही हूँ। राधा कृष्ण के मंदिर बहुत बाद में बने। अब तो गली-गली इनके मंदिर हैं।
ध्यान देने की बात यह है कि न तो रामचंद्र जी के बच्चों– लव, कुश के उनके साथ, अथवा अलग ही विग्रह मिलते हैं। और न ही कृष्ण जी के, उनकी संतानों के साथ या संतानों के अलग से? (अगर सुधि पाठक कुछ रोशनी डाल सकें तो बड़ी कृपा होगी)
वह अवतार थे, धर्म की संस्थापित करने के लिये आये थे, और अपना कार्य पूरा कर चले गये। जो जन्म लेता है वह सृष्टि के विधान से सदैव नहीं रह सकता, उसे प्रस्थान करना ही होता। क्या वह स्वयं को ईश्वर ही क्यों न कहे! राजा राम के द्वारा गर्भवती सीता महारानी का निर्वासन, का समाज ने तिरस्कृत कर दिया। प्रभु राम का इतना उज्ज्वल चरित्र होते हुए भी सनातन समाज ने उसे परिवार व्यवस्था में स्वीकार नहीं किया, अनुकरणीय नहीं माना। वह तब भी ग़लत था, आज की सोच में भी सही नहीं है।
श्री कृष्ण का राधा के साथ प्रेम अध्यात्मिक धरातल पर चाहे जितना प्रशंसनीय हो, परन्तु सनातन परिवार व्यवस्था के प्रतिकूल है। सोलह हजार स्त्रियों से विवाह, चाहे परिस्थितियाँ कुछ भी रहीं थीं, सामाजिक व्यवस्था के अनुकूल और अनुकरणीय नहीं समझा गया। इस विषय में साहित्य कुंज के व्हटस अप में २९ अगस्त आचार्य संजीव सलिल जी का लेख पढ़ें, जिसमें उन्होंने बताया है कि हरिवंश पुराण तक के ग्रंथों में राधा का नाम नहीं है। राधा कृष्ण एक हैं, राधा कृष्ण की शक्ति हैं, उनसे भिन्न नहीं है, ऐसी गूढ़ द्वैत तथा अद्वैत दर्शन साधारण युवा मनुष्य की समझ से परे होता है। जिसे मान्यता देने से समाज व परिवार व्यवस्था में अनुशासन, संयम, पारस्परिक विश्वास तथा नैतिकता शिथिल पड़ जाती है।
अत: जनमानस की समझ में वह उचित व खरी, सार्वभौम नहीं बन सकी।
इस सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी माने जाते हैं। ब्रह्मांड की रचना के लिये विष्णु की नाल से उनका प्रादुर्भाव हुआ। प्रारंभ में मानसिक वैचारिक संसार रचा गया। जिसमें ब्रह्मा ने सरस्वती की सुंदर रचना की। सरस्वती जी उनकी मानस पुत्री थीं, यह विशेष ध्यान देने की बात है। सरस्वती जी बहुत सुंदर थीं। ब्रह्मा जी उन पर आसक्त हो गये और उनका शील भंग कर दिया। उस मानसी, वैचारिक जगत में उसकी इतनी घोर निंदा हुई कि ब्रह्मा जी कहीं भी पूजनीय नहीं समझे गये। उनकी केवल एक प्रतिमा पुष्कर के तालाब के किनारे है। मैं जब पुष्कर गई तब उसे देखा था पर पुष्प आदि से कोई पूजा नहीं कर रहा था। जब मानस सृष्टि में यह अवांछनीय था तो मैथुनी सृष्टि में मान्यता मिलना कहाँ संभव था?
सनातन संस्कृति में विवाह के समय कोई भी कन्या कृष्ण अथवा राम का वरण नहीं करती। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि पहले जयमाल भी नहीं होती थी। बड़े-बूढ़े कहते थे कि “जयमाल से सीता को कौन सा सुख मिला”? बाद में यह फ़ैशन बन गया। विवाह की रस्मों में सबसे महत्वपूर्ण होती है, “गौरी पूजा“। किसी भी परिवार में सीता या राधा के पूजन का संस्कार नहीं है। स्वयं सीता जी ने धनुष भंग से पहले गौरी जी की पूजा की थी।
सृष्टि के तीसरे बड़े ईश्वर काशी विश्वनाथ, महादेव, गौरी शंकर हैं। काशी में वह परिवार के साथ निवास करते हैं। भगवान शंकर की परिवार के साथ, लिंग रुप में, प्रतिमा रूप में अनेक मंदिर हैं। गौरा के भी नौ रूपों के, पार्वती रूप के भी, शिव के साथ व अकेले भी मंदिर हैं। दोनों की संतानों– गजानन, कार्तिकेय के परिवार के साथ व अलग-अलग बहुत से मंदिर हैं।विघ्नहर्ता, सुखकर्ता, लम्बोदर तो हर जगह विराजमान हैं। दुकान, मकान, द्वार, घर, महल जहाँ-तहाँ अपना वरद हस्त उठाये विराजमान हैं। उनकी पुत्री के भी मंदिर हैं। उसका नाम अशोक सुंदरी है। जो दुखों से मुक्ति दिलाती है। अपनी माता के शोक को दूर करती है। शक्ति रूप में राक्षसों का संहार करने में अपनी माता की सहायता करती है। कथाओं में उसे ज्योति की देवी कहा गया है। उसे मनसा के नाम से भी जाना जाता है, जो सर्पदंश से रक्षा करती है। दक्षिण भारत में इसकी बहुत मान्यता है।
कहने का तात्पर्य केवल इतना है कि सनातन भारत के समाज में परिवार को ही समाज की सबसे छोटी इकाई के रूप में मान्यता दी गई है। जो एक पत्नी धर्म, निष्ठा से निभाता है। सब प्रकार के पाप कर्म से कोसों दूर है। सबका हितैषी है, पालनकर्ता है। जो महर्षियों का महर्षि है। वंदनीय है सौभाग्य दाता है। मेरे विचार से, सनातन समाज में परिवार की कल्पना का आधार रूप है, यही शिव-पार्वती– परिवार है।
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