उलझनें ही उलझनें

01-12-2022

उलझनें ही उलझनें

डॉ. उषा रानी बंसल (अंक: 218, दिसंबर प्रथम, 2022 में प्रकाशित)

नचिकेता ने पूछा था, “मैं कौन हूँ?” 
आज सब की उलझन है कि 
“वो ऐसे क्यों हैं?” 
लड़की को अस्पताल में लिखाये नाम से नफ़रत है, 
वह नाम बदल रही है, 
वह लड़का होना चाहती थी
उफ़ लड़की पैदा की! 
माँ-बाप से ख़फ़ा है। 
लड़के को दिया गया नाम, ना-पसंद है, 
वह लड़की बनने की जद्दोजेहद में लगा है! 
सब नाम बदल रहे हैं 
लिंग बदल रहे हैं 
उलझन-उलझनों में उलझे हैं! 
किसी को मानव या मनुष्य 
होने पर गर्व नहीं, तब 
मानवता-मनुष्यता तो दूर की कौड़ी है! 
किसी को अमुक अरबपति, 
किसी के किसी करोड़पति 
के यहाँ पैदा होना था! 
पर हाय कहाँ पैदा हो गये, 
व्यर्थ की उलझनों में उलझ रहे हैं, 
उलझा रहे हैं, 
अधिकारों के लिये लड़ रहे हैं
कर्तव्य से मुँह फेर रहे हैं
सबका, अपना जीवन 
उलझनों की भँवर के हवाले कर रहे हैं! 

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
कविता
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में