ब्रज के लोकगीतों में नारी चित्रण
डॉ. उषा रानी बंसलवर्तमान समय में ब्रज शब्द साधारणतः मथुरा ज़िला और उसके आसपास का भू-भाग समझा जाता है। ब्रज शब्द का प्रयोग इस क्षेत्र विशेष के लिए 14वीं शती के बाद से प्रारम्भ हुआ। उस समय मथुरा प्रदेश में कृष्ण भक्ति की एक लहर उठी, जिसे साधारण जनता तक पहुँचाने के लिये शूरसेनी, या शूरसेन जनपद, प्राकृत से एक कोमल भाषा का जन्म हुआ। मथुरा जनपद में अनेक वन, उपवन तथा पशुओं के लिये चरागाह थे, जिन्हें ब्रज कहा इस जाता था। अत: इस क्षेत्र से निकली भाषा का नाम ब्रज पड़ा। इस कोमल भाषा के माध्यम से ब्रज ने ब्रजभाषा में साहित्य की रचना की। जिसने अपने रस माधुर्य से भारत के एक बड़े भू-भाग को रस सिक्त कर दिया। इस तरह एक नये ब्रज भाषा-भाषी प्रदेश का रेखांकन हो गया। ब्रजभाषा क्षेत्र ब्रजमण्डल से विख्यात हो गया। उसकी सीमाओं और विस्तार का पता इस श्लोक से भली भाँति चल जाता है:
इत बरहद उत सोनहद, उत शूरसेन का गाम।
ब्रज चौरासी कोस में, मथुरा मण्डल धाम॥
ब्रज भाषा के भक्त कवि सूरदास जी ने ब्रज की सीमाओं का वर्णन किया है:
“चौरासी ब्रज कोस निरंतर खेलत बालमोहन।”
ब्रज धाम के प्रमुख नगर वृंदावन, गोकुल, मथुरा, नंदगाँव, बरसाना, गोवर्धन हैं।
ब्रजमण्डल में जिस ब्रज भाषा में जिस रसपूर्ण साहित्य की रचना हुई उसे दो भागों में बाँटा जा सकता है: प्रथम साहित्य दूसरा लोकसाहित्य। लोकसाहित्य में ब्रज के लोकगीतों का विशेष महत्त्व है। ब्रज के लोकगीतों का मुख्य विषय पौराणिक नायक श्री कृष्ण की बाल लीलाओं का वर्णन करना है। कृष्ण की बालसुलभ क्रीड़ा, चंचलता, साहस, निडरता, वीरता का इन लोकगीतों के माध्यम से ब्रज रज में रस बस गया है। समय, काल, स्थान तथा व्यक्ति वैशिष्ट्य ने इन लोकगीतों को कभी प्रेम कभी रास, कभी शृंगारमय बना दिया है तो कभी वियोग की करुण रागिनी। योग, भक्ति-ज्ञान-कर्म जैसे गूढ़ दार्शनिक विषयों का निर्वाह भी सरल मधुर भाषा में हुआ है। इस लोकगीत में कृष्ण की भक्ति प्राप्त करने के लिये कहा गया है:
मोहन प्रेम बिना नहीं मिलता
मिले न पंडित को, न ज्ञानी को, मिले न ध्यान लगाये।
X X X
मिले न मंदिर में, मूरत में, मिले न अलख जगाये
प्रेम ‘बिन्दु ‘ दृग से टपकें तो तुरंत प्रकट हो जाये।
एक अन्य गीत में कहा गया:
नाना भाँति नाच नचायौ भक्तन ने मोय
X X X
मैं मीरा का गोपाल, गिरधर नंदलाल
और कंस का हूँ काल, दास तुलसी को राम।
प्रेममय भक्ति का निरूपण करते समय जिन कथानकों का आश्रय लिया गया है, उनसे ब्रज भूमि के निवासियों की दशा का पता चलता है। अधिकांश लोकगीतों में कृष्ण नायक व गोपिकाएँ कर्म नायिका हैं। इसलिए इन लोकगीतों में स्त्रियों की परिवार में स्थिति, वस्त्र, आभूषण, मान्यताओं और मूल्यों तथा कार्यों का पता लगता है।
परिवार में नारी की दशा:
ब्रज के लोकगीतों में कन्या का जन्म पुत्र के जन्म की तरह ही प्रसन्नतादायक बताया गया है। राधा के जन्म पर होने वाले उत्सव, बधाई याचकों को दान, मंगलगान, न्योछावर आदि के गीत इसका उल्लेख करते नहीं अघाते। यह गीत देखिये:
“ कुँवरी परगटी गान गावत ढ़ाढी ढ़ाढ़िन आये
कीरति ज़ू की कीरति सुन हम बहू जाचक पहिराये॥
X X X
बार बार कुँवरी के मुख पर सब कौ देत लुटाई॥”
राधा के जन्म पर आने वाले लोग कहते हैं कि:
“अति सुकुमारी घरी सुभ लच्छन कीरति कन्या आई॥”
मध्य युग में जब लड़कियों का जन्म दुख का कारण समझा जाता था, उस समय शायद ब्रज में कन्या का जन्मोत्सव मनाना अपने में अनूठा था। और उससे सामाजिक मूल्य की एक झलक मिलती है।
छोटे लड़के, लड़कियों का साथ खेलना, वन घूमना, उनके परस्पर सम्बन्धों की अभिव्यक्ति है। श्री कृष्ण, माता यशोदा से शिकायत करते हैं कि बलराम स्वयं को बड़ा मानते हैं और उन्हें अपने साथ नहीं खिलाते, और खिझाते हैं। उन्हें भी खेलने के लिये साथी चाहिये। इसलिये क्या उपाय माता को सुझाते हैं कि मैया मेरी शादी करवा दे, जिससे मुझे भी खेलने के लिये साथी मिल जायेगा और मेरा भी खेल बन जायेगा:
“गेल राखे न कबहूँ, ताते भौरे (भोला) कहि तू
X X X
झट ढूँढ़ दे री बहू बन जाये खेल।
मैया कर दे मेरौ ब्याह, मँगाये दे दुलहन छोटी सी . . .”
बहुत ही प्यारा गीत है जिसे यू ट्युब पर सुना जा सकता है। उसे आपके आनंद के लिये:
“मैया कर दै मेरौ ब्याह
मंगाय दै दुलहन छोटी सी
1.
होय गोरी, गुनवारी
होय भोरी सी बिचारी
बड़का की नथवारी
बडे़ गोप की लली
गोप की लली
लली ढूँढ़ दै री माय
या में तेरौ कहा जाय?
झट दूल्हा बनाय
बात मान लै मोरी
मान लै मोरी इन छोटे हाथन बीच
अरी इन छोटे हाथन बीच
लगाय दै मेंहदी थोरी सी
मैया कर दै मेरौ ब्याह
मंगाय दै दुलहन छोटी सी
2.
भले छोटी सी बरात
ग्वाल-बाल पाँच-सात
मल हल्दी लगाय
सीस सेहरो धराय
सेहरो धराय
करूँ थोरी ही सी रीत
गोपी गाय लेंगी गीत
दे दै नयौ पट पीत
जामै रेशमी झगा
रेशमी झगा
धर मुकुट ब्याहवे चलूँ
कछाय दै कछनी कोरी सी
मैया कर दै मेरौ ब्याह
मंगाय दै दुलहन छोटी सी
3.
बहू ऐसी ढुँढ़वाय,
जोकि गोदी में बिठाय
रूठ जाऊँ तो मनाय
मन कर राखे बस
कर राखे बस
बात तेरी हू की माने
और बाबा की हू माने
हौले-हौले बतरावै
आवै बातन में रस
बातन में रस
रस बोर प्रीत ऐसी होय
कि जैसे चंद्र-चकोरी सी
मैया कर दै मेरौ ब्याह
मंगाय दै दुलहन छोटी सी
दुलहन छोटी सी
मंगाय दै, दुलहन गोरी सी
मैया कर दै मेरौ ब्याह
मंगाय दै दुलहन छोटी सी”
इस गीत में उस समय एक लड़की से क्या अपेक्षायें थी, उसका आभास होता है। विवाह के बाद नारी पति के घर में सहयोगपरक जीवन व्यतीत करती है। उसे दो कुलों की मर्यादा निभानी होती है। घर व बाहर के कार्यों में हाथ बँटाना पड़ता था। ब्रज भूमि में दूध और गौ वंश की रक्षा व संवर्द्धन का काम मुख्य था। जिसमें स्त्रियाँ दूध, दही, मक्खन बेचने का काम सम्हालती थीं। मथुरा के राजा कंस के आदेश के कारण उन्हें यह सब मथुरा पहुँचाना पड़ता था। श्री कृष्ण गोपियों को मथुरा दूध, दही मक्खन ले जाने से रोकते थे। वह कभी मक्खन खा जाते, कभी गिरा देते, कभी संगी साथियों में बाँट देते। ब्रज के लोक गीतों में इसका वर्णन मिलता है:
“ग्वालिन कर दे मोल दही को, मोको माखन तनिक चखाय,
X X X
सुन गोरी बरसाने वारी, नैक चखाय दै माखन मौकों।
गूजरी कृष्ण से विनय करती है:
श्याम मोहे वृंदावन जानौ, लौट के बरसाने आनौ
मेरे कर जोरे की मानौ . . . . . .
X X X
हम दधि बेचन जात वृंदावन मिली ब्रज गोरी”
ऐसा लगता है कि गोपियाँ साथ-साथ दूध दही माखन बेचने जाती थीं। एक अन्य लोक गीत में उनके पनघट से पानी भर कर लाने के काम का उल्लेख मिलता है। कृष्ण की माता यशोदा से शिकायत करते हुए कहती हैं कि तेरा लाला! हमें पनघट से पानी नहीं भरने देता है। नंदनंदन उनकी गगरी फोड़ देता है। कृष्ण जी भी माता यशोदा से गोपियों की शिकायत करते हुए कहते हैं, कितने सुंदर भाव हैं इस लोक गीत के:
“एक दिना की गत सुन मैया,
मैं बैठा एक द्रुम की छैया,
ढिग बैढ्यो बलदाउ भैया,
ये लै पहुँची गागरी रिपट्यो वा का पाँव
मेरे गोहन पड़ गईं धक्का दीनौ श्याम
गुलचा मार गाल लाल कीनौ”
एक दूसरे गीत में कृष्ण गोपी से माफ़ी माँगते हुए कहते हैं:
“आज छोड़ दे सौगंध खाऊँ,
फेरी न तेरे घर में आऊँ
नित्य तेरी गागर उचवाऊँ . . .”
जल से भरी गगरी को सिर पर रखने के लिये किसी को उसे ऊपर उठवाना पड़ता है, उसे ही उचकाना, उचवाना कहते हैं। इससे पता लगता है कि पुरुष गगरी को उठवाने में सहायता करते थे। यह एक सामाजिक आपसी कार्य था।
ब्रज की नारियाँ न तो अशक्त थीं और न असहाय। वह इतनी निडर थीं कि कृष्ण व ग्वाल बालों की शिकायत उनके माता-पिता से कर देती थीं। वह स्वयं भी उन्हें दण्डित करती थीं। कुछ लोक गीतों के अंश देखिये:
“ग्वालिन मत पकरे मेरी बैंया, मेरी दूखै नरम कलैया।
X X X
चोरी करै सो खाये गारी, यहाँ को चेरी बसे बिहारी,
की डरपै तुमसे ब्रज नारी!
X X X
हमें दिखावत हो ठकुराई
कंस राजा पै करूँ पुकार तेरी, मुसक बधांवै लगाये मार,
तेरी ठकुराइ दै निकाल . . .”
इन लोक गीतों में ब्रज में नारी-पुरुषों के समारोहों में सामूहिक रूप से सम्मिलित होने व पूजा आदि करने का सुंदर विवरण मिलता है। गोवर्धन पूजा पर ब्रजकुमार-ब्रजनारियाँ एक साथ गोवर्धन पूजते तथा मंगल गान गाते थे। एक लोक गीत के कुछ अंश:
“ब्रजवासी ब्रजगोपी आई, वह पकवान डला भर लाई,
पूजा करि परकम्मा दीनी, करि दंडौत स्तुति कीनी
सबन मिली बोलो जय जयकार।”
दूसरे लोक गीत में गोपियाँ कहती हैं:
“नाय मानें मेरौ मनुवा, मैं तो गोवर्धन कूं जाऊँ मेरे बीर।”
ब्रज के लोक गीतों में बहू को मान-मर्यादा, पतिव्रत धर्म का पालन करता दिखाया है। रीति काल के कवियों ने पतियों को कृष्ण से गोपियों के मिलन में बाधक दर्शाया है। लोकाचार, कुलटा व लोकोपवाद के भय से ब्रजबालायें भयभीत चित्रित की हैं। जबकि महत्त्वपूर्ण बात यह है कि ब्रज के लोकगीतों में पतिव्रत धर्म तथा प्रेम भक्ति अलग-अलग स्तरों पर स्थापित की गई है। उसमें पतिव्रत धर्म लौकिक परस्पर रमण की ओर संकेत करता है तो प्रेम भक्ति संसार की सुध बुध भुला कर परमात्मा में लीन होने का संदेश देती है:
“ऐसी बाजी पीर नेह की, सुधि गई बिसर देह की,
X X X
कंघा बेंदी सब धर दीनी . . .
लोकलाज कुल कान न कीनी, बौरी भई श्याम रंग भीनी,
पहुँची जहाँ घनश्याम, सुधि सब भूली घर बर की॥”
मध्ययुग में जब पतिव्रत धर्म को सर्वोपरि आसन पर आसीन किया जा रहा था, स्त्रियों को घर की चहारदीवारी में बंद करने, उसे सती व जौहर के लिये प्रेरित किया जा रहा था, उस समय ब्रज के लोकगीतों में नर-नारी के लौकिक-नैसर्गिक सम्बन्धों को महत्ता दी गई। उसे जन्मान्तर या अध्यात्मिक मूल्यों से ढकने की कोशिश नहीं की गई। वरन् दोनों का अलग-अलग अस्तित्व स्वीकार करते हुए नारी के लिये भी परमपद का द्वार खोल दिया गया। सांसारिक बंधन, जन्मान्तर के सांसारिक जीवन के बंधनों से प्रेमयोग से मुक्ति की राह सुलभ करा दी गई।
लगता है उस समय की कुलवंती नारी पर सास, ननद, जिठानी, देवरानी तथा जग हँसाई से व्यथित थी। आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कृष्ण की बंसी सुन कर सभी उम्र की नारियाँ सास, जिठानी, ननद आदि घर छोड़़ कर चल देती थीं। फिर भी कृष्ण जब एक गोपी का रास्ता रोक लेते हैं तो। वह कहती है:
“जो मोय होय अबेर लड़े घर ननद जिठानी रे।”
श्माम जब ग्वालिनों को पानी भरने के समय परेशान करते हैं, तथा कंकड़ मार कर घड़ा फोड़ देते हैं तो गुजरियाँ सास के क्रुद्ध होने के भय से काँपने लगती हैं:
“कान्हा गागरिया मत फोरै, मेरे घर सास लड़ैगी रे
सास ननद मेरी अति की खोटी, गारी देंय न देगीं रोटी
ननद बड़ी छरछन्द पिया के कान भरेगी रे।
सास बड़ी होशियार गारिन की बौछार करेगी रे
कहा बिगडै़गो श्याम तिहारो मोकूँ जाय देश निकारौ,
तारी दे-दे ब्रज की दुनिया हँसी करेगी रे।”
ऊपरोक्त गीत में विवाहित नारी की दशा का मार्मिक वर्णन है। काम में थोड़ी सी चूक होने पर गालियों सुननी पड़तीं हैं, अपमानित होना पड़ता था। यहाँ तक कभी-कभी घर से भी निकाल दिया जाता था। पास-पड़ौस के लोग सहायता करने के स्थान पर असहाय स्त्री का तमाशा देखने, मज़ाक बनाने, दोष निकालने लगते थे।
ब्रज में संयुक्त परिवार में सास-श्वसुर, का स्वामिनी की तरह अनुशासन चलता था। बहू इस बंधन से किसी भी तरह मुक्त होने की चाह रखती थी। (शायद ससुराल में यही बंधन लड़की को बहुत दुख पहुँचाता है) इससे मुक्त होने का यह सुझाव सुझाया गया:
“जो कछु रसिया कहहै सो करियो,
सास-ससुर का डर मत करियो
सोलह कर बत्तिस पहरियो।”
विवाह योग्य कन्या में सुंदर सुशील होने के गुण देखे जाते थे:
“गोरी गुनवारी हो भोरी सी बिचारी,
झलकारी नथवारी, बड़े गोप की लली।”
कन्या के लिये वर ढूँढ़ते समय वर के गुणों पर मुख्य ध्यान दिया जाता था न कि धन सम्पन्नता, प्रतिष्ठा को। कृष्ण के पिता नंदगाँव के सम्मानित व्यक्ति हैं, तथा मुखिया हैं। उनके पास ऐसा कहा जाता है कि 1 करोड़ गाय थीं। लेकिन फिर भी कृष्ण से कोई अपनी कन्या का विवाह नहीं करना चाहता। जब कान्हा मैया से उसकी शादी करवाने का दबाव डालते हैं तो माता यशोदा कहतीं हैं:
“फिर-फिर जात सगाई लाला, लाला तेरी फिर-फिर जात सगाई॥
बरसाने वृषभानु नन्दिनी मैया, तेरी जिकर चलाई॥
पर देख देख तेरे अवगुन को फिर गये बाम्हन नाई॥
X X X
मैं कैसे कहूँ राधे री, कन्हैया तेरौ कारौ,
कारौ आप कारौ संग वारे, ओढ़े कम्बल कारौ,
लूटि-लूटि दधि माखन खावे
कैसे तो होगो मेरी राधे का गुजारौ॥”
ब्रज के लोकगीतों में स्त्रियों की वेशभूषा है। जिस पर भाँति-भाँति की कढ़ाई व जरी, किनारी लगाने का उल्लेख है। लाल, पीला, गुलाबी, नारंगी, चम्पई, आदि चटक रंग के कपड़े ब्रज बालायें पसंद करती थीं। विभिन्न आभूषणों में मोती की माला का ज़िक्र बार बार लोक गीतों में हुआ है:
“हा-हारवाऊँ परूं तेरे पैंया, मति डारौ गल गलबैयां
मोतिन की माला मेरी टूट परेगी रे॥”
काजल बिंदी, महावर, मेहँदी आदि वस्तुएँ प्रसाधन के लिये प्रयुक्त की जाती थीं। शरीर के विभिन्न अंगों पर गोदना गुदवाने के ब्रजवासी शौक़ीन थे। गोपियों की इस रुचि का लाभ उठाते हुए श्याम राधा से मिलने के लिये नर से नारी बन जाते हैं:
“बन गये नंदलाल लिलहारी कि लीला गुदवाय लेउ प्यारी”
एक और गीत देखिये:
“मनिहारी का रूप बनाया, श्याम चूड़ी बेचने आया . . .”
जननी के रूप में यशोदा के रूप को मूर्तिमान किया है। लोकगीतों में यशोदा ममता, वात्सल्य की निर्झरिणी हैं। पुत्र के गुण अवगुण की समालोचक व सत्पथ पर चलने के लिये अभिप्रेरित करने वाली अभिप्रेरणा हैं। बच्चों के अनुशासन न मानने पर या हठ करने पर दण्ड देने वाली स्वामिनी हैं यशोदा। श्याम को चोरी छोड़़ देने के लिये, समझाने व दण्डित करने के प्रसंग लोक गीतों में यत्र तत्र बिखरे पड़े हैं:
“अरे, माखन की चोरी छोड़़ कहैंया मैं समझाऊँ तोय . . .
X X X
मारै मति मैया वचन भरवाय लै, मारै मति मैया . . .”
ऊखल से बाँधने आदि के गीत बहुत सुंदर हैं।
निष्कर्ष:
ब्रज के लोकगीतों में नारी के जीवन के विभिन्न पक्षों की अभिव्यक्ति हुई है। ब्रजभाषा में कोमलकांत स्वर लहरी ने ब्रज ललनाओं के दुख-सुख का मार्मिक वर्णन किया है। पारिवारिक दायित्वों के बोझ, सास व जग-हँसाई के डर के भय को बड़े हृदयस्पर्शी ढंग से वक़्त किया है। मुरली मनोहर की मुरली की धुन पर लोक लाज, घर द्वार, पति बच्चों को छोड़़ कर प्रेम योग में लीन होने का मनोहारी विहंगम चित्रण किया है। जिसने अनावश्यक कुलवंती पतिव्रता के छंद बंदों को सरलता से शिथिल कर स्वतंत्र जीवन, अध्यात्मिक मोक्ष का मार्ग प्रशस्त कर दिया। ब्रज बालायें घर की चारदिवारी में बंद, बंधनों से जकड़ी नहीं थी। वह घर से बाहर तक के कामों में हाथ बँटाती थी। सामाजिक व आर्थिक क्षेत्र में उनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण थीं।
संदर्भ ग्रंथ:
इस लेख को तैयार करने में जिन पुस्तकों से उद्ग्रहण लिये हैं वह इस प्रकार हैं:
-
कृष्ण दत्त वाजपेयी, ब्रज का इतिहास
-
नारायण भट्ट, भक्ति विलास
-
सूरदास
-
नंददास, ग्रंथावली
-
प्रभुदास, माखन लीला, ब्रज के रसिया
-
हरगुलाल, मध्ययुगीन कृष्ण काव्य में सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति
-
कल्याण प्रसाद शर्मा “किशोरी” की रचनायें
-
रत्नावली
-
गोकुल, बरसाने, गोवर्धन के लोक गीत
-
बिंदु दास के कृष्ण भजन
-
घासी राम, लिलहारी लीला
-
बहुत से प्रचलित लोकगीत
2 टिप्पणियाँ
-
राजनंदन जी टिप्पणी के लिये धन्यवाद । हमारी सखि भोजपुरी का वह गीत गाती हैं।
-
बहुत सुन्दर आलेख। ब्रज के बारे में जितना पढें कम पड़ जाता है। विशेषकर नारी के संबंध में। ब्रज वस्तुतः नारी प्रधान सस्कृति है। बहुत से कृष्ण भक्त कृष्ण से भी ज्यादा महत्व राधा को देते हैं। मथुरा में कृष्ण कृष्ण कहता हुआ शायद हीं कोई मिले मगर राधे राधे बोलने वाले लगभग सभी हैं। राधे नाम का प्रभाव वहाँ इतना ज्यादा है कि बाहर से गये हुए लोग भी राधेमय हो जाते हैं। और नारी की प्रधानता इतनी अधिक है कि भगवान स्वयं हीं नारी बनकर चूड़ियाँ वगैरह बेचने निकल पड़ते थे। एसी श्रुति कथा है। इस संबंध में बिहार के बज्जिकांचल क्षेत्र में एक गीत बड़ा प्रचलित है मोहन बन गये नर से नार करिके सोरहो शृंगार पहने चूड़ियाँ लगाये बिंदिया माथे पे सर पे रखे हैं छोटी सी टोकरिया गोकुल से पहुँचे हैं राधा की नगरिया चूड़ियाँ ले ले कोई नार करि ले सोरहो शृंगार पहने चूड़ियाँ लगाये बिंदिया माथे पे
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