उनके घर हम बहुत बार गये,
हर बार उन्हें सहमे,
सबकी अपेक्षाओं पर –
ख़रा उतरने की
जद्दोजेहद करते देखा।
अपने मान-सम्मान को
ताक़ पर रख,
उनके अहं, शान-ओ-शौकत,
परम्पराओं के दर्प को,
सम्हालते देखा।
डर-डर कर तिल-तिल
जीते मरते देखा,
भव्य जंगल में सहमी
हिरनी सी थीं वह।


कल तो कल था,
बीत गया,
बीते कल की छाया ने
पीछा न छोड़ा,
अबकी बार उन्हें-
अपने कहीं बेगाने न हो जायें,
की त्रासदी झेलते देखा।


ज़िंदगी के इस पड़ाव पर –
निश्चिन्तता से कोसों दूर,
अपनों को ख़ुश रखने,
अपनेपन की चाह में
मन ही मन घुटते हुए जीते देखा,
अपनों के ममत्व की आशा में,
स्वयं को तोला -माशा –रत्ती करते पाया।

समाज की मर्मस्पर्शी
निगाहों से बचने की कोशिश में,
अपनों के बीच अकेलेपन का
दर्द सहते देखा,
अबकी बार पिंजड़े में फड़फड़ाती
सोन-चिरैया ही लगी वह।

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
सामाजिक आलेख
ऐतिहासिक
सांस्कृतिक आलेख
सांस्कृतिक कथा
हास्य-व्यंग्य कविता
स्मृति लेख
ललित निबन्ध
कहानी
यात्रा-संस्मरण
शोध निबन्ध
रेखाचित्र
बाल साहित्य कहानी
लघुकथा
आप-बीती
यात्रा वृत्तांत
हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
बच्चों के मुख से
साहित्यिक आलेख
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में