सुहागिन से भिखारिन
डॉ. उषा रानी बंसलनोट: भिखारिनों पर यूँ तो टैगोर जी, प्रेमचन्द्र जी आदि की बहुत उत्कृष्ट कहानियाँ हैं। पर यह कहानी तीर्थ स्थानों के भिखारियों के बारे में है। जिनमें महिला व पुरुष दोनों तरह के भिखारी होते हैं। उनमें अधिकांश का भीख का कटोरा उनके दुखों का करुण सागर अपने में समेटे रहता है। इसमें जबरन गैंग के हत्थे चढ़े भिखारी बनाये बच्चों की बात नहीं है। वह अलग कथानक है।
एक सुबह दुकान खोलने गई तो देखा कि एक औरत दुकान के सामने बरामदे में अपनी चादर बिछाए बैठी है। बाहर की ख़ाली जगह में तीन ईंट जोड़कर बनाए चूल्हे पर पतीली चढ़ी थी, अल्मुनियम की तसली में कुछ ढँका रखा था। दुकान खोलते समय मुहूर्त ख़राब न हो, इसलिए अपनी नज़र मैंने फेर ली। फिर दुकान का ताला खोल कर झाड़ू लेकर सफ़ाई करने लगी। तभी किसी की आवाज़ ने मुझे चौंका दिया। बड़े विनम्र ढंग से एक स्त्री मुझसे झाड़ू माँग रहा थी, और साथ में मेरी दुकान झाड़ने की अनुमति देने का विनय भी कर रही थी।
कृष्ण जन्मभूमि परिसर में दो वर्षों से मेरी दुकान थी। तीर्थयात्रियों की बसें मेरी दुकान के सामने ही रुकती थीं। भिखारियों की पंक्तियाँ वहाँ पर वर्ष भर लगी रहती थीं, ऐसी कृपा करने का विनय इससे पहले किसी ने नहीं किया था। भीख लेने या सामान लेने के लिए तो अलबत्ता दुकान पर लोग आते–जाते रहते थे। जबसे जन्मभूमि परिसर में पुलिस का टेंट गड़ गया और चारों ओर मस्जिद की सुरक्षा के नाम पर बैरिकेडिंग कर दी गई तब से बसों का शॉपिंग कंपलेक्स में प्रवेश बंद हो गया। भिखारी भी धीरे-धीरे वहाँ से खिसक गए। ऐसे में किसी नए भिखारी का, उस पर भी अकेली का परिसर में डेरा जमाना, बड़ा कौतूहल पूर्ण था। डेरा जमाने से भी ज़्यादा दुकान की सफ़ाई करने का आग्रह करना तो और भी आश्चर्यजनक था। शायद भिखारियों के उसूल के ख़िलाफ़ था। भिखारी अगर नौकरी कर पेट भर सकता है, तो भीख क्यों माँगे, अगर भीख का कटोरा हाथ में ले लिया तो नौकरी उनके ठेंगे से। अर्थात् क्यों खटें? और अगर खटना ही है तो भिखारी क्यों बने? मुझे पशोपेश में देखकर, मेरा ध्यान भंग करते हुए वह बोली कि वह पहले हरिद्वार में भीख माँगती थी, कल ही यहाँ आई थी। आपकी दुकान बंद थी सो उसके बाहर सामान रख कर सो गई। आप झाड़ू मुझे दे दें, “मैं प्रतिदिन आपकी दुकान व बाहर का बरामदा झाड़ दूँगी, मुझे तनख़्वाह या कुछ भी नहीं चाहिए।”
उसकी इस बात ने मुझे और भी आश्चर्यचकित कर दिया। मैंने कहा कि अभी सुबह-सुबह का वक़्त है मुझे दुकान खोलने दो आप अपना काम करो और मुझे मेरा काम करने दो, मुख में शब्द बड़बड़ाये, ’चालू भिखारिन’ कहीं की। वह मुँह लटका कर चली गई।
अगले दिन दुकान खोलने गई तो देखा कि मेरी दुकान के सामने का बरामदा धो-पोंछ कर चिकना कर दिया गया था। उस भिखारिन का सामान भी मेरी दुकान से थोड़ा हटकर रखा था। वह भिखारिन चाय छान रही थी, मुझे देख कर उसने हाथ का पतीला नीचे रख दिया और हाथ जोड़कर मुझे नमस्ते की। “जी नमस्ते,” कहकर मैं दुकान खोलने लगी, दुकान खोल कर जैसे ही मैं सफ़ाई करने लगी वह भिखारिन पुनः मेरे पास आ गई और दुकान में सफ़ाई करने देने का विनय करने लगी, ’अति भक्ति चोर लक्षण’, ’कहीं दुकान भी ना साफ़ कर दे, इनका क्या भरोसा?’ उसका विनय इतना सहज था कि मैं मना नहीं कर पाई। अब तो वह भिखारिन ही नहीं मेरी सफ़ाईकर्मी भी बन गई।
तीर्थयात्री तो दुकान परिसर में कम ही आते थे, इसलिए दुकान पर अकेले ही झक मारती रहती थी। संस्कारगत ट्रेनिंग के कारण मैं दुकान पर ख़ाली समय में मैदा के जाने (सैवईं) या खरबूजे के बीज छीलती थी। सर्दी में ऊन की बुनाई करके समय व्यतीत करती थी।
ज़्यादातर दुकानदार पुरुष थे, इसी कारण मेरी किसी से बातचीत भी न थी। मंदिर भोर में खुल जाता था। अतः दर्शनार्थी भी सुबह-सुबह या शाम को आते थे। दोपहर में मंदिर बंद रहने के कारण मंदिर का बाज़ार भी प्राय बंद रहता था। वह भिखारिन 10:00 बजे तक भीख भी बटोर कर वापस आ जाती थी। फिर बैठ कर भीख में मिले पैसे गिनती और अन्य वस्तुओं को ठीक करती। एक पुलिस वाला उसके पास आता था, वह उसे अपनी भीख से कुछ देती थी। मुझे लगता था कि पुलिस वाला सरकारी नौकर है, तनख़्वाह पाता है, पर मनोवृति परम भिखारी की है, जो भिखारिन से भी भी भीख लेकर जाता है। लेकिन पुलिस वाले को भीख देते समय उसके चेहरे पर क्रोध या ग्लानि नहीं वरन् दाता का अभिमान दिखाई देता था। क्या अद्भुत माया है इस संसार की! भिखारिन भिक्षा दे, वो भी सामर्थ्यवान को।
सर्दी के दिन थे। एक दिन मंदिर में किसी कृपालु ने कम्बल बाँटे थे। प्रतिदिन की तरह वह 10:00 बजे वापस लौटी, उसके साथ एक और भिखारिन भी थी। दोनों मेरी दुकान के सामने सीढ़ी पर आकर बैठ गईं। उसकी साथिन शिकायत कर रही थी, कि अब लोग दान देने में कंजूसी करते हैं, भीख से ठीक से गुज़ारा नहीं हो पाता। मथुराधीश ने भी ग़रीबों की तरफ़ से निगाह फेर ली है। इस सर्दी में एक भी गर्म कपड़ा नसीब नहीं हुआ। उसने श्रीकृष्ण को अमीरों के साथी होने के लिए भद्दी सी गाली दी।
दूसरी भिखारिन तिलमिला उठी, बोली, “बहिन सब ठीक है पर बाँके को कुछ न कहियो, तू क्या जाने कितना दयालु, कृपालु है वो। उसकी आस्तिक हो कर तो देख। मुझे तो इस सर्दी में बिना माँगे चार कम्बल मिले हैं। लाला को कुछ न कहियो, ले एक कम्बल मुझ से ले ले। ‘जब वाको विश्वास ही नायं’ तो भीख माँगने क्यों निकली।”
दोनों प्रभु की दया पर दार्शनिक शास्त्रार्थ करने लगीं।
परिसर वाली बोली, “तुझे मेरे बारे में कुछ पता है क्या?”
दूसरी वाली, उसका मुँह ताकने लगी। मेरे कान भी उसका अतीत जानने के लिये खड़े हो गये।
“अरे! मैं तो राजस्थान की रहने वाली हूँ। घर में चार बेटा, चार बहू, पोते-पोती सभी हैं। घर पर व्यापार बड़ा अच्छा है। धन-दौलत की कुछ कमी नहीं है। एक बार मैं बीमार हो गई थी। मेरी जाँघ में एक घाव हो गया था, वह घाव बढ़ता गया। डॉक्टर को दिखाया तो उसने कहा यह तो कोढ़ है। मुझे किसी ने कुछ नहीं बताया। एक दिन पति ने कहा, कि तुम बहुत दिन से तीर्थयात्रा पर जाने को कह रही थीं, चलो कल हरिद्वार चलते हैं? हम सब बस से हरिद्वार पहुँचे, हरिद्वार का दर्शन किया। मेरे पति तीन-चार दिन मेरे साथ रहे, फिर मुझे धर्मशाला में अकेला छोड़ कर चले गए। मैंने रात तक इंतज़ार किया पर जब वह देर रात तक नहीं लौटे तो, मैंने धर्मशाला के मैनेजर को सूचना दी। उसने कहा कि माई रात भर देख लो परंतु मुझे चैन कहाँ? मैं पौ फटते ही मैनेजर की चौकी के पास जा खड़ी हुई। चार घंटे बाद जाकर मैनेजर आया, मुझे देखकर बोला कि माई तेरा आदमी अपने घर चला गया। तुझे भगवान के भरोसे छोड़ गया। तेरा बिल चुका दिया है। तुझे कोई रोग है, इसीलिए तुझे नहीं बताया।”
मैं इस अप्रत्याशित निर्दयता को सहन न कर सकी, शायद बेहोश हो गई। जब होश आया तो ख़ुद को गंगा की रेती पर पड़ा पाया, पोटली में बँधा सामान भी पास में रखा था। मैं रात तक दुख में डूबती-उतरती वहीं जड़ीभूत हो कर रह गई। रात को घना अँधेरा घिरने पर मुझे डर लगने लगा। तब मुझे कुछ होश आया और लुकती-छुपती पुल के नीचे एक तरफ़ खिसक गई। मैंने सोचा था कि मैं अकेली हूँ! पर वहाँ तो मेरी जैसी कितनी छुपीं थीं। “नानक दुखिया या संसार!” वह दुखियारी जो पहले से वहाँ थी, मेरा दुख बाँटने लगी। सबका दुख एक दूसरे से बढ़कर था। सभी अपनों या परायों की सताई थीं। परित्यक्त होकर प्रभु की शरण में या यूँ कहिए भीख माँगने को विवश कर दी गई थीं। परंतु उनमें दुख का एक अजीब अपनापन था। एक-दो दिन तो भीख माँगने न जा सकी! लेकिन जब सब धन चुक गया और भूखे रहना भी ना बन सका, तब अपना मन मार कर पेट की आग बुझाने, दुबकती-सिमटती भीख माँगने वालों की क़तार में जा बैठी। पति के धोखे पर कलेजा चाक हुआ जाता था। बच्चों की निष्ठुरता, उनको जनने और पालने में जो रात काली की थीं, वो आँखों में घूमती रहती थीं। क्या मेरा ख़ून गंदा था? बच्चों के प्रति प्यार ग़लत था? जाने क्या भूचाल सा मन में हरदम आता रहता था। एक बार, एक बार, बस एक बार, वह मिल जाए तो पूछूँ, कि जीवन भर साथ निभाने का वादा अग्नि के सामने क्यों किया था? तीस साल साथ रहने का यह फल चुकाया? मेरी ग़लती क्या थी? अगर तुम बीमार हो जाते? फिर ख़ुद ही अपनी जीभ काट लेती।
“ऐसा नहीं सोचते, वो जहाँ भी रहें, ख़ुश रहें। भिक्षा ले माई . . .” सुनकर लगता जैसे पिघला शीशा कान में पड़ गया हो! जो अभी कुछ दिन पहले तक लाइन में बैठे भिखारियों को भिक्षा दे रही थी, आज भिक्षा लेने को विवश है।
“एक दिन जाने कैसे प्रभु की कृपा हुई कहीं टेप बज रहा था कि ’दाता एक राम भिखारी सारी दुनिया’ तब ’मैं’ छूट गया। पति और बच्चे सब के प्रति क्षोभ, मोह के बंधन कट गए। प्रभु की भिखारिन के रूप में मेरा नया जन्म हो गया। जाँघ का घाव कोढ़ था या नहीं, यह तो मुझे मालूम नहीं, पर गंगा जी की कृपा से—गंगा स्नान से स्वतः ही ठीक हो गया। हरिद्वार में भिक्षा देने वालों की कमी नहीं थी। प्रतिदिन हज़ारों, हज़ारों तीर्थ यात्री ट्रेन व गाड़ी से आते थे। आवश्यकता से ज़्यादा भिक्षा मिलती थी। वहाँ होने वाले प्रवचनों में मन लगने लगा। वहीं प्रवचनों में मथुरा तथा श्री कृष्ण जन्म स्थान के बारे में पता चला। मथुरा व श्री कृष्ण धाम देखने की इच्छा बलवती होने लगी। एक दिन यात्रियों की बस मथुरा से आई थी। एक यात्री से बात हुई, मैंने उससे मथुरा धाम जाने की बात की, तो उसने कहा कि कोई दिक़्क़त नहीं, तुम हमारे साथ चलो, हम तुझे श्रीकृष्ण जन्मभूमि उतार देंगे।”
’आगे नाथ न पीछे पगा’, न पति न पुत्र का बंधन। जो सामान भीख से एकत्रित हो गया था, उसे साथियों में बाँट दिया। चार बर्तन, दो जोड़ी कपड़े ले जन्मभूमि आ गई। कृष्ण धाम में तो आनंद ही आनंद था। मुरली मनोहर श्याम सुंदर के भरोसे हो कर तो देख बहन! बड़े कृपालु दयालु हैं, वो ख़ुद ही दौड़े चले आएँगे। देख ना! कुछ ही समय में छोटी सी गठरी इतनी भारी हो गई। जाने कौन से जन्म के पुण्य कर्म थे, कि साँवरिया ने बाँह थाम ली। घर संसार के बंधन कट गए। एक बार उनकी शरण में जा कर तो देख।”
यह दारुण दुख कथा सुन कर मेरी आँखों में आँसू बहने लगे। उन्हें छुपाने के लिए मैं दुकान के भीतरी हिस्से में चली गई। कहीं दूर रामचरितमानस की चौपाई बज रही थी:
सब की ममता ताग बटोरी।
मम पद बंधहि बाँध पर डोरी॥
2 टिप्पणियाँ
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ऊषा जी , अत्यंत मार्मिक रचना , कथा का सुन्दर ताना बाना ,बधाई ! -आशा बर्मन
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अद्भुत! जीवन की विसंगतियों भरी कहानी
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