जब टिटिमा कराना भारी पड़ा
डॉ. उषा रानी बंसलएक ललिता देवी नाम की महिला ने बनारस में भानु सिंह बिल्डर से एक फ़्लैट ख़रीदा। सब रजिस्ट्रार के कार्यालय में रजिस्ट्रेशन हो गया . . . परन्तु न तो भानु सिंह, जिन्होंने सारे दस्तावेज़ टाइप कराये, यह देखा कि उसमें फ़्लैट का नम्बर ग़लत टाइप हो गया। ललिता देवी पहली बार कोई सौदा कर रहीं थीं, उनका बिल्डर पर पूरा विश्वास था। उन्होंने जहाँ-जहाँ भानु सिंह ने कहा, हस्ताक्षर कर दिये . . . पर जब दाख़िल ख़ारिज कराने के लिये नगर निगम गईं तो पता चला कि उसमें फ़्लैट नम्बर ग़लत टाइप है। वह भानु सिंह के पास गईं। भानु सिंह ने कहा कि ये मामूली सी टाइप की ग़लती है, मैं ठीक करवा देता हूँ। उन्होंने ललिता देवी की रजिस्ट्री में फ़्लैट नम्बर ठीक करवा दिया। नगर निगम से काम हो गया।
कुछ साल बाद ललिता देवी ने सोचा कि अब इसे बेच दूँ। उन्होंने किसी से सौदा तय कर लिया। उस व्यक्ति ने काग़ज़ों की जाँच पड़़ताल करवा कर बताया कि रजिस्ट्रार के ऑफ़िस में फ़्लैट का नम्बर नहीं बदला गया है। अत: टिटिमा कराये (Ratification) बिना उसे बेचा नहीं जा सकता। फ़्लैट लेने वाले व्यक्ति को ऑफ़िस के काम से अक़्सर कचहरी जाना पड़ता था। उन्होंने कहा कि एक इसका उपाय है। कचहरी में टिटिमा कराना पड़ता है। वकील की फ़ीस के साथ २०, ००० हज़ार का ख़र्चा लगेगा। पर बिल्डर, ख़रीदार व गवाहों को कचहरी व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना पड़ेगा। क्या आपके बिल्डर जायेंगे? यूँ तो यह कोई बड़ा काम न था। पर बिल्डर के बारे में यह धारणा थी कि वह नहींं जायेगा। सबका कहना था कि वह नहींं जायेगा।
थक-हार कर ललिता देवी ने भानु सिंह जी से बात की। बोले रजिस्टरी हुए दस साल हो गये अब उसमें लिखी कोई भी ग़लती मिलने पर बिल्डर को जुर्माना देना पड़ेगा, यह उन पर लागू नहींं होता है। जब कि ऐसा कोई नियम नहीं है।
बहुत सोच विचार कर छियत्तर साल की ललिता देवी ने फिर भानु सिंह से बात की। वह कहने लगे वह पूछ कर बतायेंगे। उनके पास ललिता देवी को कई चक्कर लगाने पड़े। ग़लती बिल्डर की भुगतना उन्हें पड़ रहा था। एक दिन उन्होंने कहा कि उन्होंने सब रजिस्ट्रार से बात करवाई है, वह ८०,००० हज़ार रुपये माँग रहे हैं। १०० रुपये की अदालत की रसीद पर टाइपिंग की ग़लती में सुधार करने का नियम है। उसमें वकील की फ़ीस, टाइप का ख़र्चा मिला कर दस-पंद्रह हज़ार तक में जो काम हो जाता हो उसके अस्सी हज़ार रुपये देना सरासर अत्याचार लग रहा था। दिमाग़ में उथल-पुथल मच गई। जिसने जीवन में न कभी रिश्वत दी न ली, फ़्लैट भी नम्बर एक में ख़रीदा, उसे रिश्वत देना अपराध लग रहा था। सरकार कहती है अब रिश्वत बंद हो गई है। कुछ दिन दिमाग़ को समझाने में लग गये। (पेंशनर, ) वरिष्ठ महिला ने और वकीलों से बात की। सब १०-२० हज़ार में काम कराने की बात कह रहे थे। पर सबको संदेह था कि बिल्डर उनके साथ कचहरी चलेगा।
दो-तीन हफ़्ते इसी उहापोह में बीत गये। हार कर झक मार कर फिर भानु सिंह से बात की। बोले बहुत कहने से वह ७० हज़ार लेने को तैयार हुए हैं। मेरा तो कुछ देना बनता नहींं। सब रुपये आप को देने होंगे। रजिस्ट्रार कह रहे थे कि फरियाते ही रहोगे या कुछ दोगे भी।
ललिता देवी और टिटिमा नहींं फैला सकती थी। पानी सिर से ऊपर बह रहा था। इससे छुटकारा पाने के लिये उन्होंने बिल्डर को चैक से दो बार में ७० हज़ार रुपये दे दिये। दो महीने की पेंशन बट्टे खाते में चली गई। सब रजिस्ट्रार को सरकार की तरफ़ से पगार मिलती है, ऊपर से गाड़ी बँगला नौकर चाकर, तब भी रिश्वत के बग़ैर काम नहींं चलता। करें भी क्या वह भी इसी व्यवस्था के अंग हैं, एक जगह लेकर दस जगह देने पड़ते होंगे। काली कमाई कभी फलती नहींं हैं।
ललिता देवी को आज तक पता नहींं लग पाया कि इस बंदर बाट में नाजायज़ रुपया किसने-किसने कितना-कितना पाया। पर ललिता देवी को इस बात का सदा दुख रहेगा कि न्याय प्रिय सरकार के वादे कितने खोखले हैं। वास्तविकता से कितनी दूर हैं।
अदालतें जो न्याय देने के लिये बनी है, किस क़द्र अन्याय का रायता फैला कर, शोषण का पर्याय हैं।
काश देश की न्यायपालिका वास्तव में न्याय दे सकती। वह तो सफ़ेद पोश लुटेरों की जमात बन कर रह गई है।
मरघट सबने देखा है, जब एक फूल का पत्ता भी साथ नहींं जाता तब यह लूट मार क्यों? सिकंदर, ग़ज़नी, गोरी सब ख़ाली हाथ ही दफ़न हुए।
प्रभु, इन सब को कभी सुबुद्धि देने की कृपा करना।
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