दरिद्रता वरदान या अभिशाप
डॉ. उषा रानी बंसलदरिद्रता वरदान या अभिशाप सुनने में अजीब लगता है। दरिद्र अर्थात् ग़रीब अर्थात् वंचित अर्थात् शोषित अर्थात् अकिंचन अर्थात् दलित अर्थात् अर्थात् के लिए दरिद्रता कैसे वरदान हो सकती है? जब से भारत के महानगरों में फैली ग़रीबी और दरिद्रता में पलने वाले कुकृत्यों को लच्छेदार भाषा में उजागर करना, कैमरे और चलचित्रों में क़ैद कर विश्व में सम्मान पाने का क्रम प्रारंभ हुआ है, तब से भारतीयों की पहचान दरिद्रता बना दी गई है। मेरा ज्ञान बहुत सीमित है लेकिन जब मैंने कलकत्ता महानगर पर लिखा उपन्यास, ’ए सिटी ऑफ़ जॉय‘ (A City of Joy) पढ़ा, जिस पर पिक्चर भी इंग्लैंड में बनी और बहुत चर्चित हुई। तब मेरा विश्वास इस दरिद्रता की महानता पर पुख़्ता हो गया। एक ऐसा अन्य उपन्यास है ‘सिद्धार्थ’ जिसमें भारतीय अध्यात्म पर करारा प्रहार तथा ईसाई धर्म की श्रेष्ठता दर्शाई गई है। इस तरह के जाने कितने ग्रन्थ अँग्रेज़ी और युरोपीय भाषाओं में लिखे गये हैं। लिखने की रोचक, रहस्यात्मक रोमांचक शैली ने इन पुस्तकों को इतना लोकप्रिय बनाया कि पाश्चात्य जगत में भारत और भारतीय ग़रीबी, पिछड़ेपन, भिखारी तथा समस्त गंदगी, अनाचार, व्यभिचार आदि के पर्याय बन गये। इसका एक प्रभाव यह हुआ कि पाश्चात्य जगत में भारत की एक कुत्सित छवि बनी जिसने यहाँ की सभी अच्छाई को आच्छादित कर दिया। अब विश्व के सदस्य उस छवि को देखने, अपनी आँखों से देखने की लालसा लिए भारत आते हैं। यह बात दीगर है कि उनके यहाँ 18वीं सदी तक और अब नये रूप में इस दृश्य से भी अधिक बदतर स्थिति थी। लेकिन वह अतीत की बात है जो इतिहास के पृष्ठों, म्यूज़ियम तथा अभिलेखागारों, पुस्तकालयों में दफ़न है। वह उस का जीता-जागता रूप देखना चाहते हैं इसलिए भारत के कूड़ेदान खंगालते हैं और जब कुछ उनकी पूर्व छवि से मिलता-जुलता मिल जाता है तो उसे कैमरे में क़ैद कर अपने देशवासियों को दिखाकर यह विश्वास दिलाते हैं कि भारत में इन्सान नहीं जानवर या कीड़े-मकोड़े रहते हैं। इससे उनके अभिमान में वृद्धि होती है और श्रेष्ठता की भावना और विस्तार पा जाती है। मैं यह लिखते समय जानती हूँ कि बहुत से व्यक्ति यह तर्क देंगे कि सत्य को सत्य दिखाकर क्या बुरा करते हैं विदेशी? उनके तर्क तरकश के सभी बाण शायद सत्य हों परन्तु यह भी अकाट्य सत्य है कि कीचड़ जितनी उछालोगे उतनी फैलेगी, उसका विस्तार होता जायेगा। कीचड़ दिखाने से नहीं परन्तु गड्ढे भरने से दूर होती है। परन्तु विदेशियों का और विदेशीनुमा भारतीयों का मक़सद तो भारतीय समाज, राजनीति में फैली दरिद्रता को दिखाना, गहराना है, दूर करना नहीं। उसके लिये जिज्ञासा जगाना है, जिससे उनके चलचित्र, चित्र, उपन्यास हाथों-हाथ बिकते रहें, पुरस्कृत होते रहें। इसी तथ्य ने दरिद्रता को कुछ सम्पन्न व्यक्तियों के लिये वरदान बना दिया है।
मेरा पुत्र कैनेडा से आया था। उसके साथ हम बनारस में कई स्थानों पर गये। सभी स्थान उसे और हम सब को प्रिय हैं। परन्तु बीच-बीच में चर्चा स्लमडॉग पर भी होती रही। मेरे पुत्र आशीष ने कहा कि आप इस पर इतनी उद्वेलित क्यों हैं? वस्तुतः आने वाले विदेशी पर्यटक और यात्री समृद्ध भारत देखने नहीं आते। सम्पन्नता, शॉपिंग मॉल गगनचुम्बी इमारतें, कंकरीट के जंगल, अनुशासन, सुरक्षा, स्वास्थ्य सेवाओं की गारंटी उनके अपने यहाँ भरपूर है। वह जब भारत या अफ़्रीका जैसे देशों की दरिद्रता-ग़रीबी के बारे में पढ़ते हैं या मीडिया (डिस्कवरी चैनल, ज्यौग्रफी चैनल आदि) में देखते हैं तब वह यह कल्पना ही नहीं कर पाते कि ऐसी विपन्नता में लोग कैसे जी रहे होंगे? इसी को देखने, अपनी आँखों से देखने, रोमांचित होने विदेशी भारत आते हैं। वह अपनी जेब के अनुसार पाँच सितारा व अन्य होटलों के वातानुकूलित कमरों में रहते, वातानुकूलित टैक्सी में घूमते हैं। यह सब उनके देश की तुलना में बहुत सस्ता है। उन वातानुकूलित टैक्सी, ट्रेन के डिब्बों से वह रेलवे लाइन पर टट्टी कर रहे लोगों की तस्वीर खींचते हैं। भिखारियों, साँप-नेवले की लड़ाई, मुर्गों की लड़ाई, बंदर का नाच, अधनंगे बच्चों, खेल-तमाशों के चित्र उतारते हैं और अपने देश में ले जाकर अपने मित्रों में उस पर टिप्पणी कर आनंदित होते हैं। आने वाले यह यात्री और पर्यटक दिल्ली के शॉपिंग मॉल में न जाकर जनपथ की झुग्गी-झोपड़ी से सामान ख़रीदते हैं। भारत की समृद्धि उनके अपने देश की तुलना में नगण्य है और उन्हें भारत की समृद्धि में नहीं दरिद्रता में रुचि है। इन्हीं स्थलों पर उनको विशिष्ट स्थान दिया जाता है जिससे उन्हें आत्मसंतोष प्राप्त होता है।
हम अपने पुत्र के साथ गंगाजी में नौका विहार के लिए गये। उस की चार वर्ष की बेटी को हमनें बताया कि यह गंगाजी है, इन्हें प्रणाम करो, इनका आचमन करो तो उसने कहा, (अँग्रेज़ी में) ‘नहीं। यह पानी कितना गंदा है।’ बच्चे राग-द्वेष से परे होते हैं। इंग्लैंड की टेम्स नदी व यूरोप, कैनेडा की अन्य गंदी नदियों से उड़ती संड़ांध को शायद आने वाले यात्रियों ने देखा हो, परन्तु वह भारत की विशाल जीवनदायनी, मोक्षदायनी मैली गंगा पर अश्रु बहाने आते हैं, यहाँ के लोगों का उपहास करते हैं जिन्हें उनकी भाषा न जानने के कारण गंगावासी उनके द्वारा किये गये अपमान तथा उपहास का अर्थ नहीं जान पाते। हमारी नैया में एक दीपक बेचने वाला बैठ गया। उसे आशा थी कि हम दया करके गंगा में प्रवाहित करने के लिए उससे नौका विहार में दीपक ख़रीद ही लेंगे। ग़ज़ब का धैर्य था उसमें। बात-चीत में उसने बताया कि ’आपको पाँच रुपये में एक दीपक महँगा लग रहा है पर मैं यही दीपक विदेशियों को पचास रुपये में बेचता हूँ। कई बार तो विदेशी पाँच सौ रुपये भी दे देते हैं और कहते हैंकि किताब ख़रीद कर पढ़ना।’ मैंने कहा जब तुम इतना कमा लेते हो तो कम से कम साबुन लगा कर कपड़े धोकर पहिना करो। उसने मुझे लाख टके की बात बताते हुए कहा कि अगर साफ़-सुथरे दिखेंगे तो विदेशी पैसा थोड़ी ही देंगे। उसकी बातों से मुझे ग़रीबी का विज्ञान व रहस्य समझ में आने लगा। तभी शायद वर्ल्ड बैंक से क़र्ज़ लेने के लिए भारत के नेता भारत की ग़रीबी का चित्र पाश्चात्य देशों में प्रस्तुत करते हैं। संसार भर के सामने भारत की ग़रीबी की मैली फटी चादर बिछा कर अरबों, खरबों का क़र्ज़ माँगते हैं।
दिल में एक हूक सी उठी की कि भीख पाने के लिए किस हद तक गिरा जा सकता है। हमारे देश में स्वाभिमान नामक कुछ है या नहीं, हम याचक ही हैं क्या? जबकि शास्त्रों में ग़रीबी को महापातक, अधमातम नरक बताया है। तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड की चौपाई संख्या 121 में लिखा है “नहिं दरिद्र सम दुख जग माही . . .” नरोत्तम दास जी ने दरिद्रता की साक्षात् प्रतिमा सुदामा में लिखा है कि वह अपने सहपाठी द्वारिकाधीश तक से अपनी ग़रीबी दूर करने को नहीं कहना चाहते। “जीवन शेष अहै दिन केतिक होहूँ हरि सो जु कनावड़ो (अहसानमंद) जायकै।” यह सुदामा का आत्मसम्मान है। ग़रीबी में धन-भोग की लिप्सा नहीं। वह स्वाभिमान कहाँ चला गया और क्यों? अब सब क्यों ग़रीबी का लबादा ओढ़ने, याचक बनने में गर्व अनुभव कर रहे हैं। कारण है ? शायद भारत की 100 वर्षों की दासता। जब मुसलमान अमीरों ने भारत पर शासन प्रारंभ किया तो अपनी श्रेष्ठता, अपनी पृथक पहिचान बनाने के लिए भारतीय सभ्यता पर प्रहार किया। देवालय तोड़े, घर लूटे, स्त्रियों को उठा ले गये। भारतीय समाज में ऊँच-नीच के भाव को रेखांकित कर स्वयं श्रेष्ठी (सुल्तान-बादशाह) बन गये। मानव की समानता के दावे इस्लाम के अनुयायियों, धर्मांतंरित मुसलमानों, विभिन्न क़बीले के मुसलमानों में फैले भेदभाव में झूठे हो गये। शासक और शासित की खाई गहरी करने के लिए नये-नये फ़तवे दिये गये। अगर जिआउद्दीन बरनी (जिसने सल्तनत काल के सुल्तान बलबन से फिरोजाशाह तुगलक तक का इतिहास लिखा है) की मानें तो उसने हिन्दुओं को अधम बनाने का पक्ष लिया था। उसे तब बहुत प्रसन्नता हुई जब अलाउद्दीन के वित्तीय सुधारों से हिन्दू खुत-चौधरी-मुक़द्दम विपन्न हो गये और जीवनयापन के लिये उनकी औरतों को मुसलमानों के घर काम करने जाना पड़ता था। उसने लगान देने के सम्बन्ध में लिखा कि हिन्दू लगान देने दौड़ कर जाये और कोई मुसलमान थूकना चाहे तो उन्हें अपना मुँह खोल देना चाहिए। उन पर घोड़े पर चढ़ने, सफ़ेद कपड़े पहनने पर पाबंदी लगा दी गई। इस तरह के क़ानूनों और दहशतगर्द तरीक़ों ने हिन्दुओं को ग़रीबी का लबादा ओेढ़ने को बाध्य किया होगा जो बाद में आदत बन गया होगा। यही भेद-भाव तुर्क-मुग़ल शासन के बाद, शासक बने अँग्रेज़ों के समय और भी बढ़ गया।
तुर्क-अफ़गान-मुग़ल शासकों ने बेजोड़ क़िले, महल, मक़बरे तथा मस्जिदें आदि बनवाईं। अँग्रेज़ी शासकों ने भी क़िले, शाही महल, सरकारी कार्यालय बनवाये, लेकिन भारतीयों के लिये कोई नगरीय सुविधा उपलब्ध नहीं कराई गई, जिसका परिणाम यह हुआ कि इन इमारतों, घेराबन्द नगरों और क़िलों के बाहर इन इमारतों में कार्य करने वाले कारीगरों, कर्मचारियों, सेवकों, सफ़ाई कर्मियों आदि की बस्तियाँ, झोपड़-पट्टी के रूप में विकसित हो गईं। इन मलिन बस्तियों में न पीने के पानी और न शौचालयों, नालियों, सड़को आदि की व्यवस्था थी। महल, क़िले जहाँ शासकों की शान व समृद्धि के गढ़ थे, वहीं यह झोपड़-पट्टियाँ भारतीयों की पराधीनता, विवशता, ग़रीबी तथा शासक और शासित के भेद-भाव का ज्वलंत प्रमाण थीं।
जब तक भारत में विदेशी शासन रहा मूल निवासियों की समस्याओं की अनदेखी ही नहीं की गई वरन् उन्हें काले, असभ्य इत्यादि अपमानजनक शब्दों से गालियाँ दी गईं। उन्हें पग-पग पर नीचा दिखाने का प्रयास हुआ। लीगेसी ऑफ़ इण्डिया में एडवर्ड गैरट ने लिखा है कि “कम्पनी के कर्मचारियों की भारत को प्रगतिशील बनाने में कोई रुचि नहीं थी। न ही उन्होंने पश्चिम की उन्नत संस्थाओं को यहाँ प्रारंभ किया। पाश्चात्य जगत को उन्होंने भारत की आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति के बारे में नहीं बताया। जब युरोपीय भारत आये थे तब भारतीय सभ्यता व संस्कृति यूरोप की तुलना में बहुत विकसित थी। जिसे देखकर वह आश्चर्यचकित हो गये थे। इतिहासशास्त्र के प्रारम्भिक इतिहासकारों ने यूनिवर्सल हिस्ट्री में विश्व इतिहास को प्राचीन और आधुनिक युग में बाँटा। जब भारत की प्राचीन संस्कृति का उन्हें ज्ञान हुआ तो उसकी तुलना ग्रीक और रोमन सभ्यताओं से की। उनकी इच्छा विश्व को भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता और उच्चता से परिचित कराने की थी। उनकी इस विचारधारा से कई इतिहासकार प्रभावित हुए। थामस मैरिस ने विलियम जोन्स से प्रभावित होते हुए एनशियेंट एण्ड क्लॉसिक हिस्ट्री ऑफ़ हिन्दुस्तान प्रकाशित की। 18वीं सदी तक इसके 8 जिल्द प्रकाशित हुए। गिबन नामक इतिहासकार ने इंडो-मुस्लिम संसार का इतिहास लिखा। जिसमें एशियाटिक सभ्यताओं की मान्यताओं पर बल दिया गया। लेकिन प्लासी के युद्ध के बाद जब कम्पनी सरकार का बंगाल पर राजनैतिक प्रभुत्व स्थापित हो गया और कम्पनी राज्य का विस्तार होने लगा तो हिन्दू सभ्यता के प्रति जो सकारात्मक विचार थे उनमें परविर्तन आने लगा। गिबन नामक इतिहासकार ने इंडो-मुस्लिम संसार का इतिहास लिखा। इसके आधार पर यह कहा गया कि भारत में युरोपीय पुनर्जागरण दृष्टिगत नहीं होता है। जेम्स मिल ने गिबन के साक्ष्यों के आधार पर तुर्क-मुग़ल शासन को मध्यकालीन यूरोप से उन्नत लेकिन आधुनिक यूरोप से पिछड़ा बताया। यह तर्क अँग्रेज़ शासकों की शासन की प्रवृत्ति के अनुकूल था। अतः पाश्चात्य इतिहासकार इस निष्कर्ष पर पहुचे कि भारत की संस्कृति अर्वाचीन काल में उन्नति के शिखर पर पहुँच कर मुस्लिम शासन में पतनग्रस्त हो गई। इसलिए तुर्क-मुग़ल शासन के इतिहास को उन्होंने मध्ययुग कहकर अँग्रेज़ी शासन को आधुनिक प्रबुद्ध शासन की संज्ञा दे दी। भारत में मुस्लिम शासन में सामंतवादी प्रवृत्तियाँ हावी थीं। अत भारतीय इतिहास को उन्होंने तीन भागों में बाँट दिया: हिन्दू, मोहम्मडन, और आधुनिक।
यहीं से प्रारंभ हुआ यूरोपीय श्रेष्ठता के दम्भ का सूत्रपात। रंगभेद, जातीय भेद-भाव भारतीय परम्पराओं, अंधविश्वासों, जीवन-शैली को उन्होंने न केवल उजागर किया वरन् उन पर प्रश्न-चिन्ह लगाये गये। ऐसा करने में उन्हें तनिक भी ध्यान नहीं आया कि उनका अपना धर्म, समाज इन्हीं रूढ़ियों, अंधविश्वासों, मलिन बस्तियों की त्रासदी को भोग रहा है। इस सम्बन्ध में मैं एक कहानी “प्रिंस एण्ड दी पॉपर ”,Prince & Pauper जिसे प्रसिद्ध उपन्यासकार तथा लेखक मार्क ट्वेन ने लिखा है, का उदाहरण दे रही हूँ। अँग्रेज़ी पढ़ने वालों तथा अँग्रेज़ी उपन्यासों में रुचि रखने वालों ने यह प्रसिद्ध उपन्यास अवश्य पढ़ा होगा। इस उपन्यास में पॉपर (Pauper) की दशा ‘स्लमडॉग जैसी है। जिस मलिन बस्ती में वह रहता है उसकी दशा भारत की किसी भी कूड़ा-करकट बीनने वाले बच्चों की बस्तियों से कम नहीं है। (अगर आप चाहें तो इस उपन्यास का अध्याय-2 तथा अध्याय-4 पढ़ कर देख लें)
एक दूसरा उपन्यास जिसका नाम है “ए ट्री ग्रोज़ इन ब्रुकलिन’। इस उपन्यास को बैटी स्मिथ (Betty Smith) ने लिखा है। इसमें अमेरिकी समाज की बदलती परिस्थितियों का वर्णन हैं। जिसमें धार्मिक अन्धविश्वासों, कूड़ा-करकट बीनने वाले बच्चों की दशा का वर्णन है। इन दोनों उपन्यासों में इंग्लैण्ड और अमेरिका के देशों में मलिन बस्तियों के बच्चों की दशा नरक जैसी है। यौन उत्पीड़न भी वैसा ही जैसा कि किसी भी अन्य उपन्यास, कहानी तथा सहित्यिक और ऐतिहासिक ग्रन्थ में हैं। लेकिन इन्हें कोई ऑस्कर या नोबल पुरस्कार देकर महिमामंडित नहीं किया गया। इनमें वर्णित झोपड़ -पट्टी के जीवन पर चलचित्र बनाकर संसार के समक्ष विकसित देशों के समाजों का दूसरा मलिन चेहरा नहीं दिखाया गया। जो कुछ भी पर्दे पर दिखाया जाता है वह वहाँ की चकाचौंध और भव्यता है, परन्तु उस चकाचौंध के अँधेरों में कितनी ज़िंदगियाँ भोग की स्वतन्त्रता में नारकीय जीवन बिता रही हैं इसे कोई नहीं देखता। इस पर न उपन्यास लिखा जाता है और न पिक्चरें बनती हैं।
भारत के संदर्भ पर वापस लौटते हुए जेम्स मिल और गिबन ने जब से भारतीय इतिहास को प्राचीन, मध्ययुग और प्लासी के युद्ध के बाद के इतिहास को आधुनिक काल में बाँटा तब से इतिहास लेखन की जो धाराएँ विकसित हुईं उसनमें भारत के अतीत की प्राचीन संस्कृति को गौरवशाली बताया परन्तु मध्ययुग को अंधकार का काल बताया। ब्रिटिश शासन में रूढ़ीग्रस्त अंधकार में पड़े भारत को प्रबुद्ध और विकसित, शिक्षित करने तथा उजाले की ओर ले जाने की बात कही गई। भारत को प्रबुद्ध बनाया गया। ये बात दीगर है कि भारतीय विकास के नाम पर विकास इंग्लैण्ड का हुआ, सम्पन्न अँग्रेज़ हुए और भारत ग़रीब से ग़रीब और अँधेरे तथा पिछड़ेपन की ओर धकेला गया। अँग्रेज़ शासक और भारतीयों के बीच गहरी भेदभाव की खाई खोदी गई। सर थामस मुनरो ने इस पर टिप्पणी करते हुए लिखा था:
"Foreign conquerors have treated the natives with violence, but none has treated them with so much scorn as we; none have stigmatçed the whole people as unworthy of trust, as incapable of honesty, and as fit to be employed only where we can not do without them.k~ It seems not only ungenerous, but impolitic, to debase the character of a people fallen under our dominion.” जी.टी. गैरट, दी लीगेसी ऑफ़ इण्डिया, पृ. 398-99.
"विदेशी विजेताओं ने मूल निवासियों के साथ हिंसा का व्यवहार किया है, लेकिन किसी ने भी उनके साथ इतनी घृणा नहीं की है जितनी कि हमने; किसी ने भी कलंकित करते हुए सभी लोगों को इतना विश्वास के अयोग्य, ईमानदारी के लिए अक्षम। और केवल वहीं नौकरी देने के लिए उपयुक्त समझा जहाँ उनके बिना हमारा काम नहीं चल सकता था। ऐसा लगता है कि जो लोग हमारे प्रभुत्व के अधीन आये उनके चरित्र को कम आंकना, न केवल अनुदार है बल्कि अभद्र भी है।" जी.टी. गैरट, दी लीगेसी ऑफ़ इण्डिया, पृ. 398-99.
वह स्वयं को श्रेष्ठ बताने में लगे रहे। मस्जिदों में सब का एक साथ नमाज पढ़ना उन की समानता का मापदंड था जिसके आधार पर वह तलवार के बाद धर्म परिवर्तन कराने के लिया प्रेरित करते रहे।भारतीयों को शासन व्यवस्था तथा सेना में रखा गया। परन्तु अंग्रेजों ने भारतीयों को उन सभी स्थानों में पर रखा, जहाँ युरोपीय को रखना महँगा था।अथवा युरोपीय श्रेष्ठता की भावना के कारण वह ऐसे वैसे कार्य नहीं करना चाहते थे। वह भारतीयों को अविश्वसनीय, …. समझते थे। उनका निरंतर अपमान भारतीयों का स्वाभिमान नष्ट करने के लिया करते रहे। ऐसी टिप्पणियों से आधुनिक अँग्रेज़ी शासन का इतिहास भरा पड़ा है। तब से आज तक, इक्कीसवीं सदी में पहुँचने के बाद भी, अँग्रेज़ी शासन के समाप्त होने के 63 वर्षों के बाद भी पाश्चात्य संसार अपनी श्रेष्ठता, रंग की उच्चता को बरक़रार रखने के लिए भारत को दो टुकड़ों में बाँट कर देखता है; एक था सोने की चिड़िया भारत जो दलितों के दमन व शोषण से सम्पन्न हुआ और दूसरा ऊपर वर्णित विपन्न ग़रीब भारत। सोने की चिड़िया की आलोचना धर्म और जातीय समीकरणों तथा सामन्तवादी प्रवृत्तियों के अन्तर्गत की गई और दूसरे की नस्लवाद, रंगभेद, विकसित-अविकसित; शिक्षित-अशिक्षित, औद्योगिक विकास पुराने ढर्रे का उत्पादन, जीवन-शैली का अन्तर इत्यादि। इस तरह भारतीयों और भारतीय सभ्यता को ऐसे चक्र में फँसा दिया गया है जिस के दो सिरे कभी नहीं मिल सकते। भारत तब से विकसित ओर अविकसित और सम्पन्न और विपन्न की धुरी पर घूम रहा।
यहाँ मैं पाठकों का ध्यान (अगर वह इस लेख को पढ़ते हैं तो) इस ओर दिलाना चाहती हूँ कि आज़ादी के बाद भारत के सिनेमा जगत् में जो भी फ़िल्में हिट हुई हैं उन सब की पटकथा ‘स्लमडॉग मिलेनियर’ जैसी है। जिनमें एक अनाथ बच्चा झोपड़-पट्टी, चाय के ढाबे, बूट पॉलिश वाले के यहाँ पलता है। ग़रीबी के सारे अत्याचार सहता है। ऐसी दर्जन भर पिक्चरों के नायक तो अमिताभ बच्चन ही हैं। यह ग़रीब, अनाथ झोपड़-पट्टी का कीड़ा, डॉन, कुली, बादशाह . . . बन करोड़ों क्या अरबों में खेलता है। सिनेमाघर में जो दर्शक पहले इन्हें देखकर सिसकारी भरते हैं बाद में उनके करोडपति बनने पर ताली पीटने लगते हैं। दूसरी तरह की पिक्चर राजा-महाराजा और सामन्तों की पटकथा पर बनती है जिसमें हीरो-हीरोइन के बीच ऊँच-नीच की काली घाटी होती है। ग़रीबी की रेखा से ऊँचा उठने में क्या-क्या पापड़ नायक-नायिकाओं को बेलने पड़ते हैं। चाबुक, ज़ंजीर से पिटाई, जलील किया जाना, गाली-गुब्तार आदि-आदि। छोटे पर्दे पर भी यही सब सोप ऑपरा में दिखाया जा रहा है। स्वतन्त्रता के बाद राजा-रजवाड़े समाप्त हो गये पर टीवी सीरियल राजा-महाराजाओं पर ही अटके हैं। नुक्कड़ नाटक जैसा सीरियल बनाने में भव्यता और अमीर–ग़रीब की खाई कैसे दिखायेंगे। कहने का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि जो रास्ता 190 वर्ष की ग़ुलामी में तैयार किया गया, उस पर स्वतन्त्रता के बाद इस देश के सरकारी तन्त्र तथा प्रचार माध्यम और आधी-अधूरी अँग्रेज़ी शिक्षा ने जो गाड़ी दौड़ाई है उसका परिणाम यह हुआ है कि देश में ऐसा वातावरण बना है जहाँ आम जीवन और आम आदमी से किसी को सरोकार नहीं है। सारा दृश्य पटल, परिचर्चा, लेखनी, रिऐलिटी शो या तो दलित-ग़रीबी और ग़रीब के शोषण अथवा अमीरी की चकाचौंध से चुँधियाना है।
परिणाम यह हुआ कि इस तरह आम आदमी अपनी नीरस, संघर्ष व दुखभरी, शोषित ज़िन्दगी को पुनः पुनः पर्दे पर देखने में रुचि नहीं रखता। फिर भी ग़रीबी की त्रासदी जो पर्दे पर दिखाई जाती है उससे वह अपने को जेड पाता है उसमें अपना दर्द देखता है। जब वह सिनेमा के ग़रीब को अरबों-खरबों में खेलता देखता है तो वह एक काल्पनिक सुख का अनुभव करता है। वह स्वप्न लोक में विचरता है। उसे आशा बँधती है कि उसका जीवन भी बदल सकता है। भड़काऊ-सनसनीखेज़ सेक्स को देख उसको मानसिक तृप्ति मिलती है। वह सिनेमा में अपनी गाढ़ी कमाई लुटा कर स्वप्नों की दुनिया में खोया-खोया घर लौटता है। इसी आम आदमी के मनोविज्ञान पर सारा रिऐलिटी जगत फल-फूल रहा है।
अन्तिम बात, इक्कसवीं शताब्दी के आगमन के बाद से भारत को विश्वपटल पर एक उभरती ताक़त के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा था। उसी के साथ शुरू हो गया आतंकवाद का क़हर जिससे अगर कहीं भारत प्रगति कर रहा है (मुझे तो संदेह) तो उसका मार्ग अवरूद्ध हो जाये। विश्व में छाई मंदी का भारत पर वैसा प्रभाव नहीं हुआ जैसा अमेरिका, यूरोप आदि में। भारत की बनती छवि ने विकसित राष्ट्रों की श्रेष्ठता की भावना पर जो आघात किया उसका प्रतिशोध (बदला) भारत की दरिद्रता को सम्मानित कर लिया गया। भारतीयों की मानसिक दरिद्रता देखिए कि ऐसी कहानी को पाठ्यक्रम का अंग बना रहे हैं। कहना अनुचित न होगा कि आज सारा शोध कार्य भारत के दलितों, शोषित वर्गों, दरिद्रों पर केन्द्रित है जिससे भारत का कोई एक समग्र चित्र नहीं बन पाता है। जो छवि उभरती है वह विकलांग भारत की है। जब छवि ही ऐसी है और आँख के अन्धे तथा अक़्ल के उल्लुओं का बोलबाला हो तब ऐसा ही होता जैसा ‘स्लमडॉग को लेकर हुआ। उस पर आश्चर्य करने जैसा कुछ भी नहीं है वह तो पराजित लोगों की मानसिकता का दर्पण मात्र है।
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- कविता
-
- आई बासंती बयार सखी
- आज के शहर और कल के गाँव
- आशा का सूरज
- इनके बाद
- उम्मीद का सूरज
- उलझनें ही उलझनें
- उसकी हँसी
- ऊँचा उठना
- कृष्ण जन्मोत्सव
- चित्र बनाना मेरा शौक़ है
- जाने समय कब बदलेगा
- प्रिय के प्रति
- बिम्ब
- बे मौसम बरसात
- भारत के लोगों को क्या चाहिये
- मैं और मेरी चाय
- मैसेज और हिन्दी का महल
- राम ही राम
- लहरें
- लुका छिपी पक्षियों के साथ
- वह
- वक़्त
- संतान / बच्चे
- समय का क्या कहिये
- स्वागत
- हादसे के बाद
- होने न होने का अंतर?
- होरी है……
- ज़िंदगी के पड़ाव ऐसे भी
- सामाजिक आलेख
- ऐतिहासिक
-
- 1857 की क्रान्ति के अमर शहीद मंगल पाण्डेय
- 18वीं और 19वीं शताब्दी के दौरान भारत में उद्योग
- औपनिवेशिक भारत में पत्रकारिता और राजनीति
- पतित प्रभाकर बनाम भंगी कौन?
- भारत पर मुस्लिम आक्रमणों का एक दूसरा पक्ष
- शतरंज के खिलाड़ी के बहाने इतिहास के झरोखे से . . .
- सत्रहवीं सदी में भारत की सामाजिक दशा: यूरोपीय यात्रियों की दृष्टि में
- सोलहवीं सदी: इंग्लैंड में नारी
- स्वतंत्रता आन्दोलन में महिला प्रतिरोध की प्रतिमान: रानी लक्ष्मीबाई
- सांस्कृतिक आलेख
- सांस्कृतिक कथा
-
- इक्कसवीं सदी में कछुए और ख़रगोश की दौड़
- कलिकाल में सावित्री व सत्यवान
- क्या तुम मेरी माँ हो?
- जब मज़ाक़ बन गया अपराध
- तलवार नहीं ढाल चाहिए
- नये ज़माने में लोमड़ी और कौवा
- भेड़िया आया २१वीं सदी में
- मुल्ला नसीरुद्दीन और बेचारा पर्यटक
- राजा प्रताप भानु की रावण बनने की कथा
- रोटी क्या है?: एक क़िस्सा मुल्ला नसीरुद्दीन का
- हास्य-व्यंग्य कविता
- स्मृति लेख
- ललित निबन्ध
- कहानी
- यात्रा-संस्मरण
- शोध निबन्ध
- रेखाचित्र
- बाल साहित्य कहानी
- लघुकथा
- आप-बीती
- यात्रा वृत्तांत
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
- बच्चों के मुख से
- साहित्यिक आलेख
- बाल साहित्य कविता
- विडियो
-
- ऑडियो
-