मैं और मेरी चाय
डॉ. उषा रानी बंसलमैं और मेरी चाय –
चलो चाय बनायें
ख़ुद से बतियायें,
भय से काँपता कौन आयेगा,
उम्र ७६ के पार हो गई –
सब हम उमर के डर से घर में छिपे बैठे हैं!
तभी काँच के दर पर,
खट खट ने चौंका दिया!
बरसों से अलमारी में बंद चाय के सैट ने दस्तक दी,
शायद वह क़ैद से उकता गई थी,
किसी से आप-बीती कहने को बेताब / आतुर थी,
नज़र मिली तो बात बन गई।
चाय की केतली चढ़ी,
दूधदानी में दूध और, चीनीदानी में चीनी,
कपों को गर्म पानी से खंगाला गया,
केतली में चायपत्ती पानी डाल,
फूलदार टिकोज़ी से ढक दिया,
ट्रे में सबको सजा कर रख ही रहे थे,
कि, पारले जी भी कूद कर बैठ गया।
अब चाय का कप और मैं, बतियाने लगे,
चाय की चुस्की के साथ पुरानी यादें रस घोलने लगीं।
चाय के उठते धुँए में क़िस्सों के छल्ले बनने लगे,
हिलते हाथों में लिया कप – गुनगुनाने लगा,
मैं और चाय यूँ बतियाने लगे, जैसे
बरसों के बिछड़े आज मिले हों!
तभी पारले जी ने टपक कर,
यादों की चाशनी घोल दी,
हँसते-हँसते टिकोज़ी को आँसू आ गये,
चाय और मैं पुरानी यादों के समंदर में खो गये।
मैं और मेरी चाय!