चरण छूते आये, असलहे चमकाते चले गये!
डॉ. उषा रानी बंसल
हुआ यह कि काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में रिसर्च कमेटी की मीटिंग थी। उसमें सभी शिक्षक व रिसर्च के लिए उत्सुक रिसर्चर आये हुए थे। धीरे-धीरे रिसर्चर व गाइड के बीच सहमति के आधार पर रजिस्ट्रेशन होता गया। एक लड़की जिसे मैंने बी.ए. में पढ़ाया था, उसका रजिस्ट्रेशन नहीं हो सका। कारण मात्र इतना था कि वह जिनके साथ रिसर्च करना चाहती थी, उनके पास सीट ख़ाली न थी। मेरे पास एक सीट ख़ाली थी। मेरे सहयोगी साथियों ने उसका रजिस्ट्रेशन मेरे साथ कराने के लिए दबाव डाला। उनका तर्क था कि 6 महीने बाद उनके यहाँ जैसे ही सीट ख़ाली होगी वह उसका ट्रांसफ़र अपने साथ करा लेंगे। मैंने उस लड़की से बात की। मैंने पूछा कि आधुनिक भारत के किसी विषय पर रिसर्च करना चाहती हो? उसने कहा कि वह प्राचीनकाल के भारत पर रिसर्च करना चाहती है। मैं आधुनिक भारत पर रिसर्च करा रही थी। उससे जब मैंने बात की तो उसने कहा कि वह मेरे अंडर रिसर्च नहीं करना चाहती। क्योंकि वह रिसर्च स्कॉलर के नियमों का पूरी तरह पालन नहीं कर पायेगी। और आप मैडम बहुत अनुशासन वाली हैं। अतः वह मेरे साथ रिसर्च नहीं करना चाहती। मीटिंग में बहुत सी अप्रिय बातें हुईं। मेरा कहना था गाइड का रिसर्चर के साथ क़रीब क़रीब पाँच साल का सम्बन्ध या रिश्ता होता है। यह बी.ए., एम.ए. तो नहीं है! डिग्री मिली बात समाप्त? जब वह कन्या मेरे साथ रिसर्च करना ही नहीं चाहती तो मैं ज़बरदस्ती साइन क्यों करूँ?
काफ़ी किच-किच के बाद सायं 5 बजे मीटिंग समाप्त हुई, मैं घर आ गई।
क़रीब एक घंटे बाद एक वैन मेरे घर के सामने रुकी। उसमें से दो लड़के निकले। एक के गले में लॉकेट था जिस पर उसका नाम था उसने मेरे पैर छू कर प्रणाम किया फिर अपना परिचय दिया। मैंने पूछा कि कहिए क्या काम है?
“उस लड़की के फार्म पर हस्ताक्षर कर दीजिए!”
मुझे पूरी बात समझ में आ गई। मैंने समझाने की कोशिश की कि वह मेरे साथ रिसर्च नहीं करना चाहती। मैंने उसे मीटिंग में हुई सारी बात फिर से दोहरा दी उसने भी रटी रटाई बात कह दी कि 6 महीने की बात है, वह दूसरे सर के अंडर चली जायेगी।
एक बार पहले भी मैं इस में फँस चुकी थी। एक लड़का था उसका रजिस्ट्रेशन मैंने अपने अंडर ले लिया था। वह सरकारी नौकरी की तैयारी कर रहा था, रिसर्च स्कॉलर बनने से हॉस्टल की सारी सुविधाएँ मिल जाती इसलिए रिसर्च करना चाहता था। रिसर्च स्कॉलर बन कर उसे वह सब मिल गया जो उसे चाहिए था। उसने कोई काम नहीं किया। उसको सरकारी नौकरी मिल भी गई, पंरतु सीट ख़ाली करने को तैयार नहीं था। वह हॉसटलह की सीट बरक़रार रखना चाहता था। उससे सीट ख़ाली कराने में बहुत पापड़ बेलने पड़े थे। मैं उसे दोहराना नहीं चाहती थी।
मैंने बात समाप्त करने के लिए कहा कि अब तो मीटिंग ख़त्म हो गई। फ़ॉर्म भी नहीं है . . . उसने तुरंत शर्ट में से फ़ॉर्म निकाल कर मेरे सामने कर दिया, “ये रहा फ़ॉर्म आप बस साइन कर दीजिए।” बड़ी दुविधा हो गई। पर मैंने कहा कि किसी ऐसी लड़की जो मेरे साथ काम करना नहीं चाहती, उसके फ़ॉर्म पर हस्ताक्षर नहीं कर सकती!
बस तुरंत, उस पैर छू कर प्रणाम करने वाले ने कट्टा (देसी पिस्तौल) निकाल लिया और कहा कि आप को पता है वह बिहार के विधायक की बेटी है।
“वह किसी न किसी की तो बेटी होगी!”
“आप सीधी तरह साइन कर दीजिए।”
तभी वैन में बैठे साथी भी गन लेकर आ गये।
मैंने कहा कि आप मुझे मार सकते हैं परन्तु मेरे साइन नहीं करवा सकते।
वह मुझे बुरा भला कहते, चेतावनी देते, हवाई फ़ायर करते चले गये।
जो चरण स्पर्श करते आये थे, असलहे चमकाते चले गये। हम ठगे से अंजाम देखते रह गये।
बाद में पता चला कि उस पर मर्डर का केस चल रहा था। उसे जेल जाना पड़ा।
1 टिप्पणियाँ
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सहमत हूँ मैम। मैं स्वयं प्रोफेसर हूँ। आज के समय में यह सब सहज बात है। हमें सोचना पड़ता है कि किस अभ्यर्थी को अपने साथ रखा जाए? वास्तव में ज्ञान , अध्ययनशीलता और शील- संस्कार की योग्यता अक्सर नहीं मिलती है। बल्कि, अभी के समय में वैसे रिसर्चर मिलते ही नहीं हैं, जो स्वयं अपनी थीसिस तैयार करें। इन्हीं कारणों से जब मैं शोधकर्ता को मना करती हूँ तो वह विश्वविद्यालय में जहाँ- तहाँ मेरी बुराई करता है। ऐसे रिसर्चर नेता के खास हों, यह जरूरी नहीं है। ऐसे रिसर्चर हमारे लिए भारस्वरूप हैं। अपने सम्मान की रक्षा करना बहुत कठिन ???? है।
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