होटल में डिनर
डॉ. उषा रानी बंसलगर्मी व बरसात के दिन, उसे रिटायरमेंट के बाद अचानक कुछ अधिक ही लम्बे व उबाऊ लगने लगे। करने को कुछ ख़ास काम भी न था। घर की साफ़-सफ़ाई, खाना बनाने में कुछ समय बीत जाता था। घर में कुछ पेड़ पौधे थे, थोड़ा वक़्त उनकी देखभाल में निकल जाता। फिर भी बहुत सा समय बच जाता। वह सोचने लगी कि जब वह नौकरी में थी तो अक्सर यह कह देती थी कि मुझे तो मरने की भी फ़ुर्सत नहीं मिलती। ये चौबीस घंटे भी कम पड़ जाते थे, इतना काम था। उस समय समय निकालना कठिन था; अब समय काटे नहीं कटता।
हर दिन वही दाल, चावल सब्जी रोटी जिसे खाते बनाते कभी उब न हुई, अब उबाऊ लगने लगी। शाम को एक दिन लौकी, दूसरे दिन निनुआँ, कभी-कभी आलू खाते-खाते कुछ अलग खाने का मन होने लगा। पर एक नई समस्या तो यह थी कि क्या बनाये, क्या खाये? इस सब उलझन से बचने के लिये सोचा कि डिनर के लिये होटल चलें। इस बहाने से अच्छे कपड़े निकाल कर पहिने। फिर होटल जाने के प्रसंगों के यादों की पोटली सँभाले वह एक परिचित होटल में डिनर खाने चली गई।
उस होटल के क़रीब-क़रीब सभी वेटर उसे जानते थे। बड़े सम्मान व अपनेपन से वेटर ने कुर्सी पर बिठाया। तभी दूसरा वेटर भी आ गया। नमस्ते कर हाल चाल पूछा, फिर कहा कि "मैडम अकेले ही हैं?" पहले वेटर ने कहा कि ”भईया लोग अभी आते होंगें”। (अभी कुछ महीने पहले बच्चे विदेश से आये हुए थे। हम उनके साथ उस होटल में खाना खाने गये थे) उसकी यादों की पोटली में कुछ हलचल हुई, उसने संयत होते हुए कहा कि ”कोई और आने वाला नहीं है।"
वेटर जल्दी से मुड़ गये और पानी व मैन्यू कार्ड ले कर लौटे। वह काफ़ी देर तक मैन्यू-कार्ड़ को पढ़ती रही और बीच-बीच में घूँट-घूँट पानी भी पीती रही। पूरा मैन्यू पढ़ने के बाद एक प्लेट छोले-भटूरे का ऑर्डर कर दिया। काफ़ी इन्तजार के बाद छोले-भटूरे आये। छोलों में कुछ ज़्यादा ही मिर्च थीं। या मन ठीक न होने के कारण मिर्च अधिक लगी। अकेले में एक सब्ज़ी से अधिक मँगाना भी सब्ज़ियों को बर्बाद करना लगा। दो सब्ज़ियाँ मँगाने में कोई तुक न थी। छोले-भटूरे सामने ते। जब मँगा लिया तो क्या करतीं बेचारी? मन-मार कर छोले-भटूरे निगलने लगीं। जैसे-तैसे एक भटूरा गले में उतारा और जल्दी से बिल अदा करके घर चली आई।
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